कवि की अभिलाषा
रंजीत कुमार त्रिपाठीचाहता हूँ कुछ ऐसा
करके जाऊँ इस जहां से,
जब चला जाऊँ यहाँ से
तब लोग हमेशा याद करें,
मुझे नहीं बल्कि मेरी उपलब्धियों को
जिन्हें मैं उन्मुक्त मन, उन्मुक्त हाथों से
लुटाता जा रहा हूँ,
जिससे मैं लोगों के लबों पर
गीत बनकर आ रहा हूँ॥
है छोटी सी तमन्ना,
इस जहां को आग़ोश में
अपने मैं भर लूँ,
इस ज़मीं को स्वर्ग कर दूँ,
ख़ुशियाँ असीमित इसमें भर दूँ,
अगर क़िस्मत साथ दे तो
कर्म के दम पर मैं अपने
वक़्त को भी बाँध लाऊँ,
इस धरा को रंगीन कर दूँ
चाँद–तारों से सजाऊँ॥
जोश है, उन्माद है और
जीत का उत्साह भी है
सब कुछ है मुझमें चाहिए जो
जीत का विश्वास भी है,
लक्ष्य माना, है बड़ा पर
साक्षी इतिहास भी है,
कह रहा जो चीख़कर
"कर्म पर विश्वास कर तू,
मन से हार न मानना
मुश्किलों से हार कर तू॥“
जोश इतना
बाधा की चट्टान को मैं चूर कर दूँ
कष्ट झुग्गी–बस्तियों का दूर कर दूँ,
बन भागीरथ ख़ुशियों की मदमस्त सी
लहराती गंगा फिर से मैं लाऊँ,
पाप से कलुषित- मलीन धरती को
विमल फिर से मैं बनाऊँ,
श्वास जब तक भी मेरी चलेगी
लड़ता रहूँगा भाग्य से मैं
धड़कनें जब तलक धक-धक कहेंगी॥
तय इसीलिए मैंने किया है
तन भले ही हार जाए
मन मेरा हार न मानेगा,
जब तक मुझमें बहता है गर्म लहू
कर्तव्यों को पहचानेगा,
अपने दम पर हर यत्न करूँगा
दुनिया को स्वर्ग बनाने की,
जो कुछ पीढ़ी है भुला चुकी
उसको फिर से लौटने की,
है कवि की यही अंतिम अभिलाषा
मैं जाऊँ जब इस धरती से
तैयारी हो एक परिवर्तन की,
जो भी कलुषित धरती पर हैं
तैयारी हो निष्कासन की,
जब कभी यहाँ मैं फिर आऊँ
इसको तब मैं उन्नत पाऊँ,
तब रुदन कहीं न सुन पड़े मुझे,
जब जाऊँ धरा को सौंप तुझे॥