कोहरे में गाँव

15-11-2021

कोहरे में गाँव

दिलीप जैन (अंक: 193, नवम्बर द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

कोहरे में छुप गया है गाँव
धूप से डरने लगी है छाँव 

लेकिन कोहरा कितना भी घना हो, वे पैनी निगाहें उसे भी भेद देती हैं जिसे धूप भी नहीं भेद पाती। वे निगाहें जो संवेदनशील हों, जो अपने ही नहीं दूसरों के दुख से भी द्रवित होती हों, जो सूक्ष्मता से देख लेती हों अपने चारों ओर व्याप्त विसंगतियाँ। ऐसी व्यथाओं से जब कवि लबालब होता है तो काग़ज़ पर उतरती है वैसी ग़ज़लें जो सतीश राठी के द्वितीय काव्य संकलन ’कोहरे के गाँव’ में समाहित हैं। 

लघुकथा के सतीश राठी स्थापित पुरोधा है। वे बरसों से लघुकथाएँ लिख रहे हैं, लिखवा रहे हैं, उन पर चर्चाओं के लिये सत्र आयोजित करते हैं, सम्मेलनों का आयोजन करते हैं। लेकिन मेरे व्यक्तिगत मत में लघुकथाकार के पहले सतीश राठी कवि हैं। उनमें संवेदनाएँ है। उनकी अभिव्यक्ति के लिये काव्यात्मक बिंब हैं। यही कारण है कि आज से डेढ़ दशक पूर्व उनका प्रथम काव्य संकलन ‘पिघलती आँख का सच’ प्रकाशित हो चुका है। ’कोहरे में गाँव’ एक ग़ज़ल संग्रह के रूप में उनकी दूसरी काव्य कृति है। 

’कोहरे में गाँव’ पढ़ते हुए इस बात की पुष्टि होती है कि श्री राठी के पास अपनी भावनाओं को काव्य में अभिव्यक्त करने की प्रभावी प्रतिभा है, फिर चाहे वे भावनाएँ व्यक्तिगत हों, सार्वजनिक हों, रूमानी हों, रूहानी हों, सियासी हों या अन्य प्रकार की। जिस प्रारूप में ये अभिव्यक्तियाँ हुई हैं उसे उन्होंने ग़ज़ल नाम दिया है। 

’कोहरे में गाँव’ की ग़ज़लों को पढ़ने से लगा कि वरिष्ठ कवि सतीश राठी ग़ज़लें अपनी युवावस्था से लिख रहे हैं। उन्होंने संभवतया तभी लिखा होगा–

तेरे हाथों में जो प्यार की इक रेखा है
उस पर मैंने अपना नाम लिखा देखा है
 
करी कल्पना अपनी शादी की जब भी
तुझको अपना प्यार बनाकर देखा है।

लेकिन भावुक मन सतीश राठी अपनी सीमाओं से कभी ग़ाफ़िल नहीं रहे। इसीलिये लिख दिया–

अपनी अपनी झोपड़पट्टी अपने अपने राजमहल
अपने अपने दर्द के क़िस्से अपने अपने ताजमहल

ज़िंदगी के बिखराव को, आम आदमी की पीड़ा को, राठी जी ने अपने इस अंदाज़ में देखा–  

ज़िंदगी बिखर गई दरारों में
आदमी सिमट गया उधारों में
 
किश्त में ही चुक गयी तमाम उम्र
सारा दिन कट गया क़तारों में

भौतिकता की चकाचौंध में संवेदनाशून्य होते मानव मन को राठी जी ने रेखाकिंत किया है– 
   
सबकी आँखों का मर गया पानी
आज जाने किधर गया पानी
 
पीड़ा मन के पार हो गयी
आँख बहुत लाचार हो गयी 
 
आदमी में देखिये इक जिन्न ज़िंदा हो गया
आँसुओं का टपकना भी एक धंधा हो गया

मुक्त बाज़ार व्यवस्था से गहराती अमीरी–ग़रीबी की खाई से भी वे आहत होते हैं–

दिल में मेरे अक़सर उठा यही सवाल है
ख़ुशहाल है कुछ, बाक़ी क्यों फटेहाल है 

प्रजातंत्र के कलंक के रूप में इस पर हावी गुंडई के विरुद्ध भी उनका स्वर मुखरित होता है– 

गली गली में झोपड़पट्टी और उनमें आवारा गुंडे 
आज के युग के कर्ताधर्ता बने यही आवारा गुंडे
 
लोकतंत्र के राज में कैसी, रस्में ये देखी हमने 
युग निर्माता कहलाए जो बाहुबली आवारा गुंडे 

’कोहरे में गाँव’ में यह स्पष्ट संदेश है कि गाँव राठीजी मुश्किलों में भी मुस्कराने वाले कवि हैं। इसीलिये वे लिखते हैं –

दर्द ने चुटकियाँ बहुत काटी
हमने फिर भी तो ख़ुशी है बाँटी 

वे आत्मावलोकन के भी समर्थक हैं– 

सही आकलन वही करेगा
जो ख़ुद को झाँके दर्पण में  

ग़ज़लों की संरचना में शब्दों का भ्रमजाल नहीं है, वरन सपाट बयानी है। भावाभिव्यक्ति में कहीं भी दुरूहता नहीं है। मेरा विश्वास है कि एक आम पाठक इन्हें उन्हीं अर्थों में लेगा जो ग़ज़लकार कहना चाहता है। यही इस संकलन की सफलता है। इसके लिये ग़ज़लकार का प्रयास अभिनंदनीय है। 

मैं ग़ज़लों का पाठक रहा हूँ, विद्यार्थी कभी नहीं। इसलिये मेरे लिये कहना मुश्किल है कि तकनीकी दृष्टि से ये पूरी तरह से ग़ज़ल है या नहीं। यह ग़ज़ल की बारीक़ियों के विशेषज्ञ ही बता सकते हैं लेकिन जो प्रारूप राठी जी ने अपनाया है वह प्रथम दृष्टया ग़ज़ल जैसा तो है। हिंदी में जो ग़ज़लें इन दिनों लिखी जा रही है, उनमें इतनी छूट तो अमूमन ली ही जा रही है।

श्री सतीश राठी को इस ग़ज़ल संकलन के प्रकाशन के लिये बहुत बधाई एवं शुभकामनाएँ।

दिलीप जैन
समीक्षक
36, शिवाजी पार्क, उज्जैन

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