ज्येष्ठ की गर्मी
मधुबाला शांडिल्य
ज्येष्ठ की तपती गर्मी, रुला रही इंसान को,
चीत्कार रही है धरा, पुकार रही आसमां को,
सरसराती लू के थपेड़े, आग है बरसा रही,
उमड़ते बादलों के घेरे, चल रहे किसी और ओ़र,
आँख मिचौली खेलती, प्रकृति भी इंसान से,
सूख रही है नदी, तालाब भी चीत्कारते,
मुरझाए से दिख रहे हैं, पेड़ पौधे कोंपलें,
इंसान भी बेबस हुआ, ज्येष्ठ के रौद्र रूप से . . .
खेलता इंसान जब, प्रकृति को है छेड़ता,
काट रहे हैं पेड़ पौधे, चट्टान को है तोड़ता,
उजाड़ रहे हैं जंगलों को, पशुओं को है बेघर करता,
पिघल रहा है हिमाचल, धरा को है रौंदता,
पक्षी बेघर हुए, तिलमिलाती तितलियाँ,
प्रकृति अब क़हर बरसा रही, तोड़ती अब बेड़ियाँ . . .
मानव तेरे करनी से, प्रकृति आज बेहाल है,
रो रही है धरा, चीत्कारता आसमान है,
मनुष्य मानव ना रहा, कर गये संहार वो,
अपने स्वार्थ से विवश, कर रहे नरसंहार वो,
प्रकृति प्रेम से अलग, आग वो लगा रहे,
कर रहा बर्बाद तू, इस धरा को तू जला रहा,
आँख भी ना तेरी रोई, देखकर बर्बादी को,
इतने स्वार्थ में डुबोकर, मानव तू बेकार है,
कभी तुझसे खिलती थी धरा, आज तुझसे ही बर्बाद है,
प्रकृति के विनाश का, आज तू ही ज़िम्मेदार है . . .