कृति समीक्षा: ‘काव्यांजलि’ 

01-10-2024

कृति समीक्षा: ‘काव्यांजलि’ 

विनय श्रीवास्तव (अंक: 262, अक्टूबर प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

समीक्षित पुस्तक: काव्यांजलि (लघु उपन्यास)
प्रकाशक: भारतीय साहित्य संग्रह
संस्करण: प्रथम (2024) 
मुद्रित पृष्ठों की संख्या: 127
मूल्य: ₹ 275.00
ISBN: 978-1-61301-789-0

 

‘काव्यांजलि’ डॉ. राजीव श्रीवास्तव कृत लघु उपन्यास है। जिसका कथानक नितान्त घरेलू और पारिवारिक पृष्ठभूमि पर आधारित है। 

‘काव्यांजलि’ उपन्यास की मुख्य महिला पात्र है, जिसके नाम पर उपन्यास का नामकरण किया गया है। जो उपन्यास के मुख्य पात्र डॉ. राघवेन्द्र की पत्नी है। जिनके जीवन के इर्द-गिर्द इसकी कहानी चलती है। 

उपन्यास डॉ. राघवेन्द्र के जीवन वृत्त की कथ्यात्मक शैली में प्रस्तुति है। उपन्यास की कहानी पारिवारिक-भावनात्मक रिश्तों की भावुक कहानी है। जिसे फ़्लैश बैक शैली में लिखा गया है। जिसमें संयुक्त परिवार की स्मृतियों, उत्सवों, बच्चों को लाड़-प्यार से पालने की यादों, परिवार संग तीर्थ एवं अन्य प्रायोजनों से किए गए यात्रा वृतान्त भी हैं। जिसमें पारिवारिक सदस्यों व बच्चों द्वारा दादी-नानी आदि को मिलने वाला सम्मान व स्नेह भी चित्रित किया गया है। उपन्यास परिवार और भावना प्रधान है। 

उपन्यास की भाषा सरल और समय सापेक्ष है। बच्चों के लिए बहुत ज़रूरी होता है अपने परिवार के इतिहास की जानकारी का होना उपन्यास के मुख्य पात्र डॉ. राघवेन्द्र अपने बच्चों को नाना और बाबा की मित्रता जो रिश्तेदारी में बदल गयी के बारे में बताते हैं। बच्चे सुनते भी हैं— यह बहुत आदर्श प्रस्तुति है। आज के समय की तुलना में क्योंकि आज तो बच्चों को बाबा-नाना, नानी-दादी के साथ होना या उनके बारे में ज़्यादा जानकारी देना संस्कृति विरुद्ध समझा जा रहा है। बच्चों का केवल ऊँचे नम्बर लाने को ही स्टेटस माना जा रहा है; बच्चों के भविष्य का जो सवाल है। अजीब सी अपसंस्कृति को बढ़ावा दिया जा रहा है। हमारे भारतीय समाज में, पश्चिम देशों में कमाने जाने के लिए बच्चों को तैयार किया जा रहा है वह भी स्वयं माँ बाप द्वारा। 

परिवार हर व्यक्ति के जीवन की अमूल्य धरोहर होती है। इस उपन्यास के कथानक की धुरी परिवार है जिसमें संयुक्त परिवार के भी दृश्यांकन हैं। आज के समाज में यह दूर की कौड़ी होकर रह गया है। अब संयुक्त परिवार से नाभिकीय परिवार और फिर आंशिक परिवार होते जा रहे हैं। नाभिकीय परिवार के तीन चार सदस्य भी दो या उससे अधिक स्थानों पर रहते हैं। पढ़ाई कमाई या किसी अन्य उद्देश्य से परिवार के संरचनात्मक ढाँचे और भावनाओं के साथ समझौते किये जा रहे हैं। पारिवारिक प्राथमिकताएँ और प्रायिकताएँ बदल रही हैं। किन्तु उपन्यास में आदर्श और पारस्परिक स्नेह बन्धों से बने परिवार के दृश्यांकन हैं। जिसे आज के लोग ‘मिस’ कर रहे हैं, विज्ञान के सूचना क्रान्ति के युग के डिजिटल-सिलिकॉन चरण में। 

चिकित्सक इंसान भी अपने परिवार धर्म और दर्शन से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता है। ऐसी ही पुष्टि इस उपन्यास में होती है। विज्ञान और दर्शन का अंत: सम्बन्ध होता है। ‘विज्ञान’ दार्शनिक परिकल्पना/सिद्धान्तों का प्रयोग द्वारा सत्यापित रूप है या कह सकते हैं प्रकृति के रहस्यों से पर्दा हटाना ही विज्ञान है। 

डॉक्टर लेखक की विचारधारा में दार्शनिकता का पुट, जो सम्भवतः परिवार के वरिष्ठजनों के श्रुति-सान्निध्य या धार्मिक-दार्शनिक ग्रन्थों को पढ़ने के बाद आत्मचिन्तन से प्राप्त ज्ञान हो सकता है, उपन्यास की आरम्भिक पंक्तियाँ अवलोकनार्थ प्रस्तुत हैं यथा:

“काव्यांजलि का सूक्ष्म शरीर श्वेत वस्त्रों के जलने के कारण तिलमिला उठा। यह जलन थोड़ी देर बाद में शीतलता में बदल गयी। 

काव्यांजलि सूक्ष्म शरीर से सभी को देख रही है। उसका मन हुआ कि दुःखी पति को गले लगा ले और पुत्रों को प्यार करे पर यह सम्भव न था। सूक्ष्म शरीर के सम्मुख अतीत एक चलचित्र की भाँति घूमने लगा।”

उपन्यास की समापन पंक्तियाँ:

“विनोद ने सिर उठाकर देखा कि आगे आगे श्वेत वस्त्रों में काव्या का सूक्ष्म शरीर और उसके पीछे श्वेत वस्त्रों में राघवेन्द्र का सूक्ष्म शरीर अनन्त आकाश की ओर काव्या काव्या पुकारता चला जा रहा है।” 

इन दृश्यों को उपन्यास में जो चित्रित किया गया है अमूमन ऐसा किसी आम-जन को देखने को नहीं मिलता, हाँ, यह कल्पना तत्त्व का दिल और दिमाग़ पर हावी हो जाना भी हो सकता है जिसकी बुनियाद में आत्मिक जनों से दिली लगाव ही है। बहरहाल यह एक भावुक दृश्यांकन है जिसको पढ़ने के बाद पाठक थोड़ी देर के लिए स्वयं की कल्पनाओं में खो जायेगा। 

उपन्यास में भावात्मक शैली का अधिकांशतः प्रयोग हुआ है। आवश्यकता पड़ने पर वर्णनात्मक शैली भी उपन्यासकार डॉ. राजीव ने प्रयोग की है। अपने पात्रों की सजीवता बनाये रखने के लिए कल्पना का सहारा लेना भी उपन्यास की सफलता का सूचक होता है। 

यह उपन्यास आज के युगीन समाज में ‘मानवीय मूल्यों’ में दिनोदिन हो रहे अवमूल्यन, जिसकी शुरूआत परिवार से होती है, की पुनर्स्थापना कर सकने में अवश्य ही सक्षम है। 

हमारी भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठ संस्कृति सिद्ध करने वाले ‘परिवार’ की अहमियत सिद्ध करने वाला उपन्यास है। 

इस उपन्यास को पढ़कर मेरी अपनी चिकित्सक साहित्यकारों की सूची में एक और नाम डॉ. राजीव श्रीवास्तव का जुड़ गया। 

आशा है डॉ. राजीव श्रीवास्तव अपनी साहित्यिक प्रतिभा का उद्घाटन निकट भविष्य में अपनी नित्य नयी कृतियों के प्रकाशन से करते रहेंगे। 

समीक्षक: विनय श्रीवास्तव
अध्यक्ष, डॉ. रमाकान्त श्रीवास्तव साहित्यिक संस्थान लखनऊ (पंजी) 
चलभाष: 9839911815

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