क्यूँ नहीं ये ज़िंदगी...!
आंचल सोनी ’हिया’क्यूँ नहीं ये ज़िंदगी...
बदल जाती हर रोज़,
कभी तो दुख की काली बदरी
हट जाती किसी रोज़।
क्यूँ ये तारे आसमान में...
यूँ बिखरे बिखरे से दिखते हैं,
ऐसा लगता है, जैसे एक दूजे से,
ख़फ़ा ख़फ़ा से रहते हैं।
क्यूँ लहराता रहता मुझपर...
दुख का ममता विहीन आंचल,
जो पल पल करता रहता
मुझे मेरी ही ख़ुशियों से ओझल।
सच क्यूँ नहीं ये ज़िंदगी...
बदल जाती रोज़,
कभी तो दुख की काली बदरी
हट जाती किसी रोज़॥
2 टिप्पणियाँ
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So heartily composed. Great poem Dear writer. 100 out of 100...keep it up
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वाह! बहुत ही शानदार कविता आँचल जी। आप युही लिखती रहे। आशा है, साहित्य कुञ्ज में आपकी रचनाएं और पढ़ने का मौका मिलेगा।