मैं अपने कमरे में खिड़की की सलाखें पकड़े सामने मैदान में लड़ते दो बच्चों को देख रहा हूँ, जिनकी उम्र छह-सात वर्ष के आस-पास है। दोनों कभी एक-दूसरे को पीटने लगते हैं।  कभी बाल नोंचने लगते हैं। कभी आपस में गुथ जाते हैं।

लेकिन मैं उनको देखता रहता हूँ। उन्हें आपस में लड़ते हुये देख मुझ पर कोई प्रतिक्रिया नहीं होती। मैं मात्र दर्शक बनकर लड़ाई का आनन्द ले रहा हूँ , निश्चिंत-भाव से टकटकी बाँधे। उन्हें छुड़ाने का विचार मेरे मस्तिष्क के आस-पास तक नहीं फटकता।

तभी एक बच्चा दूसरे बच्चे को ज़मीन पर पटक देता है। उसके सिर में चोट लगती है। लेकिन गिरते ही उसके हाथ में ज़मीन पर पड़ा एक आवारा पत्थर आ जाता है। वह उसे उठा ऊपर वाले लड़के के सिर में ठोक देता है। उसके सिर से भी खून बहने लगता है।

दोनों लहुलुहान हो जाते हैं। लेकिन फिर भी गुथे हुये हैं। न जाने क्या चाहते हैं। मैं इतना कुछ हो जाने के बाद भी शांत-भाव से खड़ा उन्हें देख रहा हूँ। मूक-दर्शक की भाँति।

मैं उन्हें छुड़ाने नहीं जा रहा। क्यों? ये मुझे क्या हो गया है अचानक। मेरी सहानुभूति कहाँ गई? मुझमें संवेदनाओं के तार क्यों नहीं झनझनाते?

तभी देखता हूँ, दोनों बच्चों के परिवार वाले आ जाते हैं और अपने-अपने बच्चे को खून में लिपटा देख बिना कुछ जाने आपस में लड़ना शुरू कर देते हैं, ऐसे जैसे कि ये उनका पूर्व-नियोजित कार्यक्रम हो।

ये आज अचानक मुझे क्या हो गया है, मेरी स्वयं की समझ में नहीं आ रहा। ऐसा पहले तो कभी नहीं हुआ। जरा-सी भी किसी को चोट लग जाती थी तो दौड़ा-दौडा उसकी मरहम-पट्टी कराने के लिये भागता था। कोई गिर जाता था, तो दौड़कर उसे उठाता था। कोई लड़ता था, तो बीच-बचाव कर समझौता कराता था।

लेकिन आज ये अचानक परिवर्तन देख मैं स्वयं हैरान हूँ। मेरा दिल बेचैन हो उठता है। ऐसा लगता है जैसे मेरी सारी सहानुभूति मर चुकी है। मैं खिड़की से हट कमरे में बिछी खाट पर आकर लेट जाता हूँ। बेचैनी कम हो इसलिए समीप के आले में रखे ट्रांजिस्टर का स्विच-ऑन कर देता हूँ। बटन घुमाता हूँ। तभी संयोग से बी. बी. सी. लंदन लग जाता है, जो ‘अमेरिका-ईराक’ लड़ाई के बारे में समाचार-बुलेटिन प्रसारित कर रहा होता है।

‘अमेरिका-ईराक युद्ध’ अजीब लोग हैं आज की दुनियाँ के। जाने क्या मिलता है उन्हें लड़ाई में। लड़ाई.... लड़ाई ....... लड़ाई। आज के युग में जैसे लड़ाई ही सब बातों का समाधान बन कर रह गई है। क्या शक्ति परीक्षण का माध्यम ये लड़ाई ही है?

सही है नेताओं का जाता भी क्या है। मरते हैं तो सैनिक। विधवा होती हैं तो उनकी पत्नियाँ। बेटा मरता है तो किसी अभागी माँ का। भाई मरता है तो किसी कर्मजली बहन का। पिता मरता है तो बदनसीब बच्चों का।

नेताओं का क्या, उन्हें तो देश की रक्षा के नाम पर जो फौजें तैयार की हैं, उन्हें लड़ाने से मतलब। इसी समय के लिये तो फौजें बनाई जाती हैं। कोई देश हमारी बात नहीं मानता तो उतार दो फौजों को मैदान-ए-जंग में, देश की सुरक्षा के नाम पर। सच है इतने दिन खिलाने-पिलाने का ऋण भी तो उन फौजियों से वसूलना आवश्यक है। वरना क्या जरूरत है रक्षा के नाम पर देश को इतनी बड़ी पूँजी बरबाद करने की?

पता नहीं विश्व कब इससे मुक्ति पा सकेगा? ऐसी लड़ाई से भला क्या लाभ, जो मानव-जीवन की रक्षा के नाम पर किसी मानव को ही मौत से साक्षात्कार करने के लिये विवश कर दे? धन्य हैं वे जो देश की रक्षा के नाम पर, मानव-जीवन की रक्षा के नाम पर स्वयं अपनी जिन्दगी को दाँव पर लगा देते हैं बारूद के ढेर के साथ। लगता है इस लड़ाई का अंत कभी नहीं होगा... कभी नहीं....... 

अचानक मैं चेतनावस्था में आता हूँ। मस्तिष्क को झटकता हूँ। ये बातें सोच-सोच कर और भारी हो जाता है सिर। ट्रांजिस्टर बंद करता हूँ। खटिया से उठकर कपड़े पहनने लगता हूँ। शायद रात के शांत वातावरण में टहलने से कुछ हल्कापन आ जाये। यही सोच में पाँवों में चप्पल डालकर कमरे से बाहर निकलता हूँ। कमरे का ताला लगाकर जैसे ही सड़क पर कदम रखता हूँ , तभी ‘राम-नाम सत्य है’ की आवाज़ मेरे कानों में पड़ती है। मैं ठिठक कर रुक जाता हूँ। चेतना शून्य हो जाता हूँ कुछ पल के लिये अर्थी को देखकर।

मृत्यु जिससे कोई नहीं बच पाया। चाहे वह कोई भी क्यों न हो। बड़ा अजीब है ज़िन्दगी का मोह? मरते दम तक मनुष्य इसे त्याग नहीं पाता। चाहे वह अमीर हो या गरीब। संसार के मोहजाल में उलझकर वह भूल जाता है कि कभी उससे मौत का भी साक्षात्कार होना है। ऐसा साक्षात्कार जो कि प्रथम और अंतिम एक साथ ही होता है। जो किसी को नहीं छोड़ता। उसके लिये सब बराबर हैं। चाहे वह महापुरुष हो या महापापी।

कुछ सोचकर मैं भी उस शव-यात्रा में सम्मिलित हो जाता हूँ। अभी दो दिन पहले ही अपने मकान के बँटवारे को लेकर दो भाईयों में लड़ाई हो गई थी। नगर के प्रतिष्ठित सेठ थे, स्थिति हद से गुज़र गई। दोनों बुरी तरह ज़ख्मी हो गये। आज अस्पताल में एक मृत्यु को प्राप्त हो गया, उसी की शव-यात्रा है ये।

काफी भीड़ है शव-यात्रा में। सेठ की शव-यात्रा है ना। किसी ग़रीब की होती, तो शायद इतनी भीड़ नहीं होती।

मैंने अपनी आँखों से देखी है एक लाश चील-कौवों द्वारा नोंची जाती। निश्चित ही किसी भिखारी की रही होगी। पता नहीं किस जन्म का ऋण उतारने के लिये पैदा हुआ था बेचारा? मुक्ति पा गया। यही सोचकर मैंने सांत्वना दी थी अपने मन को।

मनुष्य. . . अजीब है इसकी जिन्दगी। क्रियाओं में उलझी हुई। पहली बार जब पैदा होता है। दूसरी बार जब ब्याह रचाता है और अंतिम बार जब मर जाता है। तमाम क्रियायें सम्पन्न की जाती हैं उसके लिये। पहली बार की और अंतिम बार की क्रियाओं में कितनी समानता होती है। जहाँ पहली वाली क्रियायें जन्मोपरांत मनुष्य के शुद्धिकरण के लिये सम्पन्न की जाती है, वहीं अंतिम वाली क्रियायें मनुष्य के मरणोपरांत उसकी मोक्ष प्राप्ति के लिये।

जैसे इन क्रियाओं के बिना मनुष्य को मोक्ष प्राप्त हो ही नहीं सकता? जन्म के पूर्व एवं मृत्यु के बाद की स्थिति कौन जानता है? आत्मा को किसने देखा है? किसी ने नहीं। फिर ये सब कार्य-कलाप क्यों?

तभी मेरा मस्तिष्क ‘राम-नाम सत्य है’ के वाक्य में उलझकर रह जाता है। लोग शव-यात्रा में ये वाक्य क्यों उछालते हैं? क्या मृतक को अहसास कराने के लिये कि ‘देख तू झूठा था, सत्य तो केवल राम का नाम ही है’ वह बेचारा क्या सुन पाता होगा?

शव-यात्रा पूरी होती है श्मशान-घाट पहुँचकर। शव चिता के हवाले कर लोग हाथ बाँध कर खड़े हो जाते हैं। चिता जिसकी परिणति कुछ ही घंटे में राख का ढेर है। यानि कि तरल पदार्थ की मिट्टी में परिणति ही एक संपूर्ण जीवन है। ऐसा जीवन जो कि संघर्ष में, लड़ाई में धीरे-धीरे घिसता रहता है। काम,  क्रोध, अहम्‌ और मोह की अग्नि में जलता रहता है, मिट्टी बनने की चाह में।

सब उदास-उदास चेहरे लिये लौट पड़ते हैं। मैं भी सबों के साथ बुझा-बुझा सा लौट पड़ता हूँ श्मशान घाट से। सच्चाई देखकर सबों के चेहरे सहमे हुये से लगते हैं मुझे। सबों की मानसिकता बदल जाती है उस समय जब चिता दहकती है। लेकिन कुछ ही समय बाद. . . कुछ ही समय बाद सब कुछ भूल जाता है मनुष्य।

भूल जाता है सच्चाई को, हक़ीक़त को। और फिर शुरू हो जाती है उसकी रोज की लड़ाई. . . उसका रोज़ का संघर्ष. . . .।

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