करते हो कोशिश
रचनासिंह ’रश्मि’ तुम करते हो
कोशिशें बहुत
मेरे जिस्म को
छूने की फुसलाकर
बहकाकर सहलाने की
निगाहों से उरोजों को
मसलते रहे
चीर हरण कर हर रोज़
कौमार्य भंग कर
भोगते रहे
ना पूछी जाति मेरी
बस मुझे भोगने की
वस्तु मानते रहे
पल पल मारते रहे
काश! कोशिश करते
छूने को कोमल मन मेरा
काश!! छू पाते
रुह के अहसास..
समझ पाते तन मे
प्यार की गहराई,
त्याग और अच्छाई
क्यों मनाते? तृप्ति
क्या तुम्हारा
पौरुष,अंहकार
सिर्फ स्त्री को
काम वासना
तृप्ति का साधन
समझ भोगते हो
मत भूलो
योनिद्वार से ही
जन्म तुम्हारा!