ख़ामोशी 

15-04-2023

ख़ामोशी 

सावित्री शर्मा ‘सवि’ (अंक: 227, अप्रैल द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

 

जब से घर व ज़मीन का बँटवारा हुआ रिंकी हमेशा ही सबसे सुनती, उसकी जिठानी उसके बारे में जाने क्या मनगढ़ंत सबसे कहती रहती छोटी बातें जिनका कोई औचित्य ही ना था। अब जबकि सब बराबर बँट गया फिर भी जिठानी जी को क्या शिकायत रहती, समझ से परे था। सोचती, मौसमी बरसात है, शांत हो जाएगी। लेकिन मानव मन की गुत्थियाँ भला कौन हल कर पाया है। 

“सुना है तुमने अपनी जिठानी का हिस्सा भी ले लिया है, सास के गहने भी तुमने ही रख लिए,” दूर की बहन राखी ने रिंकी से बेरुख़ी से पूछा। 

“तुमसे किसने कहा?” मन में उठते क्रोध को दबा रिंकी ने शान्ति से पूछा। 

“कौन कहेगा, जिसके साथ हुआ होगा वही तो,” कहते हुए राखी के चेहरे पर तिरस्कार की भावना फैल गई। जिसे महसूस कर रिंकी शर्मिंदा हो उठी। वैसे उसे लज्जित नहीं होना चाहिए था। क्यूँकि उसने ईमानदारी से अपने हिस्से का ही लिया था। 

ये सब सुन रिंकी ने सोचा, कभी जिठानी मिलेगी तो उनके झूठ का पर्दाफ़ाश करेगी। अच्छा सबक़ सिखायेगी। बड़ी हैं तो क्या हुआ? मैं उनका झूठ क्यूँ झेलूँ। सोचती रिंकी मन से आवेश में भर उठी। 

“अरे जीजी आप, इस समय?”

रात के ग्यारह बजे अपने दरवाज़े पर जिठानी को देख चिंतित हो उठी। बहुत समय बाद आया देख सारी बातें भूल दौड़ कर गले लग रो पड़ी। इतने दिन बाद देखा जो था। भूल गई गिले-शिकवे, जिठानी की अनर्थक बातें, सामने प्यार था, रिश्ते थे। और सामने खड़ी थी सास सरीखी जिठानी। जिसने सास के ना होने पर डोली से उतार आरती कर गृह प्रवेश करवाया था। जो भी उसकी अपनी थीं। आज कुछ नहीं कहना था उसे। बेकार बातों को ख़ामोशी में ही दफ़्न करना अच्छा था। माफ़ कर तो वो जिठानी को भी जोड़ सकती है। उनका हृदय परिवर्तन भी कर सकती है। 

कहीं फ़ालतू बातों से घर आई जिठानी से रिश्ते फिर ना ख़राब हों, रिंकी मन को समेट पैर छू पलंग पर बिठा बोली, “कहो जीजी कोई दिक़्क़त तो नहीं?”

जिठानी एक टक निहारती अपनी देवरानी को देखती सोचने लगी, ‘कितनी सरल हृदय है रिंकी, मैंने इसके लिये क्या नहीं कहा, आज भी वही सौम्य रिंकी मेरे सामने खड़ी है, कैसे कहूँ की तेरे जेठ जी का व्यापार में नुक़सान हो गया है, भरपाई को पैसे चाहिएँ।’

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता
लघुकथा
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में