ख़ज़ाना
विद्या भूषण धरसुमावती की नज़र जैसे ही उस ख़ूबसूरत नक़्क़ाशीदार अखरोट की लकड़ी के दरवाज़े पर पड़ी, उसे ऐसा महसूस हुआ मानो किसी ने उसके दिल को लोहे की मुट्ठी में जकड़ लिया हो। वह पल भर के लिए जड़वत हो गई, और ऐसा लगा जैसे उसके पैरों तले की ज़मीन गहरी खाई में बदल रही हो।
यह पहली बार नहीं था जब उसकी प्यार भरी आँखें बड़े अनार के पेड़, गेंदे के फूलों, मख़मली गुलाबों को नहीं देख रही थीं, या हर बार की तरह लाल रंग के पत्र-पेटी का ताला नहीं खोल रही थीं, जो बाड़ पर लटकी थी। जब वह हर साल जम्मू या दिल्ली से लौटती थी, तब यही उसकी दिनचर्या हुआ करती थी। परन्तु इस बार उसे गहरे अंदर, एहसास था कि शायद यह आख़िरी बार है जब वह इन सब चीज़ों को देख रही है, महसूस कर रही है, जो उसने ख़ुद चिड़िया की तरह धीरे-धीरे तिनका-तिनका जोड़कर बनाया था।
चारों ओर उदासी फैली हुई थी, जगह वीरान और खंडहर सी लग रही थी। फूलों की क्यारियां जंगली घास और बिच्छू बूटी से भरी हुई थीं, अनार का पेड़ बेजान था और सड़े हुए फल बिखरे पड़े थे, सूखे पत्ते बग़ीचे और रास्ते में फैले थे, और बाड़ कई जगह से टूटी हुई थी। यहाँ तक कि हाथ से बनाई गई, रंगी हुई पत्र-पेटी भी बिना दरवाज़े के लटक रही थी। उसका घर किसी भूतिया जगह जैसा लग रहा था, चारों ओर एक अजीब सी चुप्पी थी।
उसने एक बार और चारों ओर देखा और गहरी साँस लेते हुए अपने पर्स में हाथ डालकर चाबियों को ढूँढ़ने लगी। ऐसा लगा मानो आज चाबियाँ भी उससे कोई खेल, खेल रही हों, क्योंकि उन्हें ढूँढ़ने में उसे वक़्त लग गया।
सुमावती ने पहली बार महसूस किया कि उसके आस-पास का पूरा पड़ोस भी गहरी चुप्पी में डूबा हुआ था। पास के रहमान ज़ू का घर पूरी तरह बंद था, और डॉ. नूर मोहम्मद का घर भी शांत था। यह पहली बार था जब रहमान ज़ू की बूढ़ी पत्नी हलीमा जी वहाँ नहीं थीं, जो हमेशा उसे गले लगाती थीं, और न ही पड़ोस का कोई बच्चा दौड़कर उनके सामान में मदद करने आया। ओह! शायद यह उसकी मासूमियत थी, क्योंकि उनके पास कोई सामान नहीं था, और ‘अब हमें कौन पहचानेगा?’ वह पूरी तरह से बुर्क़ा पहने हुई थी, और उसका पति प्रोफ़ेसर सूमनाथ दाढ़ी में थे!
चुपचाप उसने अपनी आँखें बंद कीं और अपने देवताओं से प्रार्थना की, “हे भगवान शिव, तीनों लोकों के स्वामी, कृपा करके कोई हमें पहचान न पाए और हमारा मिशन पूरा हो जाए।” यह सोचते हुए उसने मुख्य दरवाज़ा खोला जिसे धक्का देना पड़ा, और वह अपने घर के अंदर चली गई। हॉलवे में खड़ी वह हर दीवार और आसपास की साधारण चीज़ों को घूरने लगी। वह ख़ुद से बड़बड़ा रही थी, “यह मेरा घर है, मेरा घोंसला, हमारा घोंसला, नहीं, नहीं, यह हमारा घर था 20 सालों तक, अब यह हमारा घर नहीं है, यह हमारा घर हुआ करता था।”
वह अपनी तंद्रा से जागी जब उसने सुना कि सूमनाथ जी धीमी आवाज़ में उससे कह रहे थे, “सुमी, हमारे पास बहुत कम समय है।” यह कहते हुए उसने उसका हाथ पकड़ा और उसे पास के कमरे ‘वटू’ में ले गया, “जल्दी करो, क़यूम ने हमें केवल 20 मिनट का समय दिया है क्योंकि उसके पास ज़्यादा वक़्त नहीं है और यह भी ख़तरनाक है। केवल क़ीमती सामान ही उठाओ क्योंकि बड़े सामान के लिए हमारे पास जगह नहीं है,” यह कहकर उसने उसे उसकी उथल-पुथल में छोड़ दिया।
सुमावती अपनी तंद्रा से जाग गई, “हाँ, यह सच है, हमारे पास अपनी ज़िंदगी की कड़ियाँ समेटने के लिए बहुत कम समय है। मैं क्या चुनूँ और क्या यहाँ लुटेरों के लिए छोड़ दूँ?” वह बैठ गई और बड़े बिस्तर के नीचे क़रीने से रखे ट्रंक और सूटकेस खींचकर देखने लगी।
हर वस्तु एक कहानी थी, एक घटना, एक उत्सव, एक विरासत और इतिहास का एक हिस्सा! अलग-अलग रंगों की पश्मीना शालें, कुछ जमावार काम के साथ, कुछ सुनहरी और चाँदी की कढ़ाई से सजी, और कुछ बारीक़ सूई से किए गए काम की। कुछ पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही थीं और कुछ उसकी माँ ने तब तैयार की थीं जब वह अभी प्राथमिक स्कूल में ही थी। उसने उस पश्मीना ‘दुस्सा’ को प्यार से छुआ जो सूम जी को उनके सगाई पर उसके माता-पिता ने उपहार में दिया था और वह चाँदी की चाय की सेट। हे भगवान, वह भूल गई थी कि उसके पास कुछ सोने के गहने भी एक ट्रंक में रखे थे, ‘मटर माल’ जिसे उसकी सास ने उसे तब उपहार में दिया था जब वह नयी नवेली दुलहन बनकर धर परिवार में आई थी। पिछले साल ही सूम जी ने उसे नया ‘डेजहुर’ उपहार में दिया था, कश्मीरी हिंदू विवाहित महिला का आभूषण, क्योंकि भारी वाला सँभालने में मुश्किल होता था और वह पुरानी डिज़ाइन का था। उसे वह बहुत पसंद था, लेकिन कुछ मौक़ों पर पहनने के बाद, उसने उसे वापस डिब्बे में रख दिया और अपनी इकलौती बेटी सिमी को उसकी शादी पर उपहार देने की सोची। ‘यह उस बड़े काले ट्रंक में होगा,’ वह उस ट्रंक की तरफ़ बढ़ी जब उसने गृह प्रवेश समारोह की बड़ी फ़्रेम की हुई तस्वीर की एक झलक देखी और वह समय में ठहर गई।
गृह प्रवेश उनके जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण आयोजन था। सुमावती ने उस दिन एक ख़ूबसूरत गुलाबी रेशम की साड़ी पहनी थी, जिसमें बारीक़ चाँदी के धागों का काम था, और वह इस भव्य आयोजन का केंद्र बिंदु थीं, जैसे कि वह एक बार फिर धर परिवार में नई दुलहन बनकर आई हों। बड़ी भाभी और पिंकी ‘सत्यदीव’ के लिए मीठी पूरियाँ बनाने में व्यस्त थीं। रूप जिगर ने इस शुभ अवसर के लिए ‘वरी’ तैयार की थी, और हवन की समृद्ध सुगंध उनके झील किनारे के एक मंज़िला घर के अंदर और बाहर फैली हुई थी। हवन उनके होने वाले ड्रॉइंग रूम में किया जा रहा था, जिसे सूम जी के बड़े भाई, ब्ययगाश करवा रहे थे, जो उनके दिवंगत पिता, धर्मात्मा पंडित माधव राम जी की तरह ही सम्मानित थे, जो धर परिवार के मुखिया थे।
सुमावती ने याद किया कि कैसे उन्होंने इस घर को अपने जीवन का घर बनाया था, एक ऐसी जगह पर, जिसे पृथ्वी पर स्वर्ग कहा जाता है, तमाम कठिनाइयों और व्यक्तिगत बलिदानों के बीच।
यह सोचते-सोचते, सुमावती एक बार फिर अतीत की यादों में खो गईं, जब वे एक नवविवाहित जोड़े के रूप में शिकागो के हाइड पार्क में रह रहे थे और सूमनाथ जी शिकागो विश्वविद्यालय में शोधार्थी थे। जीवन एक सुखस्वप्न जैसा चल रहा था! एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय से अपने पसंदीदा विषय में पीएच.डी. करना एक सपना था, लेकिन प्रियजनों और अपनी जन्म भूमि, अपनी मज्ज कशीर से दूर होना उनके लिए मुश्किल था। सूमनाथ जी ने अपना शोध पत्र जमा कर दिया था और विश्वविद्यालय से ही नौकरी का प्रस्ताव मिला था। जीवन की हर चीज़ सेट हो गई थी, लेकिन सूमनाथ जी ख़ुद में बेचैन थे। एक शाम, जब वह अपने पसंदीदा ‘शीर चाय’ को अपनी विश्वविद्यालय के मग में पी रहे थे, तो उन्होंने सुमावती से दिल की बात की, “सुमी, मुझे ऐसा लग रहा है कि मैं एक चौराहे पर खड़ा हूँ और मुझे तुम्हारी मदद की ज़रूरत है। मुझे पता है कि हम अमेरिका में एक अच्छा जीवन जी सकते हैं, लेकिन यह मेरी ज़मीन नहीं है, मेरी भाषा नहीं है। कश्मीर की घाटियाँ मुझे बुला रही हैं, माता खीर भवानी और ज्वाला भगवती मुझे बुला रही हैं। मैं वादा करता हूँ कि मैं डल झील के किनारे एक घर बनाऊँगा जिसमें एक बड़ा चिनार और अनार का पेड़ होगा।”
सूमनाथ जी की बातों ने सुमावती को भीतर तक छू लिया। इसके बाद सब कुछ बहुत तेज़ी से हुआ, सूमनाथ जी ने विश्वविद्यालय की नौकरी का प्रस्ताव ठुकरा दिया और अपने दोस्तों और सहकर्मियों की नाराज़गी के बावजूद, वे कश्मीर लौट आए। धीरे-धीरे उनका परिवार बढ़ा, उनकी एक बेटी, वितस्ता (जिसे सिमी के नाम से पुकारा जाता था) और एक बेटा, कल्हण (सनी) हुआ। सूमनाथ जी ने कश्मीर विश्वविद्यालय में नौकरी कर ली और जल्द ही विभागाध्यक्ष बन गए। वह अपने वादे को पूरा करने के लिए तैयार थे, लेकिन संसाधन सीमित थे।
ब्ययगाश पंडित माधव राम जी की पहली धर्मपत्नी शयामा जी की इकलौती संतान थे, प्रसव के कुछ दिन बाद ही उनकी मृत्यु हो गयी थी! शयामा जी अपने ज़मींदार पिता की इकलौती पुत्री थी और संयोगवश, इसी साल ब्ययगाश के ‘मातामाल’ वालों ने अपने पुश्तैनी गाँव की ज़मीन का सौदा किया था और ब्ययगाश के हिस्से काफ़ी मोटी रक़म आयी जो उन्होंने प्रेमपूर्वक अपने सभी भाई बहनों में बराबर हिस्सों में बाँटी! ब्ययगाश ही यही भेंट की राशि उनके सपनों का घर बनाने का आधार बनी। उस पैसे और एक बैंक ऋण की मदद से उन्होंने डल झील के किनारे एक घर बनाने का कार्य शुरू किया। घर का नाम ‘माधव कुंज’ रखा गया, उनके दिवंगत पिता के सम्मान में। यह घर सूमनाथ जी के वादों की तरह ही सुंदर था, जिसमें से डल झील का दृश्य साफ़ दिखाई देता था, और एक बड़ा चिनार पेड़ भी था।
लेकिन घर का निर्माण कोई आसान काम नहीं था, और वह गर्मियों में पूरा हो पाया। जीवन उन दिनों राजमिस्त्रियों और बढ़इयों के पीछे भागने में बीता। यह सच था कि कश्मीर में घर बनाना आसान नहीं था, जहाँ सीमेंट और स्टील जैसी ज़रूरी चीज़ें सरकार द्वारा नियंत्रित थीं।
‘माधव कुंज’ को अंततः बनाने में जितना अनुमानित था उससे कहीं अधिक मेहनत, छुट्टियाँ और संसाधन लग गए। पूर्वजों की सम्पत्ति से मिले पैसे का इस्तेमाल ज़मीन ख़रीदने और मकान के ऋण में हो चुका था। उसके बाद जी.पी. फ़ंड और सिमी के मामा जी से भी एक ऋण लेना पड़ा। लेकिन हर पैसा और हर कष्ट इसके लायक़ था क्योंकि जो अंततः बना, वह एक शानदार कृति थी, और दोनों इस घर से प्यार कर बैठे। वह शुभ दिन अप्रैल 1981 में आया जब अंदरूनी काम पूरा हो गया और फिर से पंडित वासा काक से गृह प्रवेश के लिए एक शुभ दिन और समय निकालने को कहा गया। वह दिन बुधवार, 6 मई था। सुमावती अपने जीवन के इस महत्त्वपूर्ण दिन को कैसे भूल सकती थी? यह एक सपना था जो उन्होंने दोनों ने खुली आँखों से देखा था और जिसे उन्होंने अपने पसीने और कड़ी मेहनत से पूरा किया था। उनका अपना घर, उनका अपना घोंसला तैयार था।
कहावत यहाँ पूरी तरह से फ़िट बैठती थी, “एक मकान ईंट और पत्थरों से बनता है लेकिन एक घर उसमें रहने वाले लोगों से और उनके प्यार और सपनों से बनता है।” ‘माधव कुंज’ हमेशा एक हँसमुख, ख़ुशहाल बसेरा रहा, जहाँ श्रीनगर के बाहर से भी लोग आते, जो उधमपुर, जम्मू और दिल्ली की भीषण गर्मी से बचने के लिए घाटी की ठंडक में आते थे। परिवार के बुज़ुर्गों से लेकर युवा तक, सभी को यह जगह पसंद थी—इसकी गर्माहट, स्थान, आसपास के मनमोहक दृश्य, बग़ीचे में शाम की चाय और सुबह की सैर। त्योहारों के मौक़ों पर छोटे बच्चे क्रिकेट या बैडमिंटन खेलते और कभी-कभी बड़े भी उनके साथ शामिल हो जाते। यह जगह परिवार के शादी योग्य लड़के-लड़कियों के मिलन स्थल के रूप में भी इस्तेमाल होती, और बहनें प्रसव के बाद कुछ समय यहाँ रुकतीं। एक दूर के रिश्तेदार की सगाई की रस्म भी ’माधव कुंज’ में संपन्न हुई थी।
सूमनाथ जी को इतिहास के प्रति गहरी रुचि थी, और उन्हीं से सुमावती को कश्मीर के बारे में ऐसी बातें जानने का मौक़ा मिला जो न तो किसी इतिहास की किताब में थीं और न ही स्कूल या विश्वविद्यालय में कभी चर्चा की गईं। सुमावती ने अपने विद्वान पति के साथ हुई चर्चाओं के माध्यम से जाना कि कश्मीर वह स्रोत है जहाँ से हमारी भारतीय संस्कृति की धारा प्रवाहित होती है, वास्तव में वही सब कुछ जो हमारी भारतीय पहचान को परिभाषित करता है। उसे इस बात का कोई अंदाज़ा नहीं था कि भारतीय इतिहास में कश्मीर का इतना महत्त्वपूर्ण स्थान है और यह कि पाणिनि, जिनकी ‘अष्टाध्यायी’ को दुनिया का सबसे वैज्ञानिक और त्रुटिहीन व्याकरण ग्रंथ माना जाता है, इसी धरती के निवासी थे।
उसका पतंजलि से भी परिचय हुआ, जिन्होंने मानवता को अपने योग सूत्रों का उपहार दिया। वह शारंगदेव के बारे में भी जान पाई, जिन्हें हिंदुस्तानी और कर्नाटक संगीत दोनों का जनक माना जाता है। सूमनाथ जी ने जब उसे आचार्य अभिनवगुप्त के बारे में बताया, जो अपने समय के सबसे महान विद्वानों में से एक थे और जिन्होंने 46 साहित्यिक रचनाएँ लिखीं, तो सुमावती के रोंगटे खड़े हो गए। इनमें प्रसिद्ध ‘अभिनव भारती’ भी शामिल है। उनके रस सिद्धांत आज दुनिया की 80 से अधिक विश्वविद्यालयों में पढ़ाए जाते हैं, लेकिन दुर्भाग्यवश भारत में कहीं नहीं।
कश्मीर को सरस्वती का निवास माना जाता था और यह भारत का सबसे उच्च शिक्षा का केंद्र भी था, जिसे शारदा पीठ कहा जाता था। यहाँ तक कि जब छात्र काशी से स्नातक होते थे, तो वे प्रतीकात्मक रूप से चार क़दम कश्मीर की ओर बढ़ाते थे, जो उच्च शिक्षा के प्रति उनकी आकांक्षा को दर्शाता था, क्योंकि लगभग पूरा संस्कृत साहित्य कश्मीर से ही उत्पन्न हुआ है।
उसे ‘राजतरंगिणी’ से भी परिचित कराया गया, जो 12वीं शताब्दी में कल्हण द्वारा लिखी गई एक प्रमुख ऐतिहासिक पुस्तक है, जिसमें कश्मीर के राजवंशों का विवरण है। इस पुस्तक में राजा ललितादित्य की महानता का वर्णन किया गया है, जो सम्भवतः भारतीय इतिहास के सबसे शक्तिशाली सम्राटों में से एक थे। 8वीं शताब्दी में उनका साम्राज्य उत्तर में कैस्पियन सागर से लेकर दक्षिण में कावेरी बेसिन और पूर्व में असम तक फैला हुआ था।
कल्हण के कार्य से दंपती इतने प्रेरित हुए कि उन्होंने अपने पुत्र का नाम इस महान कश्मीरी विद्वान के नाम पर रखा। उनकी पुत्री का नाम ‘वितस्ता’ रखा गया, जो झेलम नदी का वैदिक नाम है, जो कश्मीर की जीवनरेखा थी, है, और रहेगी। सूमनाथ और सुमावती के दो बच्चे, वितस्ता और कल्हण, इसी घर में बड़े हुए, जहाँ उनके हँसी-आँसू, खेल, जन्मदिन की पार्टियाँ, झगड़े और सुलह, साहित्यिक चर्चाएँ सब हुआ करते थे। उनका घर प्रेम, शान्ति और आशाओं से भरा हुआ था, जिसमें भविष्य के लिए सुंदर आकांक्षाएँ थीं।
पिछले दो दशकों की घटनाएँ सुमावती के मन में बिजली की तरह कौंध गईं और उसकी आँखों से आँसू छलक पड़े। जीवन एक शांत और कलोल करती नदी की तरह था, जो प्रेम और आशीर्वादों से भरी थी, जब तक कि 1989 का वह सर्दी का मौसम नहीं आया, जब ऋषि भूमि कश्मीर के मानस को बुरी शक्तियों ने कुचल दिया। पूरी घाटी इस्लामी कट्टरपंथ की चपेट में आ गई। भारत के सबसे अधिक मुस्लिम आबादी वाले राज्य में अलगाव और इस्लामी ख़िलाफ़त की माँग उठी। रातों-रात, शान्तिपूर्ण और भाईचारे वाले कश्मीरी पंडितों को हिंदू काफ़िर कहा जाने लगा, जिन्हें इस्लाम क़ुबूल करने या घाटी छोड़ने का आदेश दिया गया। कभी शांत कश्मीर, हत्याओं, लूट, आगजनी और हिंदू महिलाओं के बर्बर बलात्कारों का गढ़ बन गया।
बम धमाके, लूटपाट, आगजनी, बलात्कार, बलपूर्वक धर्माँतरण और हिंदुओं की बर्बर नृशंस हत्याएँ रोज़ होने लगीं। आतंकवादियों ने प्रमुख हिंदुओं को निशाना बनाना शुरू किया, जिनकी हत्या से ख़बर बने और पूरी आबादी को डरा सके।
कर्फ़्यू, हड़तालें और धार्मिक उन्माद से भरी रैलियाँ आम हो गई थीं और अल्पसंख्यक हिंदुओं को परेशान करना एक रोज़मर्रा की बात बन गई थी। अतीत के बर्बर पठानों की आत्माएँ मानो फिर से जीवित हो गई थीं और एक बार फिर खौफ़नाक और जीवन को नष्ट करने वाले खेल वोतल भुज्जी खेला जा रहा था, जिसमें एक हिंदू को जानलेवा और अपमानजनक यातनाएँ दी जाती थीं, जब तक कि वह एक भयानक और दर्दनाक मौत नहीं मर जाता।
वे अपने जीवन के लिए डरते थे, ख़ासकर एक मुस्लिम बहुल इलाक़े में रहते हुए, लेकिन उनके पड़ोसी उन्हें पूरा आश्वासन देते थे कि यह एक बीत जाने वाला दौर है और जल्द ही घाटी की स्थिति सामान्य हो जाएगी। वे उन पर विश्वास करते थे और स्थिति के सामान्य होने की प्रार्थना करते थे।
प्रोफ़ेसर सूमनाथ घाटी में एक सम्मानित साहित्यिक हस्ती थे; वह अपने छात्रों और सहकर्मियों के बीच बहुत लोकप्रिय थे और उन्होंने कई शोध कार्य किए थे, जो प्रमुख वैश्विक विज्ञान पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए थे। उनके सहकर्मियों और छात्रों के बीच यह कहानी मशहूर थी कि उन्होंने अमेरिका में एक उभरते हुए करियर को ठुकरा दिया था और कश्मीर के प्रति अपने प्रेम के कारण वापस लौट आए थे।
कई मुस्लिम छात्रों और सहकर्मियों ने उनसे मुलाक़ात की और उनके परिवार की सुरक्षा का आश्वासन दिया। उन्होंने बताया कि कुछ भटके हुए युवक पाकिस्तान की सीमा पार कर गए थे और कट्टर सोच और हथियारों के साथ लौटे थे, जिनका मिशन अपने पाकिस्तानी आक़ाओं के इशारों पर घाटी में आतंक फैलाना था।
प्रोफ़ेसर सूमनाथ को विश्वास था कि उन्हें घाटी में आख़िरी व्यक्ति के रूप में निशाना बनाया जाएगा, क्योंकि एक शिक्षक होने के नाते वे आतंकवादी गुटों और सरहद पार उनके आक़ाओं के उद्देश्य के लिए हानिरहित थे। हालाँकि, समय बीतने के साथ, उनका यह विश्वास कमज़ोर पड़ने लगा क्योंकि हर दिन वह अपने रिश्तेदारों और परिचितों को घाटी छोड़कर जाते हुए सुनते थे। और फिर वह दिन आया, जो अब भी उनके रोंगटे खड़े कर देता है।
यह सूम जी के भतीजे, शंकर जी का 40वां जन्मदिन था और उन्हें अपने परिवार के साथ हब्बा कदल स्थित अपने पैतृक घर में आमंत्रित किया गया था।
यह 19 जनवरी की ठंडी सुबह थी; विश्वविद्यालय और स्कूल सर्दियों की छुट्टियों के लिए बंद थे। वे सुबह-सुबह शंकर जी के जन्मदिन समारोह के लिए समय पर पहुँचने के लिए एक ऑटो रिक्शा में रवाना हुए। पंडित वासकाक ने ‘प्रेयप्यू’” को संपन्न किया और उन्होंने पीले चावल ‘तहर’ और रोगनजोश का आनंद लिया! कश्मीरी पंडितों का सबसे पवित्र धार्मिक त्योहार महाशिवरात्रि नज़दीक था, इसलिए सभी ने कौड़ियों के साथ पारंपरिक खेल खेले। उन्होंने भारतीय संस्करण के ‘मोनोपॉली’ का भी आनंद लिया और शाम को अंताक्षरी गाकर बिताया। यह आनंदमय समय था, हालाँकि डाउनटाउन की असहज स्थिति महसूस हो रही थी, क्योंकि कुछ पड़ोस के पंडितों के घर पहले ही ख़ाली हो चुके थे!
वे अपने घर लौटना चाहते थे, लेकिन हर कोई चाहता था कि वे रात भर रुकें! शाम का भोजन दोपहर के भोजन से भी अधिक शानदार था! दो प्रकार की यखनी, कीमे के कोफ़्ते, नादुर-गाड़, मीठा पुलाव, दाम आलू, हाक साग, मुज चेटिन और खाने के अंत में मीठे में फिरनी और शीर चाय! सबने शंकर जी की भार्या शक्तिजी की पाक कला की प्रशंसा की! विस्तारित परिवार का आनंद बस दिव्य था। सोने का इंतज़ाम सभी के लिए “क’नी” में किया गया, जो इस पाँच मंज़िला इमारत का हॉल या ऊपरी मंज़िल थी, जिसे सौ साल पहले उनके परदादा पंडित नानक चंद धर ने महाराजा प्रताप सिंह के शासनकाल में एक राजस्व अधिकारी के रूप में बनवाया था। यह मज़ेदार समय था और अचानक बिजली चली गई, लेकिन कोई हैरान नहीं हुआ क्योंकि कश्मीर में 90 के दशक में बिजली कटौती आम बात थी। जल्दी ही कुछ मोमबत्तियाँ और एलपीजी पेट्रोमैक्स जलाए गए और हलचल जारी रही, जब अचानक पड़ोस की मस्जिद के लाउडस्पीकरों से आवाज़ें सुनाई देने लगीं, “हम क्या चाहते हैं? आज़ादी!”
अचानक ये नारे ज़्यादा तेज़ और उग्र हो गए। तीन रिकॉर्ड किए हुए नारे बार-बार बजाए जा रहे थे: “कश्मीर में अगर रहना है, अल्लाह-ओ-अकबर कहना है“; “यहाँ क्या चलेगा, निज़ाम-ए-मुस्तफ़ा“; “असी ग़छि पननुय पाकिस्तान, बटव रोस त बटनेव सान (हमें हमारा पाकिस्तान चाहिए, यानी कश्मीर को पाकिस्तान बना देंगे, कश्मीरी पंडित महिलाओं के साथ, लेकिन उनके पुरुषों के बिना) ये नारे कश्मीरी पंडितों के लिए नए नहीं थे, लेकिन इस अजीब समय और ज़मीनी हालात ने एक बड़े तूफ़ान का संकेत दिया। अचानक शंकर जी के ऑफ़िस का फोन ज़ोर से बजने लगा, यह जवाहर नगर में रहने वाले एक और रिश्तेदार का फोन था, जो एक हिंदू बहुल कॉलोनी में भी इसी तरह की अफ़रा-तफ़री की ख़बर दे रहा था, और फिर कुछ और फोन कॉल्स ने पुष्टि की कि पूरा शहर इसी स्थिति का सामना कर रहा है।
यह सिर्फ़ मस्जिदों के लाउडस्पीकरों तक सीमित नहीं था; हर गली, हर चौराहे पर एक भयानक दृश्य उभर रहा था। उन्होंने खिड़कियों के परदों से देखा कि एक बड़ी भीड़, जिसमें युवा, बुज़ुर्ग, बच्चे और महिलाएँ शामिल थीं, अपने घरों से बाहर निकल रही थी और हब्बा कदल चौक पर इकट्ठा हो रही थी, ग़ुस्से से इशारे कर रही थी और आज़ादी, पाकिस्तान ज़िंदाबाद, इस्लाम ज़िंदाबाद जैसे नारे लगा रही थी। ये भीड़ लकड़ी लेकर आई थी और उन्होंने ठंड से बचने के लिए अलाव जलाया हुआ था। उन्मादी भीड़ नारेबाज़ी कर रही थी, हाथ उठा रही थी और ग़ुस्से में इशारे कर रही थी। कुछ लोग पोर्टेबल लाउडस्पीकर के साथ थे, जिनसे क़ुरान की आयतें, क्रांतिकारी गीत, भारत विरोधी बातें और इस्लामिक श्रेष्ठता के दावे सुनाई दे रहे थे।
उन्मादी भीड़ के लिए कश्मीर अल्लाह द्वारा निर्मित स्वर्ग था, जो केवल पवित्र (पाक) लोगों के लिए था, और हिंदू काफ़िरों के लिए नरक की आग थी। कश्मीर तब तक ‘दार-उल-हरब’ (युद्ध का स्थान) माना जाता था, जब तक वहाँ ‘बुत-परस्त’ (मूर्ति पूजक) हिंदू रहते थे, और यह हर मुस्लिम का कर्त्तव्य था कि वे उन्हें साफ़ कर दें, ताकि यह ‘दार-उल-सलाम’ (शान्ति का स्थान) बन सके। यह हंगामा सुबह के शुरूआती घंटों तक चलता रहा और हर एक आत्मा डर से काँप रही थी। पूरी रात यह आशंका बनी रही कि कहीं उन्मादी भीड़ हमला न कर दे, इसलिए पुरुषों ने महिलाओं और युवतियों को ज़हर (चूहे का ज़हर, जो हर कश्मीरी घर में उपलब्ध होता था) खाने के लिए तैयार किया।
और पुरुष इस बात के लिए तैयार थे कि यदि उन्मादी भीड़ महिलाओं को निशाना बनाए, तो वे घर को एलपीजी सिलेंडर का उपयोग करके आग लगा दें। 1947 के क़बायली हमले के भूत फिर से जाग उठे थे। कश्मीरी पंडितों के लिए संदेश पूरी तरह से साफ़ था: “रलिव” (इस्लाम धर्म अपनाओ), “चलिव” (कश्मीर घाटी छोड़ दो) या “गलिव” (हमारे हाथों मरो)। वे भयभीत कबूतरों की तरह अपने घरों में दुबक गए और पूरी रात जागते रहे। कोई भी बाहर नहीं निकला। रात भर चली ग़ैर-मुसलमानों के ख़िलाफ़ इस ज़हरीली मुहिम ने उनके मन की शान्ति की आख़िरी बची हुई कड़ी भी तोड़ दी। यह कश्मीर के इतिहास में पहली बार था जब स्वतंत्रता के बाद इतने बड़े पैमाने पर पंडितों के ख़िलाफ़ ऐसा खुला और निंदनीय हमला किया गया था। यह निर्णय लिया गया कि घाटी में रहना ख़तरनाक है, और सभी को अपनी इज़्ज़त और जान बचाने के लिए घाटी छोड़नी होगी। इस तरह, कश्मीरी हिंदुओं का सातवीं बार जातीय सफ़ाया हुआ, जब से इस्लाम ने हिंदू कश्मीर में क़दम रखा था, और यह 500 वर्षों से भी कम समय में हुआ।
अगले दिन वे किसी तरह अलग-अलग साधनों से अपने घर लौटे, क्योंकि पूरी घाटी में अराजकता का माहौल था और हर जगह पागल जुलूस हो रहे थे। वे यह देखकर हैरान रह गए कि उनके बुज़ुर्ग पड़ोसी रहमान ज़ू और हलीमा जी उनका इंतज़ार कर रहे थे। रहमान ज़ू बहुत ही उदास दिख रहे थे और बताया कि पिछली रात कुछ लोग उन्हें ढूँढ़ने आए थे और कई बार उनके घर का दरवाज़ा खटखटाने के बाद चले गए। उन्होंने सोमनाथ जी को तुरंत घाटी छोड़ने की सलाह दी, इससे पहले कि बहुत देर हो जाए। उन्होंने प्रार्थना की कि हालात जल्द सामान्य हो जाएँ और वे अपने घर वापस आ सकें।
जल्दी-जल्दी में उन्होंने एक सूटकेस में कुछ कपड़े और किताबें पैक कीं। उनके पास नगद पैसे नहीं थे, बैंक बंद थे, तो उन्होंने कुछ गुल्लक तोड़ीं और भारतीय गृहिणी की तरह सुमावती ने भी रसोई की अलमारी में रखे खाद्य कंटेनरों में कुछ पैसे छिपा रखे थे। आँसुओं और भारी दिल से सुमावती ने अपने घर को ताला लगाया, और परिवार ने एक अज्ञात मंज़िल के लिए यात्रा शुरू की। उन्होंने नेहरू पार्क टैक्सी स्टैंड से एक टैक्सी किराए पर ली और कश्मीर से बाहर चले गए। उस त्रासदिक दिन सुरक्षित स्थान की ओर यह यात्रा सबसे दर्दनाक थी, क्योंकि कोई कुछ नहीं बोल रहा था। सुमावती की आँखों में आँसू लगातार बह रहे थे, जबकि सोमनाथ जी की आँखों में आँसू भरे हुए थे। बच्चे इस स्थिति से अनजान थे; सनी अपने वॉकमैन पर 90 के दशक के पसंदीदा रॉक बैंड को सुनने में व्यस्त था, और सिमी “मिल्स एंड बून” की नई किताब में डूबी हुई थी।
उन्होंने बटोट में चुपचाप डिनर किया और उधमपुर में चाय पी। उन्होंने सोमनाथ जी के दूर के चचेरे भाई द्वारिका नाथ धर से मिलने का फ़ैसला किया, जो 1970 के दशक से वहीं बस चुके थे। फोन पर उनसे पहले ही संपर्क किया गया था, और परिवार उनका इंतज़ार कर रहा था। घर पहले से ही घाटी से आए भयभीत लोगों से भरा हुआ था। उनके पास बताने के लिए डरावनी कहानियाँ थीं, जिसमें बताया गया था कि कैसे कई प्रमुख हिंदुओं की निर्मम हत्या कर दी गई थी और महिलाओं के साथ बलात्कार कर उनके शवों को क्षत-विक्षत कर दिया गया था। सुमावती यह जानकर दहशत में आ गईं कि कई हिंदू लड़कियों का अपहरण कर उन्हें इस्लाम में धर्माँतरित कर दिया गया था और आतंकवादियों से उनकी शादी करा दी गई थी। उन्होंने अपने भगवान का शुक्रिया अदा किया कि उन्होंने सही समय पर घाटी छोड़ने का फ़ैसला किया, लेकिन भविष्य अनिश्चित लग रहा था, क्योंकि उन्हें पता नहीं था कि आगे उनके साथ क्या होने वाला है।
अगले दिन वे जम्मू के लिए बस से रवाना हुए, क्योंकि अब टैक्सी का ख़र्च उठाना सम्भव नहीं था। मंदिरों का शहर, जम्मू, जो माता वैष्णो देवी का निवास स्थान है, कश्मीर से आए शरणार्थियों से भरा हुआ था। उन्हें सौभाग्य से शहर में एक बेकार हालत वाला एक कमरे का किराए का घर मिल गया और इस तरह कट्टरपंथी इस्लाम के हाथों एक बार फिर जबरन विस्थापित परिवार ने एक नई ज़िन्दगी शुरू की।
सूम जी ने उधमपुर में अपने चचेरे भाई से एक ऋण लिया, जो अब उनके जीवन की एक और यात्रा के लिए नया बीज धन बना। इस बार यात्रा कठिन थी। घाटी में वापसी की उम्मीदें दिनों-दिन घटती जा रही थीं, और स्थिति बद से बदतर होती जा रही थी। हज़ारों कश्मीरी हिंदुओं की हत्या कर दी गई, उनके घरों और मंदिरों को जला दिया गया, महिलाओं और युवतियों का बंदूक की नोक पर बलात्कार किया गया और उनके शरीर को विकृत कर दिया गया।
एक शाम, जब सूमनाथ अपनी पसंदीदा ‘शीर चाय’ (कश्मीर की गुलाबी चाय) पी रहे थे, तो उन्होंने कहा, “सुमी, तुम्हें अतीत को भूलकर आगे बढ़ना होगा, अन्यथा यह तुम्हारी सेहत पर असर डालेगा। हमने जो भी साधारण चीज़ें खोईं, उसके बावजूद मैं ख़ुश हूँ कि हम ज़िन्दा हैं और उस नरक से दूर हैं।” सुमावती गहरे विचारों में खोई हुई थीं, उनकी आँखों में आँसू थे और वे बड़बड़ाते हुए बोलीं, “सूम जी, मैं बस एक बार वापस जाना चाहती हूँ। मेरा जीवन वहाँ की हर चीज़ में बिखरा हुआ है, जो हमने प्यार और बलिदान से जुटाया था।”
सूमनाथ ने उनके भावों को समझते हुए उन्हें ढाढ़स बँधाया और कहा, “मैं पूरी तरह समझता हूँ कि तुम्हारा घर बनाना कितना महत्त्वपूर्ण था। मैं तो बस एक माध्यम था, पर अतीत को भूलना ही बेहतर होगा।” यह कहकर उन्होंने सुमावती के गाल पर प्यार से चूमा और जम्मू में कश्मीरी प्रवासी शिक्षकों की बैठक में शामिल होने चले गए।
गर्मी की उस तपती दोपहर में, सुमावती पंखे की गर्म हवा से ज़ूझते हुए सोच रही थीं, ‘भूल जाओ, कितनी आसानी से यह कहा जा सकता है, लेकिन करना कितना मुश्किल है।’ उन्हें याद आया कि कैसे उन्होंने सीमित आय के बावजूद अपने घर को सजाया और सामाजिक स्थिति को बनाए रखा। उन्हें यह भी याद आया कि पिछले साल ही उन्होंने कुछ महँगे कालीन और एक नया रंगीन टीवी ख़रीदा था।
प्रोफ़ेसर सूमनाथ को जम्मू विश्वविद्यालय में एक प्रवासी शिक्षक के रूप में नियुक्त किया गया था। हालाँकि, यह विडंबना थी कि कश्मीरी पंडितों को “प्रवासी” कहा गया, जबकि वे अपनी मर्ज़ी से नहीं बल्कि बंदूक की नोक पर घाटी छोड़ने को मजबूर हुए थे। उनके बच्चों ने शिविरों में शिक्षा प्राप्त की और धीरे-धीरे उनका जीवन चलने लगा, लेकिन सुमावती का कश्मीर लौटने का जुनून और भी प्रबल हो गया और इसका असर उनकी सेहत पर पड़ने लगा।
सूमनाथ और बच्चे उनकी इस इच्छा से भली-भाँति परिचित थे और वे उन्हें वापस ले जाना चाहते थे, लेकिन घाटी से आ रही डरावनी कहानियों के कारण उन्हें रोकना पड़ा। कई हिंदू जो अपना सामान लेने वापस गए थे, उनकी बर्बरतापूर्वक हत्या कर दी गई थी।
एक दिन, कश्मीर विश्वविद्यालय में ड्राइवर के रूप में काम करने वाले क़य्यूम उनसे मिलने आए, जो सूमनाथ को अपने मार्गदर्शक के रूप में मानते थे।
यह सरकारी नौकरी क़य्यूम को प्रोफ़ेसर साहब के अथक प्रयासों से मिली थी और एक बार जब उनके छोटे बेटे की तबियत ख़राब हो गई थी और उसे इमरजेंसी सर्जरी के लिए दिल्ली ले जाना पड़ा था, तो प्रोफ़ेसर साहिब ने उनके सारे ख़र्चे उठाए थे। केवल यही नहीं, प्रोफ़ेसर साहिब कई लोगों के लिए मार्गदर्शक और संरक्षक थे। उन्होंने कश्मीर के शान्तिपूर्ण दिनों को याद किया और वर्तमान हालात पर दुख जताया।
अचानक, सुमावती के आँखों में आँसू आ गए और वह रोते हुए बोलीं, “क़य्यूम लाला, मैं वापस अपने घर जाना चाहती हूँ, मेरे कश्मीर, मेरे अपने कश्मीर में, बस एक बार। लेकिन आपके प्रोफ़ेसर साहिब डरते हैं कि कहीं हमें कोई आतंकवादी मार न दे।” क़य्यूम भी भावुक हो गया और बोला, “बहन, क्यों नहीं? मैं पहले गोली खाऊँगा, फिर वे नापाक लोग तुम्हें छुएँगे। प्रोफ़ेसर साहिब, इसमें कोई बड़ी बात नहीं है। आपका घर शहर के बीच में नहीं है, वहाँ जाना सुरक्षित है, लेकिन हमें जल्दी करनी होगी। मैं आपको सुझाव दूँगा कि आप भेष बदल लें ताकि कोई आपको पहचान न सके। आप एक मुस्लिम जैसी दाढ़ी बढ़ा लें और मैं बहन के लिए नक़ाब की व्यवस्था कर दूँगा।”
क़य्यूम ने आँसू पोंछते हुए कहा, “मुझे बताओ जब आप तैयार हो जाओ, मैं आपको आपके घर वापस ले जाऊँगा। मेरा दिल टूट जाता है जब मैं देखता हूँ कि मेरी नेकदिल बहन अपने ही घर वापस जाने के लिए गिड़गिड़ा रही है। या अल्लाह, मेरे स्वर्ग जैसे कश्मीर को क्या हो गया?” यह कहकर वह चला गया। उसके जाने के बाद कमरे में सन्नाटा छा गया और सभी इस योजना के ख़िलाफ़ थे, लेकिन सुमावती अपने निर्णय पर अड़ी रहीं। सूमनाथ जी को अंततः मानना पड़ा, और एक दिन तय किया गया जो क़य्यूम को फोन पर बताया गया।
वे अब अपने घोंसले में थे, जहाँ उन्होंने दस साल बिताए थे, और यह आख़िरी बार था जब वे यहाँ वापस आए। पिछले कुछ महीनों में हालात और भी बिगड़ गए थे क्योंकि लगभग पूरी कश्मीरी हिंदू आबादी को उनके घरों से उखाड़ दिया गया था। सैकड़ों लोगों की बेरहमी से हत्या कर दी गई थी, ताकि कोई भी वापस आने की हिम्मत न कर सके।
“सुमी, हम देर कर रहे हैं, तुम क्या करने की कोशिश कर रही हो? सारा सामान पैक कर रही हो? तुम्हें पता है कि हमारे पास सीमित जगह है और वापसी में हमें किसी भी गैंग का सामना करना पड़ सकता है जो ज़्यादा सामान देखकर शक कर सकता है। कृपया सिर्फ़ क़ीमती चीज़ें एक-दो सूटकेस में रख लो।”
थोड़ी देर बाद, सुमावती अपने प्यारे ‘माधव कुंज’ से बाहर आईं, एक छोटा सूटकेस खींचते हुए आईं और क़य्यूम की मदद से उसे कार की डिक्की में रखा। वह चुपचाप सूमनाथ जी के बग़ल में बैठ गईं। उन्होंने पीछे मुड़कर देखा, उनकी आँखों से आँसू निकल आए और वह रोते हुए बोलीं, “क़य्यूम सबा, चलिए।” वापसी का सफ़र भी ख़ामोशी से गुज़रा, सिर्फ़ सुमावती की ठंडी साँसें उस ख़ामोशी को तोड़ती रहीं। कौन सोच सकता था कि उन्हें अपने ही घर को इस तरह छोड़ना पड़ेगा? वे अपनी ही धरती पर शरणार्थी बन गए थे!
बाक़ी का सफ़र बिना किसी घटना के बीता और वे सुरक्षित जम्मू पहुँच गए। क़य्यूम ने थोड़ी बातचीत और सिमी द्वारा बनाई गई एक कप शीर चाय के बाद भारी मन से विदा ली।
“अब क्या? मुझे यक़ीन है कि तुम ख़ुश हो, तुम्हारा दिल का अरमान पूरा हो गया! मैं डर गया था, तुमने बहुत समय लिया! मुझे यक़ीन है कि तुम्हें अपना ख़जाना मिल गया।”
“हाँ, मेरा ख़जाना!” यह कहते हुए सुमावती ने सूटकेस खोला और अचानक सैकड़ों तस्वीरें ज़मीन पर बिखर गईं—कुछ ब्लैक एंड व्हाइट, कुछ रंगीन, और कुछ पोलारॉइड भी . . . अलग-अलग प्रकार के एलबम, और उनकी शादी का मोटा लाल एलबम, जो अब थोड़ी घिसी हुई थी। बच्चे ख़ुशी से उछल पड़े, उनकी पूरी ज़िंदगी उनके सामने इन तस्वीरों में थी, जो यह कह रही थीं कि वे कौन थे और उन्होंने कौन-सा सफ़र तय किया। अमेरिका की यात्रा की तस्वीरें, बच्चों के जन्मदिन, स्कूल के कार्यक्रम, पिकनिक, शादियाँ, उनके गृह प्रवेश की तस्वीरें, और उनके माता-पिता तथा प्रियजनों की तस्वीरें।
सुमावती बुदबुदाई, “मैं साधारण चीज़ों और इन अनमोल यादों के बीच फँसी हुई थी। हमारी ज़िंदगी का सार इन तस्वीरों में है और ये हमारे साथ रहेंगी—हमारे दिन और साल, वे अनमोल पल, हमारा घर, हमारी ज़मीन, हमारी जवानी, हमारे बच्चे और उनके बढ़ते साल, हमारे प्रियजन। मैंने उन्हें सब समेट लिया, कुछ भी वहाँ नहीं छोड़ा, मैं वादा करती हूँ।”
यह कहते हुए सुमावती ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी, लेकिन उसके चेहरे पर एक शांत मुस्कान थी। वे एक-दूसरे को गले लगे, अपने ही लोगों द्वारा अपनी ही ज़मीन पर शरणार्थी बनने का दर्द और दुःख उनके प्रेम की गर्माहट में पिघल गया, और वे एक नई अनजान यात्रा की ओर आत्मविश्वास और उम्मीद के साथ बढ़ने के लिए अधिक दृढ़ नज़र आए, क्योंकि उनका ख़ज़ाना उनके साथ था।