जो महकती थी गुलों की ख़ुशबुओं से घाटियाँ
संगीता चौबे ‘पंखुड़ी’
2122 2122 2122 212
जो महकती थी गुलों की ख़ुशबुओं से घाटियाँ
ख़ून से लथपथ पड़ी वो आज केसर क्यारियाँ
गूँजते नग़्में जहाँ थे इश्क़ के शाम ओ सहर
ख़ौफ़ के साये में डूबी आज हैं वो वादियाँ
इस धरा पर है कहीं जन्नत अगर तो है यहीं
कौन मानेगा इसे बिछड़ी जहाँ पर जोड़ियाँ
आयतें वह पढ़ न पाया वहशियों के सामने
दनदना-दन दाग दी उसके बदन में गोलियाँ
अश्क़ से भीगे नयन दिल में भरा आक्रोश है
देख उठती नौजवानों की घरों से अर्थियाँ
अब नहीं बाक़ी बची इंसानियत इस दौर में
देश को झुलसा रही हैं मज़हबी चिंगारियाँ
कायराना हरकतों पर खौलता है ख़ून भी
अब न बख़्शी जाएगी दुश्मन की ये ग़द्दारियाँ
चुप नहीं बैठेंगे हम अब सुन लो तुम आतंकियों
घर में घुसकर मारने की हमने कीं तैयारियाँ