लड़की आज भी

09-04-2012

लड़की आज भी

डॉ. आस्था नवल

बरसते पानी को देख हुई हर्षित मैं
मन में उठीं सागर की सी हिलोरें
चाह उठी वृक्षों के साथ झूमने की

 

वर्षा की बूँदों को छूने के लिये
जैसे ही खिड़की खोली
वे सारी बूँदें मेरी ही आँखों से बह निकलीं

 

सारा हर्ष, सारी हिलोरें छिप गईं कहीं
सब कुछ धुन्धला सा हो गया
और दिखाई दीं केवल नौ लौहे की आड़ी सीखचें
जो डाल दी गयी हैं खिड़की में 
सुरक्षा के लिये मेरी

 

पानी अब भी बरस रहा है
वृक्ष अब भी झूम रहे हैं
पंछी चहक रहे हैं
मैं सब कुछ देख रही हूँ
मगर सीखचों के भीतर से।

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