कथानक का ‘भाव चिंतन’ मन-मस्तिष्क दोनों को मथता है

01-03-2024

कथानक का ‘भाव चिंतन’ मन-मस्तिष्क दोनों को मथता है

डॉ. जयप्रकाश तिवारी (अंक: 248, मार्च प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

पुस्तक: मैं द्रौपदी नहीं हूँ 
विधा: लघुकथा संग्रह
रचनाकार: डॉ. रमा द्विवेदी, हैदराबाद ( तेलंगाना )
प्रकाशक: शब्दांकुर प्रकाशन, नई दिल्ली।
प्रकाशन वर्ष: 2022 
 

डॉ. रमा द्विवेदी हिन्दी साहित्य जगत में ‘नारी सशक्तिकरण’ की एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। नारी सशक्तिकरण आंदोलन में उनका चिंतन हिन्दी साहित्य को लगातार समृद्ध कर रहा है। इस पुस्तक के पूर्व मैने उनका काव्य संग्रह ‘रेत का समन्दर’ और हाइकु संग्रह ‘साँसों की सरगम’ का न केवल पाठक रहा हूँ  बल्कि उनकी गुणवत्ता और उपादेयता से प्रभावित होकर उनकी समीक्षा भी लिखी है। आज उनकी नई प्रकाशित कथा संग्रह ‘मैं द्रौपदी नहीं हूँ’ मेरे हाथों में है और कथानक का “भाव चिंतन” मन-मस्तिष्क दोनों को निरंतर मथता ही जा रहा है। इस संग्रह में  कुल 111 संवेदनशील लघुकथाओं  को स्थान मिला है। साहित्यिक धर्म का पालन करते हुए प्रत्येक कथानक में किसी न किसी सामाजिक समस्या, कुप्रथा को न केवल प्रमुखता से उठाया उठाया गया है अपितु उसका सशक्त विरोध/समुचित सबल प्रत्युत्तर, समाधान भी दिया गया है। अधिकांश शोषित पात्र कोई न कोई नारी चरित्र ही है और यह चरित्र अपने ही आस पास की “नारी” है। वर्तमान की नारी उस पुरातन भेदभाव, शोषण, तिरस्कार, या सामाजिक असमानता, विद्रूपताओं का समुचित प्रत्युत्तर देती है, इन तीखे किंतु सार्थक प्रत्युत्तरो में तन, मन और कर्म तीनों से एक प्रगतिशील नारी जगत, सशक्त नारी चरित्र को नए नए संदर्भों, परिवेश में प्रकट होता है वह वृत्ति कोरी कल्पना नहीं है, प्रायः आज वह दिखता भी है। 

प्रथम कथानक की नायिका ‘प्रज्ञा’ परिवार में ही कामुक दृष्टि रखने वाले देवर का न केवल विरोध करती है, अपितु पति द्वारा इन शिकायतों पर ढुलमुल रवैया अपनाए जाने पर प्रज्ञा का दो टूक साहसी निर्णय—"मैं द्रौपदी नहीं हूँ, जो तुम्हारे कहने से दांव पर लग जाऊँगी। मैं अपने आत्म सम्मान की रक्षा स्वयं करूँगी” का लघु वाक्य “मैं द्रौपदी नहीं हूँ” न केवल इस कथा का, अपितु इस पुस्तक का भी सारगर्भित शीर्षक बन गया है।

सामाजिक विकृतियों को तो डॉ. रमा जी ने उठाया ही है, साहित्यिक विद्रूपताओं और नित्य बढ़ते नकली साहित्यकारों की ओछी और लोलुप प्रवृत्ति को जिस मुखरता से चिह्नित कर प्रस्तुत किया गया है, उस प्रस्तुति कला ने एक पाठक और समीक्षक की दृष्टि से मुझे बहुत गहराई तक प्रभावित किया है। साहित्यक सृजन, “साहित्यिक सम्मान और उपाधि”, सम्मान और पुरस्कार से विभूषित होना, धनवानों या धनकुबेरों की “लक्ष्मी” नहीं है जो उलूक पर यत्र -तत्र विचरण करता रहता है; ये सम्मान तो कलमकारों और चिंतकों की “सरस्वती” का वह राजहंस है जो नीर क्षीर का विवेक करता है, जो तपःपूत लेखनी से प्रसूत होता है। यह अर्थ का विषय नहीं, संवेदना और अभिव्यक्ति का विषय है। यह संवेदनात्मक कठिन साधना का पाथेय है। यह कोई क्रय विक्रय की वस्तु नहीं। कवि बनने-बनाने की लालसा में कवित्व के लोभी व्यक्ति और मानद उपाधि बाँटने वाली इन कुटिल साहित्यिक संस्थाओं पर, इस अद्यतन कुप्रथा पर डॉ. रमा जी ने एक बार नहीं, कई बार अलग अलग ढंग से जिस प्रकार प्रभावी रूप से प्रस्तुत किया है, उसके लिए  वह पूरे साहित्य जगत की दुलारी नेत्री बन गई हैं। साहित्य जगत की यह बढ़ती कुप्रथा ‘ठगुआ कवि’, ‘लोभी गुरु, लालची चेला’, ‘मानद उपाधि’, ‘धंधा’, ‘शिक्षा शिरोमणि, ‘लक्ष्मी की माया’ . . . आदि लघुकथाएँ  इसी कुप्रथा को चित्रित करती कहानियाँ  कपोल कल्पित नहीं, बढ़ती जा रही वास्तविकता की कटु सच्चाई हैं। जिसपर कथाकार ने करारा तमाचा जड़ा है। यह  तमाचा सर्वथा स्तुत्य है।

समलैंगिक विवाह, लिव इन रिलेशनशिप, तलाक, राजनीति, कुटिल राजनीति, घृणित राजनीति, गुणों की दहशत, पारिवारिक घुटन, अंतर्द्वंद, नियति का खेल, खोखली मान्यताएँ, दरकते टूटते पारिवारिक, सामाजिक रिश्ते . . . आदि अनेक विषयों को लेकर नारी चरित्र प्रधान कथानकों  का सृजन किया है जहाँ  स्त्री ने अपने आत्म सम्मान, आत्म गौरव, अपनी रुचि, अपने अधिकार और अपने कर्तव्य के प्रति सजग, सतर्क और प्रतिबद्ध दिखती है। नारी के इस सबल चरित्र का समादर होना ही चाहिए। “एक नारी बदलती है तो उसकी संतति बदलती है, संस्कार बदलता है, परिवार बदलता है, संस्कृति बदलती है। किंतु इसी बिंदु पर अत्यंत सतर्कता की आवश्यकता भी है”। ‘स्वतंत्रता और स्वच्छंदता में एक पतली सी बहुत महीन सीमा रेखा होती है। स्वतंत्रता उपयोगी है, स्वच्छंदता घातक। संतोष का विषय है कि कथाकार ने इस रेखा का समुचित ध्यान रखा है।’ प्रत्येक नारी चरित्र प्रगतिशील और स्वतंत्रता की पोषिका तो है, घातक स्वच्छंदता कहीं नहीं दिखी। इस सावधानी ने साहित्य के क्षेत्र में डॉ. रमा द्विवेदी के व्यक्तित्व और लेखकीय चिंतन को एक गरिमामय ऊँचाई प्रदान की है, उसे संस्कृति की पोषिका के रूप में भी स्थापित किया है।

इन सारी अच्छाइयों और उपादेयता के बाद भी मुझे इस पुस्तक का शीर्षक कुछ खटकता है। प्रथम कहानी के रूप में “मैं द्रौपदी नहीं हूँ” तो उपयुक्त है, यह कथा की माँग भी है किंतु समग्र रूप में पुस्तक शीर्षक रूप में मुझे व्यक्तिगत रूप से उपयुक्त नहीं लगता। यह अति उत्साह और इसकी प्रेरक आभा से प्रभावित निर्णय लगता है। क्योंकि “मैं  द्रौपदी नहीं हूँ” यह एक निषेध वाक्य है, यह द्रौपदी के उन सभी उपयोगी, उपादेय, ऊर्जस्वी गुणों का भी निषेध कर देता है जो नारी स्वाभिमान और स्वावलंबन हेतु नितांत अनिवार्य है। नारी सदा से ही संवेदनशील, त्यागी, समर्पिता और चिंतनशील रही है, किंतु मुखर नहीं रही। उसे यह मुखरता प्रदान की है ‘गार्गी’ और ‘द्रौपदी’ ने। कालांतर में ‘शकुंतला’ . . . आदि ने। महाराज धृतराष्ट्र के भरे दरबार में पहले अपने शूरवीर पतियों से, दुर्योधन से, भीष्म से, द्रोण और कृप से और अन्त में महाराज धृतराष्ट्र जो युक्तियुक्त संवाद और सामर्थ्य कौशल जो द्रौपदी में है, क्या किसी अन्य स्त्री चरित्र में यह सुलभ है? अपमान के बदला का संकल्प लेना और पूर्ण होने तक दृढ़ रहने का कोई अन्य दूसरा उदाहरण है? कई अवसर आए जब समझौता की संभावना बनी थी किन्तु मूल में यह “द्रौपदी ही थी” जिसका संकल्प पूर्ण हुआ। द्रौपदी अग्नि कुण्ड से उत्पन्न बाला थी, यज्ञसैनी थी। पाँच पतियों का वरण उसका निजी फैसला नहीं था, यह परिस्थितियों की देन थी। उस समय बहुपत्नी और बहुपति विवाह को सामाजिक मान्यता प्राप्त था। यह समसामयिक पारिवारिक संस्कार और मातृ निर्णय की स्वीकृति, आदरभाव था। इसका यह अर्थ कदापि नहीं लगाना चाहिए कि वह कामुक थी, कामपिपासु या चरित्रहीन थी। यदि ऐसी होती तो “कीचक बध” क्यों होता? यदि समझौतावादी होती तो दुःशासन की छाती का लहू कैसे आता? दुर्योधन का जाँघ नियम विरुद्ध भी क्यों टूटता? हाँ, जीवन उसका कंटककीर्ण भले ही रहा, अंत में महारानी, राजमहिषी वही बनी, यह उसकी विजय गाथा है। वह विजयी है, पराभूता नहीं। विरोधियों (विकृतियों) के समूल नाश के केंद्र बिंदु में भी “द्रौपदी” ही सर्वदा विद्यमान है। संकल्प सतत याद रहे इसके लिए उसने केशों को खुला छोड़ दिया था। संकल्प के इस प्रेरक प्रतीक को मध्यकाल में चाणक्य ने अपनाया और नंद वंश का नाश हुआ। इस प्रकार द्रौपदी चरित्र नारी के लिए ही नहीं, पुरुष के लिए भी प्रेरक तत्त्व है। यदि “द्रौपदी” के इन प्रेरक और गतिमान गुणों का ही निषेध कर दिया जाएगा तो आधुनिक सबल नायिका, अद्यतन प्रगतिशील नारी को प्रेरक ऊर्जा, संबल और विचार कहाँ  से मिलेगा? द्रौपदी अपनी दिव्य गुणों के कारण भारतीय संस्कृति में पंच कन्याओं में आदर के साथ परिगणित की गई है। वह भारतीय संस्कृति की दिव्य धरोहर है। आज द्रौपदी कोई व्यक्ति वाचक संज्ञा नहीं, गुणवाचक नारी चरित्र है। यह एक ज्योतित, प्रखर और तेजस्वी सांस्कृतिक बिंब  बन गया है।

इस पुस्तक में संकलित लघुकथाएँ  स्वतंत्रता की माँग, स्वनिर्णय के अधिकार की माँग प्रगतिशीलता, आधुनिकता और “नारी सशक्तिकरण” के नाम पर करते हैं, इसमें कोई बुराई भी नहीं है; किन्तु क्या इस स्वतंत्रता की कोई सीमा रेखा भी है? स्वतंत्रता की यह माँग भारतीय संस्कृति द्वारा अनुमोदित है या पाश्चात्य सभ्यता द्वारा विकृत? यहाँ  मैने “विकृत” शब्द का प्रयोग अनजाने में नहीं, जानबूझकर किया है। क्यों किया है, इसके उत्तर के लिए हमें  पाश्चात्य जगत की ओर झाँकना होगा। पाश्चात्य जगत में नारी स्वतंत्रता के नाम पर एक आंदोलन उठा और उसे तीव्र धार, तीव्र गति दिया सीमोन दि बाउवा की पुस्तक “द सेकंड सेक्स” ने। (हिंदी रूपांतरण ‘स्त्री:उपेक्षिता’, अनुवादक, प्रभा खेतान)। सिमोन “नारी स्वतंत्रता आंदोलन” की प्रथम अंतरराष्ट्रीय चेयर पर्सन बनीं थीं । इस आंदोलन की प्रमुख माँग थी स्थापित सामाजिक संस्थाओं का विरोध। इस आंदोलन ने विवाह जैसी संस्थाओं को नकार दिया और बिना विवाह के ही पुरुष मित्र या महिला मित्र के साथ जीवन बिताने के स्वतंत्र निर्णय की एक नई संकल्पना प्रस्तुत की। फलतः ‘लिव इन रिलेशनशिप’ और ‘समलैंगिक विवाह’ की प्रथा विकसित हुई और भारत भूमि तक आ पहुँची। स्वयं सिमोन ने एक नोबल पुरस्कार विजेता दार्शनिक के साथ एक छत के नीचे जीवन के कई वर्ष बिना विवाह के व्यतीत किए थे।

इस पुस्तक में “स्वतंत्र जीवन” शीर्षक की कथा बिना विवाह ‘लिव इन रिलेशनशिप’ का और “क्या बताऊँ  यार” की कहानी समलैंगिक विवाह का प्रतिनिधित्व करती हैं। इन दोनों की कहानियों में लेखिका स्वयं “मैं” पात्र के रूप में उपस्थित है। “मैंने बहुत  सहजता से पूछा -‘शादी क्यों नहीं करना चाहते हो? संतान तो शादी के बाद ही करनी चाहिए?’ लड़की ने उत्तर दिया - ‘वास्तव में शादी करके हम सामाजिक बंधनों मे नहीं बँधना चाहते . . . हम स्वतंत्र जीवन जी सकेंगे।’ लड़की का उत्तर सुनकर मैं गंभीर प्रश्नों में उलझ गई।” “मैं” का गंभीर प्रश्नों में उलझ जाना ‘इस परंपरा की सहज स्वीकृति नहीं हैं। यह विरोध और अस्वीकृति का ही स्वर है।’

आज हमारे देश मे समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता भी प्राप्त हो चुकी है किंतु इसी संग्रह  की कहानी “क्या बताऊँ  यार” में भोलानाथ शर्मा का कथन “एकदिन मेरा लड़का एक फोटो हाथ में लेकर बोला, मुझे यह पसंद है, मैं  इससे शादी करूँगा। . . . लपककर मैंने उस फोटो को देखा, वह लड़की नहीं, एक लड़के का फोटो था। मैं अपना माथा पकड़कर बैठ गया”। उनके मित्र योगेंद्र वर्मा जी का हतप्रभ होना, क्या है? यहाँ  भी “मैं” का माथा पकड़कर बैठ जाना (मित्र का हतप्रभ होना) इस प्रवृत्ति का विरोध नहीं तो और क्या है?

अब यह विरोध क्यों है, इसे समझना होगा? भारतीय संस्कृति में, सृष्टि विकास परंपरा में विवाह एक पवित्र यज्ञ है, “संतति यज्ञ”। प्रकृति स्वयं ही निरंतर यज्ञरत है। मनुष्य की उत्पत्ति प्रकृति में पाँचवी आहुति पड़ने के बाद पूर्ण होती है। समलैंगिक विवाह में संतति तो संभव नहीं। बिना विवाह उत्पन्न हुए संतति में एक बड़ा प्रश्न उठ खड़ा होगा, इनका आपसी रिश्ता क्या है? जैविक रूप से एक ही माता पिता की संतान होते हुए भी क्या वे भी पशुवत एक दूसरे से यूँ  ही संबंध बनाएँगे, जहाँ  कोई रिश्ता नहीं होता, वे होते हैं  केवल एक नर और एक मादा। यह स्थिति मानव का उन्नयन है या पतन? क्या हम मानव को देवत्व की बजाय पशुत्व की ओर उन्मुख करेंगे? और यदि आपसी संबंध नहीं बनेगा तो नई संतति इस धरा पर नहीं आयेगी और हम जाने अनजाने इस धरा को मानव विहीन ही बनाएँगे । दोनों ही स्थितियों में यह स्वीकार योग्य नहीं है। इसके मूल में मुख्य प्रश्न “यह” है, विरोध का कारण “यहाँ” है, जिसे कहानी में कहीं भी संकेतित नहीं किया गया है, किंतु हमारी चेतना में परंपरा से अदृश्य रूप में विद्यमान है।

अब मेरा प्रश्न है—क्या इस कथा संग्रह की नायिकाएँ  पाश्चात्य जगत की इन दो मुख्य प्रवृत्तियों की पोषिका हैं? अरे जो “प्री वेडिंग सूट” में यह निर्णयात्मक टिप्पणी “परिवर्तन यदि अच्छाई के लिए हो तो बहुत अच्छा होता है लेकिन  विवेकहीन परिवर्तन हमें  कहाँ  ले जाएगा बस इसकी कल्पना ही की जा सकती है?  स्वतंत्रता और स्वच्छंदता के सूक्ष्म अंतर को हमें समझना होगा।” 

मेरी दृष्टि में ‘स्वतंत्रता और स्वच्छंतता के सूक्ष्म अंतर को हमें समझना  होगा’ एक कथन लेखिका का पाश्चात्य विचारधारा के प्रति कोई सहनुभूति नहीं, विरोध का ही प्रमाण है। इसलिए मैंने अपने विवेचन में लिखा है कि लेखिका द्वारा इस कथा संग्रह का शीर्षक “मैं  द्रौपदी नहीं हूँ”, अति उत्साह में लिया गया निर्णय नहीं है। उनके अंतः में भारतीय सांस्कृतिक और भारतीय प्रतीकों, बिंबों  के प्रति आदर और स्नेह है। इस शीर्षक “मैं द्रौपदी नहीं हूँ” की शब्दावली को सांस्कृतिक बिम्ब ‘द्रौपदी’ के “अपमान” या “मूल्यहीनता”, “अनुपयोगिता” . . . जैसे भावों से जोड़कर नहीं देखना चाहिए। वह बिम्ब सबल है, सशक्त और नर तथा नारी दोनों के लिए प्रेरक है। आध्यात्मिक, संस्कृति बिंबों के प्रयोग में साहित्यकारों, रचनाकारों को भी अत्यंत सतर्क रहना चाहिए। एक छोटी सी असतर्कता भी एक बड़े विवाद का कारण बन सकता है।

 . . . तथापि इन गुण दोषों के साथ भी यह कथा संग्रह अत्यंत उपयोगी और नारी जगत को आत्मनिर्भर, सशक्त, स्वविवेकी और स्वतः निर्णय हेतु प्रेरित करने वाला, विकृतियों, कुप्रथाओं से डट कर लोहा लेने वाला, संस्कृति समर्थक प्रेरक और स्वीकार्य “कथा संग्रह” है। यह नवयुग की नई कहानी है जिसमें  सर्वांगीण सभ्य समाज सृजन और विकृतियों के सार्थक स्वर गुंजित है। इस कथा संग्रह का हार्दिक स्वागत। यह प्रत्येक घरों में पढ़ा  जानी चाहिए। यह संग्रह समाज में पथ प्रदर्शक देदीप्यमान दीपक का कार्य करेगा, ऐसी आशा की जानी चाहिए। डॉ. रमा द्विवेदी जी को हार्दिक बधाई और इसी प्रकार नए पुस्तक सृजन का विनम्र आग्रह भी। ईश्वर उनकी लेखनी को यशस्वी बनाएँ ।

डॉ. जयप्रकाश तिवारी
लखनऊ, उत्तर प्रदेश

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