लहर (दिवाकर)
दिवाकर नादमूर्तिवैसे तो
तुम्हारे और मेरे बीच
कभी कुछ था ही नहीं
कोई रिश्ता नहीं था...
मगर फिर भी...
वो तुम्हारा सागर के
बदन को सहलाना
एक बहाना बन गया
और मैं तुम्हें
चाहने लगी...
तुम हवा हो...
कभी भी...
कभी भी...
किसी भी रफ़्तार से
बह सकती हो
मैं एक लहर हूँ
विशाल सागर की
मगर फिर भी
बँधी हूँ किनारों से
मैं पानी की कुछ बूँदों के सिवा
कुछ भी नहीं थी
तुमने.. मुझे
चलना सिखाया...
और मैंने....
एक लहर का नाम पा लिया
मैं तुम्हारे साथ साथ चलने लगी
तुम्हारे रुक जाने पर मैं रुक जाती
तुम्हारे चलने पर मैं चल जाती
जब तुम बहुत खुश होते
तो मैं भी तुम्हारे साथ
आसमान छूने की
कोशिश करती
ऐसा नहीं कि सागर ने मुझे समझाया नहीं
मगर मैं पागल थी
आज जब तुमने रफ़्तार पकड़ ली
तो मैं भी खुद को रोक नहीं पायी
तुम्हारे पीछे पीछे.... मगर....
तुमसे आगे निकल जाना चाहती थी
मैं ना पीछे मुड़ कर देखा...
ना ये देखा कि आगे क्या है...
और....
तुम्हारे साथ चलने की कोशिश में
मैं टकरा गई किनारों से...
टूट गई......
मेरे बदन के कुछ टुकड़े
मुझसे अलग हो कर
किनारों के पार फैल गए
खो गए जाने कहाँ
आज जब कि तुम साथ नहीं
जाने क्यों दिल कहता है
कि मेरे साथ धोखा हुआ है
तुमने बे-वफ़ाई की है