कठोर यथार्थ
पुष्पराज चसवालक्या तुम यथार्थ से कटे हुए
मात्र कल्पना-लोक में खोए
दिवा-स्वप्नों का रचना-संसार
रचते रहोगे अन्तिम आलोक मान इसे,
जीवन के कठोर यथार्थ से
अनभिज्ञ नहीं हो तुम,
कठोर यथार्थ देख कर भी
उसे अनदेखा करते रहे हो निरंतर।
क्यों?
क्योंकि वह वीभत्स है!
उसके चिन्तन-मात्र से हिल जाता है
तुम्हारा समूचा व्यक्तित्व!
काँप उठता है
तुम्हारा समूचा कल्पना-लोक।
तुम अपने सौन्दर्य-लोक को
पाते हो मिथ्या,
अरक्षित, अपूर्ण-सा!
तुम्हारी अन्तरात्मा छटपटाती है
नकारने को मिथ्या स्वप्नलोक,
जिसे कभी रचा था तुमने सप्रयास
और जो खंड-खंड हो चुका है कभी से
कठोर यथार्थ की चट्टान से टकरा कर।
किन्तु तुम्हारा मिथ्या दम्भ
इस कठोर सत्य को स्वीकारने
तुम्हारे आड़े आता रहा और
तुम निरुपाय से, बने खड़े रहे देखते,
यह तुम्हारे पौरुष की सीमा थी--
तुम उस भोले किसान के सामने
कितने बौने हो, जिसका समूचा गात
शिखर दुपहरी में, स्वेदकणों से सिक्त है।
और जो फिर भी, बहारों के गीत गाता
अपने कृषि-कर्म में मुग्धता से
कृषक कहलाता है।
उस मजदूर के सामने
जिसकी श्रमिक छवि,
गगनचुम्बी भव्य इमारतों में
प्रतिकण उद्घाटित है;
कितने छोटे हो तुम। जो सदैव
धनपतियों के स्तुति-गान रचकर
यश बटोरने में लींन हो।
सामन्ती शोषक व्यवस्था के अंग हो तुम।
कोटि-कोटि श्रमिकों के अथक श्रम में,
निहित उनकी कर्तव्य-निष्ठा में अद्भुत
गरिमा से ओतप्रोत क्षण; तुम्हें नज़र नहीं आते।
क्या तुम जान सके हो कभी
वह भी प्रणय-जगत में विचर सकता था!
वह भी प्रेमलीला-क्रीड़ाएँ कर सकता था!
वह भी उन्मत्त मुग्ध गीत गा सकता था!
फिर भी उसने
गगनचुम्बी अट्टालिकाओं को, उसारने के
गीत गाए। और स्वयं को इसी पर
न्यौछावर कर, धन्य मानता रहा।
तुमने कभी नहीं सोचा,
कि उसकी फूंस की झोंपड़ी में,
दिया जला कि नहीं!
उसका शिशु दवा के अभाव में बिलखता रहा,
फिर भी उसकी श्रमिक पत्नी ने, उफ़्फ़ तक न की
और दो शब्द भी न सूझे तुम्हें, उसके लिए!