किरिचें

15-07-2023

किरिचें

डॉ. भारती अग्रवाल (अंक: 233, जुलाई द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

 

तेईस, चौबीस साल की उम्र ही ऐसी होती है कि व्यक्ति क्रांति, आदर्श, सिद्धान्तों के कल्पना लोक में विचरण कर रहा होता है, विशेषकर स्त्रियाँ और स्त्रियों में भी अधिकतर वह, जो आर्थिक रूप से स्वतंत्र हों। उन्हें लगता है, वह अपनी शर्तों पर, अपने तरीक़े से अपनी ज़िन्दगी जी सकेंगी। 

करुणा का आकाश भी असीम था और कल्पनाएँ भी। वह अक़्सर अपनी सहेली मीनाक्षी से कहती, “देख मैं शादी नहीं करूँगी। शादी करना ज़रूरी है क्या? अरे! ज़िन्दगी में एक हमदम, सच्चा दोस्त चाहिए न, वह है तो तू।” और दोनों दिल खोल कर हँस पड़ती। दोनों ही अविवाहित थीं। बस अंतर इतना था कि मीनाक्षी शादी के लिए उत्सुक थी और करुणा शादी के प्रति उदासीन। 

एक दिन करुणा जल्दी ऑफ़िस पहुँच गई। वह अपनी ही धुन में चलती जा रही थी कि अचानक मैनेजर के कमरे से आता उसे अपना नाम सुनाई दिया और वह ठिठक कर सुनने लगी। मैनेजर मेहता और उसकी सहकर्मी शालिनी आपस में बातें कर रहे थे। शालिनी कह रही थी, “मैडम स्त्री विमर्श का झंडा उठाए फिरती है। कौन करेगा इससे शादी? अरे ये क्या नहीं चाहती होगी शादी करना? शादी के नाम पर तो अच्छे-अच्छों की बाँछें खिल जाती हैं।” 

मेहता जी ने व्यंग्य भरी मुस्कान के साथ कहा, “एक के साथ रहना नहीं चाहती होगी और फिर आपको क्या पता, कोई हो तो, जिसके साथ ज़िन्दगी के मज़े ले रही हो।” 

करुणा यह सोच कर सिहर गई कि लोग उसके बारे में क्या ऊट-पटाँग बातें करते हैं। उसे समझ नहीं आ रहा था क्या करे? क्रोध करे और ज़ोरदार थप्पड़ मार के आए या फिर ऐसी खरी-खोटी सुनाए कि उसके बाप-दादा भी किसी लड़की के बारे में बुरा-भला कहते हुए दस बार सोचें फिर एकाएक ख़्याल आया और पता नहीं कितने लोग उसके बारे में ऐसा सोचते होंगे; अगर इनसे विवाद हुआ तो बात बिगड़ जायेगी। जिसको नहीं पता कि मेरा विवाह हुआ है या नहीं, वह भी जान जायेंगे। उन्हें भी बात करने का मसाला मिल जायेगा। यह सोच-सोच कर वह बेदम हुए जा रही थी कि लोग उसके पीठ पीछे ना जाने क्या-क्या कहते होंगे? 

कुछ समय बाद जब मीनाक्षी आई तो उसने ऑफ़िस में घटी घटना ज्यों की त्यों उसे सुना दी और ग़ुस्से में भर कर कहा, “कितने हरामी हैं ना ये साले! सामने से तो कितना मीठा बोलते हैं और मन में कितना ज़हर भरा हुआ है। इन्हें सोचने के लिए कुछ और नहीं मिला?” 

मीनाक्षी ने कहा, “देख समाज में विवाह तो बहुत आवश्यक है, ख़ासकर लड़की के लिए। लड़की की शादी होनी चाहिए फिर लड़का कैसा भी हो! विवाह लड़की को समाज में सुरक्षा देता है। सब कुछ कहने-सुनने का अधिकार उसके पास आ जाता है। मैं तो जल्दी शादी करने वाली हूँ और एक अच्छी दोस्त होने के नाते तुझे भी सलाह दूँगी कि तू भी जल्दी शादी करके सबका मुँह बंद कर दे। लड़के में बस एक गुण होना चाहिए, वह अच्छा कमाता हो और दो हाथ, दो पैर होने चाहिएँ। अगर तुझे शक्ल पसंद ना आए तो मत मिलाना दोस्तों से। घर रखना, ऑफ़िस में थोड़े लाना है।” कहते हुए आँख मार कर ज़ोर से हँसने लगी। उसका कहना अनवरत चलता रहा और करुणा उसे एकटक देखती रही। 

करुणा सोच में पड़ गई। शायद यह सब किसी और ने कहा होता तो वह मज़ाक़ में उड़ा देती पर उसकी ख़ास कहे जाने वाली सहेली ऐसा कह रही थी। वह सोच रही थी कि विवाह के बाद ऐसा क्या हो जाता है जो विवाह के बिना नहीं होता। अपना कमाती हूँ, अपनी मर्ज़ी से रहती हूँ, चाहे जहाँ चाहूँ वहाँ जाऊँ। विवाह के बाद सब को ख़ुश रखने में, नौकरी और घर के बीच संतुलन बनाने में ही सारी ज़िन्दगी निकल जाती है। समझ नहीं आता इन सबके दिमाग़ में क्या भरा हुआ है? इन बातों का कोई ओर-छोर नहीं था इसलिए अपने दिमाग़ से इन सभी बातों को झटकते हुए उसने अपना सारा ध्यान कम्प्यूटर पर लगा लिया। उसे एक बहुत बड़ा प्रोजेक्ट मिला था। अगर यह ठीक-ठाक ढंग से पूरा हो गया तो उसकी प्रमोशन को कोई नहीं रोक सकता। वह बहुत ऊँची उड़ान भरना चाहती थी। अपने माता-पिता को हर वह सुख देना चाहती थी, जिसकी कल्पना उन्होंने कभी की होगी। 

करुणा के पिता ने जीवन के चालीस पार करते ही नौकरी छोड़ दी। जिस उम्र में युवक अधिक से अधिक कमा कर अपने परिवार का भविष्य सुरक्षित करना चाहते हैं, उस उम्र में करुणा के पिता सुन्दरलाल ने घोषणा कर दी थी कि अब उनसे और काम नहीं होगा। वह घर का बोझ अकेले उठाते-उठाते थक गए हैं। अब उन्हें आराम चाहिए, आख़िर उनकी भी अपनी निजी ज़िन्दगी भी है। सुन्दरलाल ने जब यह घोषणा की तब करुणा मात्र पंद्रह वर्ष की थी और उसका बड़ा भाई माणिक अठारह वर्ष का। बड़ा भाई माणिक उस समय स्नातक कर रहा था और अचानक आई परिवार की ज़िम्मेदारी उठाने के लिए तैयार नहीं था। उसने अपने पिता सुन्दरलाल को समझाने की कोशिश करते हुए कहा, “अभी आप को नौकरी नहीं छोड़नी चाहिए। ज़्यादा ना हो सके तो दो-तीन साल और नौकरी कर लीजिए मेरा कॉलेज पूरा हो जायेगा तो मैं घर की सारी ज़िम्मेदारी सँभाल लूँगा।” सुन्दरलाल ने किसी की एक भी ना सुनी और नौकरी पर जाना बंद कर दिया। घर मुश्किलों के दौर से गुज़र रहा था। दो समय का खाना मुश्किल से जुट पाता था। सुन्दरलाल की पत्नी से जब यह देखा नहीं गया तो अपनी गृहस्थी के बीस वर्ष की हिम्मत जुटा कर बस इतना ही कह पाई, “आपके ऑफ़िस में कोई परेशानी चल रही थी क्या?” 

सुन्दरलाल ने टीवी देखते हुए उसी तरह कहा, “क्यों?” 

“बस वैसे ही। घर का गुज़ारा चलाने में . . .” 

सुन्दरलाल ने अपनी पत्नी को घूरा। मालती सहम गई। इतने वर्षों में कभी उसने अपने पति से प्रश्न करने की हिम्मत नहीं जुटाई। हर समय एक आदर्श पत्नी की तरह हर हुक्म की तामील करती आई है। एक सुखी गृहस्थ का मूल मंत्र भी उसके लिए यही है पर आज बात परिवार की है। उसके बच्चों की है। उसने सहमते हुए कहा, “आप वापस नौकरी कर लीजिए।” 
“बीस वर्ष से तुम सबका अकेले पेट पाल रहा हूँ। गधे की तरह काम करता था। अब तुम सब मिल कर कुछ दिन मुझे नहीं खिला सकते। ख़ैर! तुम क्या काम करोगी। तुम्हें आता ही क्या है? पहले तुम्हारे बाप ने तुम्हें पाला फिर मेरे सिर मढ़ दिया। मैं तुम्हारा पेट पालने लगा। अब बच्चों का मुँह देखो वह तुम्हें खिलायेंगे। तुम किस हैसियत से मुझे समझाने आई हो। जाओ अपना काम करो। जो हमेशा से करती आई हो।” 

मालती ने सारी हिम्मत जुटाते हुए कहा, “आप मुझे कुछ भी कह लीजिए पर करुणा की शादी भी तो करनी है और दहेज़ . . .”

मालती का वाक्य अभी पूरा भी नहीं हुआ था। सुन्दरलाल ने अपने सामने रखा चाय का कप ज़मीन पर दे मारा। प्याला टूटने के साथ मालती की सारी हिम्मत टूट गई। उसे लगा उसे यह सब नहीं करना चाहिए था। कहीं इस बुढ़ापे में बाहर निकाल दिया तो क्या होगा। बची-खुची इज़्ज़त भी चली जायेगी। इस सब का ऐसा प्रभाव पड़ा कि मालती की आँख से एक भी आँसू नहीं टपका। उसे देखकर ऐसा लग रहा था कि मानो बीस वर्ष में ना जाने कितनी बार उसने अपना स्वाभिमान कुचल कर आह तक नहीं की होगी। ये उसी का मौन है। जैसे कुछ हुआ ही ना हो मालती रसोई में व्यस्त हो गई। मानो सचमुच उसकी कार्यशाला सिर्फ़ वही रसोई है। 
समय निकलता रहा और एक दिन माणिक ने अपनी माँ को बताया कि उसने पार्ट-टाइम नौकरी कर ली है। बीस हज़ार रुपया महीना मिलेगा। अब घर चलाने में थोड़ी आसानी होगी। माणिक हर महीने की पहली तारीख़ को माँ को बीस हज़ार रुपये देता रहा। यह कुछ दिन तक ही चला। कुछ महीने बाद माणिक ने जेब ख़र्ची के बहाने पाँच हज़ार रुपये बचाने शुरू कर दिए। कभी कहता कॉलेज की फ़ीस भरनी थी तो कभी किताबों के नाम पर पैसे बचा लेता। कभी कहता पाँच हज़ार कम पड़ते हैं। बाहर के सौ ख़र्चे होते हैं। मुझे ही पता है कैसे गुज़ारा चलाता हूँ। 

माँ और करुणा चुपचाप सब देखती और सुनती पर कुछ कह नहीं पाती क्योंकि वह पूरी तरह माणिक पर आश्रित थीं। दोनों डरती थीं कि माणिक जो थोड़े-बहुत पैसे देता है वह भी नहीं देगा तो घर कैसे चलेगा? इन सबके बीच करुणा ने प्रतिज्ञा कर ली थी कि वह ख़ूब ऊँची उड़ान भरेगी, इतनी ऊँची जहाँ तक ये आँखें आसमान देख सकती हैं। सोचते-सोचते उसकी आँखें कब लग गई पता ही नहीं चला। मालती की आवाज़ से करुणा की आँखें खुलीं। घड़ी देखी वह सुबह के छह बजा रही थी। वह जल्दी से उठी और तैयार होकर कॉलेज चली गई। 
 
समय बीतता गया . . . एक दिन करुणा कॉलेज से लौटी तो देखा माणिक अपने साथ एक सुंदर लड़की को लेकर घर आया हुआ है। माणिक ने बेपरवाही से उस लड़की का माँ से परिचय कराया, “मिलो अपनी बहू से। मेहर और मैंने इससे विवाह कर लिया है। आप चाहो तो आज से ये भी हमारे साथ रहेगी और ना चाहो तो हम किराये का घर ले कर भी रह सकते हैं। हमने ऑफ़िस के पास एक घर देख कर रखा है।” 

माँ ने हकलाते हुए जल्दी से कहा, “अरे! . . . तुम . . . माने बहू और तुम किराये के घर में क्यों रहोगे? . . . ये भी तो तुम्हारा घर है। अगर हमें बता देते तो . . .” 

“अरे माँ! हमने कोर्ट मैरिज की है। कोर्ट मैरिज में तुम क्या करती? अब बहू आ गई है ना ख़ुशियाँ मनाओ।” 

भाभी के आने से करुणा ख़ुश थी पर जिस तरीक़े से वह आई थी वह तरीक़ा करुणा को पसंद नहीं आया। उसकी सोच, उसका निश्चय और भी दृढ़ हो गया। उसे ख़ूब पैसे कमाने हैं। एमबीए अंतिम वर्ष में उसने अपनी जी-जान लगा दी। परीक्षा के बाद वह नौकरी ढूँढ़ने में जुट गई। भाग्य का चमत्कार कहें या ईश्वर की दया, एलपीजे कम्पनी में उसे दस लाख सालाना पर नौकरी मिल गई। सबसे पहले उसने यह ख़बर अपनी माँ को सुनाई। माँ के साथ पिता भी ख़ुश थे। घर में ख़ुशहाली का मौक़ा था। मिठाई आई, पिज़्ज़ा आया सबने जमकर खाया। 

शायद परिवार का एक साथ ख़ुशी मनाने का यह आख़िरी दिन था। जिस दिन करुणा के ऑफ़िस का पहला दिन था, भाई ने यह कह कर घर छोड़ दिया कि अब करुणा कमाने लगी है। वह घर सँभाले। अब वह अपनी गृहस्थी अलग बसाएगा। माँ के दुखी होने पर उसने माँ को तसल्ली देते हुए कहा, “देखो माँ मैं कौन सा दूसरे देश जा रहा हूँ। इसी शहर में हूँ। जब ज़रूरत हो एक फोन कर देना मैं हाज़िर हो जाऊँगा।” माँ को लाड़ लड़ाते हुए उसने टैक्सी बुक करा ली। करुणा ने रुक-रुक कर कहा, “भाई यहाँ भी गृहस्थी बसाई जा सकती है . . . जाने की क्या ज़रूरत है . . .। हमें आपका पैसा नहीं . . .। आपका साथ चाहिए।” 

टैक्सी का इंतज़ार करते माणिक ने मुँह घुमाकर करुणा को देखा और कहा, “मेरी बहन बड़ी हो गई है। पैसों की बात करने लगी है। मैं तो भूल ही गया था पहली बार में ही दस लाख सालाना मिलने लगे हैं तो बोलेगी क्यों नहीं? मुझे भाषण सुना रही है। अब तू माँ-पापा को सँभाल कर दिखा। और हाँ! उन्हें शादी के दहेज़ में साथ ले जाना या फिर आदर्श बेटी बनना, शादी ही मत करना।” भाई के आख़िरी शब्द करुणा के कानों से होते हुए धड़कनों में समा गए। समय बीतता गया ना तो करुणा ने अपने विवाह के बारे में सोचा और ना ही कभी परिवार ने उसके विवाह में दिलचस्पी दिखाई। करुणा तीस पार कर चुकी थी। 

करुणा का प्रोजेक्ट पूरा हुआ और वह सीनियर प्रोजेक्ट मैनेजर बन गई। अब उसकी तनख़्वाह पच्चीस लाख सालाना हो गई। उसे लगने लगा अब उसके पास जीवन की हर ख़ुशी है। अपना घर, कार, परिवार के साथ सप्ताह में एक बार घूमने जाना, अच्छे कपड़े, ऐसा कुछ नहीं था जो उसने चाहा और उसे ना मिला। वह नहीं जानती थी कि समय बलवान है। अभी जीवन के और रंग उसके के भाग्य में लिखे हैं। 

हम जिस रास्ते पर चलना नहीं चाहते कभी-कभी ईश्वर उसी रास्ते पर चलाता है। जिस शख़्स को अनदेखा करते हैं वही सामने आ खड़ा होता है। शायद भगवान अपनी ताक़त दिखाता है या फिर हमें और ज़्यादा मज़बूत करने के लिए यह सब करता है। करुणा अपना अतीत पीछे छोड़ आई थी पर ये भाग्य को मंज़ूर नहीं था। इतनी ख़ुशी शायद करुणा का भाग्य सँभाल नहीं पा रहा था। 

करुणा की सहेली मीनाक्षी का मिलना उसके जीवन का अहम मोड़ बन गया। मीनाक्षी का विवाह हो गया था। वह अपने पति और बच्चों के साथ मॉल में ख़रीददारी कर रही थी वहीं करुणा भी अपनी माँ के साथ ख़रीददारी करने आई हुई थी। मीनाक्षी ने मिलते ही पूछा, “अरे तू, कितने समय बाद मिले हैं। तू बता क्या प्रोगरेस है। शादी-वादी की या अभी भी . . .”

वाक्य अधूरा छोड़ कर मीनाक्षी हँसने लगी। करुणा को लगा जैसे ये सब कह कर वह उसका अपमान करना चाह रही है। उसकी ख़ुशी मौन में तब्दील हो गई। इतने में मीनाक्षी ने करुणा के कान के पास फुसफुसा कर कहा, “जल्दी से हमारी लिस्ट में शामिल हो जा।” 

“मतलब? अभी तुम्हारी लिस्ट में नहीं हूँ?” 

“ओफ़्फ़-ओह मेरा मतलब है जल्दी से शादी कर ले।” 

करुणा, मीनाक्षी को एकटक देखे जा रही थी और यही सोच रही थी कि यह कौन सी लिस्ट है जिसमें विवाह किए बिना मैं शामिल नहीं हो सकती। खिसियानी हँसी हँसते हुए उसने ने कहा, “शादी करनी ज़रूरी है क्या? देख मैं तो ऐसे भी ख़ुश हूँ।” 

“समाज से जुड़ने के लिए जीवन में कुछ काम ज़रूरी होते हैं, जिसमें से एक है पति और बच्चा और फिर सारी उम्र अकेली काटेगी? अपने बुढ़ापे के बारे में तो सोच।” 

“अगर अकेलापन खला तो बच्चा गोद ले लूँगी। शादी करने की क्या ज़रूरत है?” 

“देख मैं तो सहेली होने के नाते तुझे समझा ही सकती हूँ। आगे तेरी मर्ज़ी।” 

मीनाक्षी का बेटा आइसक्रीम की ज़िद करने लगा तो मीनाक्षी ने फिर मिलेंगे कहते हुए विदा ली। मीनाक्षी तो चली गई पर करुणा के मन में दो शब्द छोड़ गई, बुढ़ापा और अकेलापन। करुणा जब घर पहुँची तो उसके साथ अकेलापन और बुढ़ापा शब्द भी घर पहुँच चुके थे। उसने बहुत प्रयास किया कि वह किसी बात में अपना मन लगा सके पर जैसे ये दो शब्द उससे चिपक गए थे। इनके कारण वह रात भर सही से सो भी नहीं पाई और ऑफ़िस में देर से पहुँची। जब वह ऑफ़िस पहुँची तो उसने सुना उसकी सक्रेटरी अपने सहकर्मी से कह रही थी, “मैडम के तो नख़रे ही अलग हैं। घर का कुछ काम तो करना नहीं पड़ता, ना पति, बच्चे का झंझट ना कोई घर का काम फिर भी ज़रूरी मीटिंग स्थगित कर दी। एक हमें देखो घर का सारा काम करते हैं। फिर पति और बच्चों को सँभालना उस पर भी एक दिन समय से ना आएँ तो डाँट सुनने को मिलती है।” 

करुणा ने सक्रेटरी को डाँटते हुए कहा, “ये सब क्या बकवास कर रही हो? काम का शादी से क्या मतलब? जिनकी शादी नहीं होती क्या उनके पास करने के लिए कोई काम नहीं होता? उनके जीवन में तनाव नहीं होता?” 

सक्रेटरी ने सकपकाते हुए कहा, “सॉरी मैडम!” परन्तु जाते-जाते दबी हुई हँसी छोड़ गई। 

करुणा जीवन में शादी शब्द इतनी बार सुन चुकी थी कि अब वह इससे किसी भी तरह छुटकारा पाना चाहती थी। एक दिन वह अपनी सहक़र्मी के साथ चाय पी रही थी। चाय पीते हुए मनोरमा ने कहा, “एक बात कहूँ करुणा . . . बुरा तो नहीं मानोगी?” 

करुणा समझ गई थी पर नासमझ बनते हुए कहा, “कहो!” 

“तुमने अभी तक शादी क्यों नहीं की? क्या तुम्हें कोई पसंद है और घरवाले नहीं मान रहे।” 

करुणा ने पता नहीं क्यों हाँ में सिर हिला दिया और साथी मनोरमा चहक उठी। 

“चल दिखा फोटो, छुपी रुस्तम।” 

करुणा ने हाँ तो कह दिया पर फोटो किसकी दिखाए? वह अनमने ढंग से मोबाइल गैलरी स्क्रोल करने लगी और अचानक एक फोटो पर रुक गई। मनोरमा ने फोटो देख कर कहा, “लड़का तो अच्छा है। तू कहे तो मैं बात आगे बढ़ाऊँ। कहाँ रहता है? क्या करता है?” एक साँस में सारे सवाल दाग दिए। 

करुणा ने गंभीर मुद्रा में कहा, “नहीं। ज़रूरत पड़ेगी तो बताऊँगी।” 

दोनों अपने घर चली गईं पर करुणा के मन में फोटो वाला लड़का अनुपम ठहर गया। कभी अनुपम उसका एक अच्छा दोस्त हुआ करता था। करुणा के मन अनेक सवाल उठने लगे, “क्या केवल अच्छा दोस्त? अनुपम से . . .। अरे नहीं। उसकी तो शादी हो गई होगी और कैसे कहूँगी कि . . . नहीं, नहीं . . . एक बार फोन करके हाल-चाल पूछने में हर्ज ही क्या है?” सवालों और इच्छाओं का भारी द्वंद्व उसके मन में चल रहा था। पता नहीं किसे जीतना चाहिए था और कौन जीता। 

कुछ समय बाद एक दिन अचानक करुणा माँग में सिन्दूर भरे, माथे पर बिन्दिया सजाये, हाथों में चूड़ा पहने ऑफ़िस में आई और सबको पता चला कि करुणा ने विवाह कर लिया है। सबने इस उलाहने के साथ मिठाई खाई कि उन्हें बुलाया क्यों नहीं गया? करुणा के पास एक ही जवाब था, “सब कुछ इतनी जल्दी में हुआ कि किसी को बुला ही नहीं सकी फिर अनुपम भी साधारण-सा विवाह चाहते थे। विवाह में उसके माता-पिता और मेरे माता-पिता ही थे। हमने मंदिर में शादी की।” 

सभी को अटपटा लग रहा था, लग रहा था दाल में कुछ काला है परन्तु माँग का सिन्दूर और माथे की बिंदिया ने सब के मुँह पर ताले जड़ दिए थे। करुणा को अकेला पाते ही मनोरमा करुणा के पास आई और कहने लगी, “ऐसे काम नहीं चलेगा। अनुपम जी से मिलवाना भी होगा। हम भी तो देखें लड़का कैसा है? और हाँ शादी की फोटो तो दिखा।” पहले की तरह करुणा की उँगलियाँ मोबाइल स्क्रीन से खेलने लगी और अचानक एक फ़ोल्डर पर आ कर रुक गईं, इसमें करुणा अपनी माँ और अनुपम के साथ साधारण कपड़ों में थी। मनोरमा ने पूछा, “अरे तेरे कपड़े बड़े साधारण हैं। कुछ अच्छा पहनती।” 

करुणा ने रटे-रटाए शब्दों में उत्तर दिया, “सब कुछ इतना जल्दी हो गया कि कुछ करने का समय ही नहीं मिला।” 

भारतीय रीति-रिवाज़ों के मुताबिक़ करुणा अब अनुपम के घर रहने लगी। सक्रेटरी के मुताबिक़ अब वह विवाहिता थी तो घर, बच्चे, पति, रसोई सब करके ऑफ़िस आती थी। करुणा की थकावट और उदासी इस बात का सबूत थी कि वह अब घर और ऑफ़िस दोनों सँभाल रही है। एक दिन वह कभी वापस ना लौटने के लिए ससुराल छोड़ अपने माता-पिता के घर वापस आ गई परन्तु किसी को उसने कुछ नहीं बताया। मनोरमा ने हँसी करते हुए पूछा, “शादी को तो चार महीने ही हुए हैं और पति से विरक्ति हो गई। कब ससुराल लौट रही हो? मैं तो सोचती हूँ तुम्हारे पति और सास ने तुम्हें इतने दिन छोड़ कैसे दिया?” 

करुणा ने गम्भीर होते हुए कहा, “मैंने अनुपम का घर हमेशा-हमेशा के लिए छोड़ दिया है।” 

मनोरमा ने चौंकते हुए कहा, “पर क्यों? अनुपम से झगड़ा हुआ क्या? सास-ससुर ने कुछ कह दिया क्या?” 

करुणा ने कोई उत्तर नहीं दिया। अब सभी को ख़बर हो गई थी करुणा ने ससुराल छोड़ दिया है। 

दो महीने बीते थे कि करुणा का पेट बढ़ने लगा और इस तरह ऑफ़िस जान गया कि करुणा गर्भवती है। 
मनोरमा ने करुणा से कहा, “देखो तुम्हारे पास अनुपम का बच्चा है। अब तुम्हें उसके पास लौट जाना चाहिए। तुम्हारा और इस बच्चे का भविष्य सुरक्षित रहेगा। तुम यह तो सोचो तुम इस बच्चे को क्या जवाब दोगी? तुम इससे इसके पिता के प्यार का हक़ छीन रही हो।” 

करुणा शून्य में ताकती हुई बोली, “मनोरमा! मुझे लगता है उसके अवैध सम्बन्ध हैं।” 

“पर किससे? तुमने देखा किसी के साथ उसे? तुम्हारे घर आई वो?” 

“वो घर ही में रहती है। उसकी भाँजी है। तुम्हें पता है औरत के पास एक छठी इन्द्रिय होती है। जिससे उसे आदमी की नियत का साफ़-साफ़ पता चल जाता है। वह अपनी भाँजी की हर हाँ में हाँ जिस तरह मिलाता है। साफ़ पता चलता है। इससे बड़ा सबूत क्या होगा कि जब मैंने उसे गाँव लौटा देने के लिए कहा तो उसने साफ़ मना कर दिया। कहता है वह गाँव नहीं जायेगी मेरी ज़िम्मेदारी है वो, तुम जाना चाहो तो तुम्हारी मर्ज़ी . . .” 

“करुणा! तुम पागल हो गई हो, ऐसा भी तो हो सकता है कि वह उसे अपनी बच्ची समझता हो और ये सब तेरा दिमाग़ी फ़ितूर हो और जैसा तू सोचती हो वैसा कुछ ना हो। सुन! अगर ऐसा है भी तो बच्चा होने के बाद सब ठीक हो जायेगा। बस तुझे धैर्य रखना होगा।” 

करुणा ने दृढ़ता से कहा, “नहीं! अब मैं उस घर में नहीं लौटूँगी। एक औरत सब कुछ बाँट सकती है अपना पति नहीं बाँट सकती।” 

स्त्री का जब पति नामक पुरुष से साथ छूट जाता है तो वह सबके लिए एक मौक़ा बन जाती है। जब वह हाथ नहीं आती तो कुलटा, कुलछनी, चरित्रहीन और ना जाने क्या से क्या हो जाती है। सभी के मन में उसके लिए सम्मान की जगह विरूपता आ जाती है। करुणा के साथ भी ऐसा ही हुआ। पूरे ऑफ़िस में अलग-अलग तरह की अफ़वाहें उड़ रही थीं। कोई कहता घर नहीं सँभाल पाई, ऑफ़िस क्या सँभालेगी। कोई कहता इसमें ही खोट होगा। पति को पता चल गया तो निकाल बाहर करा। इन सबसे परेशान आकर उसने मैटरनिटी लीव ले ली। 

सात महीने बाद उसने सुंदर गुड़िया को जन्म दिया। जब वह अस्पताल से घर आई तो अपने निकटस्थ दोस्तों को घर बुलाया और एक छोटी-सी पार्टी दी। करुणा बेटी को पा कर बहुत ख़ुश थी। मनोरमा उसकी बेटी की फोटो खींचने लगी तो करुणा ने मना कर दिया। वह नहीं चाहती थी उसकी बेटी के बारे में कोई भी जाने। मनोरमा ने एक बार फिर करुणा को समझाने का प्रयास किया। 

“देख तू ससुराल लौट जा। अब बच्चा हो गया ना, सब ठीक हो जायेगा। वो दौड़ा-दौड़ा तेरे क़दमों में गिर जायेगा।” 

करुणा ने गम्भीर होते हुए कहा, “अब मुझे उसके साथ नहीं रहना पर मैं तलाक़ भी नहीं लूँगी। कुछ ऐसा नहीं हो सकता मैं तलाक़ भी ना लूँ और वो मेरी संतान पर अपना हक़ भी ना जता सके।” 

“ऐसा क्यों कह रही है। कोई भी पुरुष अपनी संतान के आगे ही हारता है।” 

“तुझे पता नहीं उसने मुझे क्या-क्या बोला है। एक दिन मेरे घर आया था, कह रहा था तुझे इस बच्चे पर घमंड है ना, तो तेरा गर्भ ही नष्ट हो जाए। तू कभी माँ ही नहीं बन पाए। पता है उस दिन मैं कितना रोई थी और मैंने निश्चय किया था कि अब ना तो मैं और ना ही मेरी बेटी उस इंसान का मुँह देखेगी।” 

करुणा सोचने पर मजबूर हो गई कि आख़िर उसने यह शादी क्यों की? वह अनुपम को पसंद भी नहीं करती थी पर फिर भी . . . वह समर्थ होते हुए भी समाज के आगे हार गई थी पर अब और नहीं। उसने निश्चय किया कि वह कुछ भी हो जाए वह उस आदमी के पास नहीं लौटेगी और ना ही अपनी बच्ची को लौटने देगी। वह अकेले ही उसे बड़ा करेगी। 

3 टिप्पणियाँ

  • 16 Jul, 2023 10:45 PM

    शब्दों का बहुत बारीकी से अच्छी तरह भावनात्मक इस्तेमाल किया गया है बहुत खूब बहुत अच्छा लिखा है

  • कहानी पढ़कर बहुत अच्छा लगा। और मैं इस नतीजे पर पहुंची की लड़की को पढ़ लिखकर अपने पैरों पर खड़े होकर शादी जरूर करनी चाहिए। क्योंकि यह भगवान की होती है हम शादी कर कर बच्चे को जन्म देते हैं और बच्चे की देखभाल करते हैं और जब हम बुड्ढे हो जाते हैं तो हमारे कर्म अनुसार हमारे बच्चे हमारा साथ देते हैं परंतु अगर किसी की मर्जी नहीं है शादी करने की तो समाज को कोई हक नहीं है उसके बारे में कुछ भी कहने का और समाज का तो क्या है अगर आप समाज की सुनेंगे तो कभी जी ही नहीं पाएंगे जिस प्रकार आपके घर के बाहर कोई अनचाही आवाजें जोर-जोर से आ रहे हैं आपको कुछ समझ नहीं आ रहा या कोई कुत्ता भौंक रहा है तो आप उसे चुप कराने नहीं जाते इसी प्रकार समाज भी इसी तरह है उसकी किसी बात की परवाह नहीं करनी चाहिए पर लेखिका ने इस कहानी के माध्यम से हमें यही सब समझाया है धन्यवाद लेखिका का

  • बेहतरीन अभिव्यक्ति

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