जो महकती थी गुलों की ख़ुशबुओं से घाटियाँ

01-05-2025

जो महकती थी गुलों की ख़ुशबुओं से घाटियाँ

संगीता चौबे ‘पंखुड़ी’ (अंक: 276, मई प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

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जो महकती थी गुलों की ख़ुशबुओं से घाटियाँ
ख़ून से लथपथ पड़ी वो आज केसर क्यारियाँ
 
गूँजते नग़्में जहाँ थे इश्क़ के शाम ओ सहर
ख़ौफ़ के साये में डूबी आज हैं वो वादियाँ
 
इस धरा पर है कहीं जन्नत अगर तो है यहीं
कौन मानेगा इसे बिछड़ी जहाँ पर जोड़ियाँ
 
आयतें वह पढ़ न पाया वहशियों के सामने
दनदना-दन दाग दी उसके बदन में गोलियाँ
 
अश्क़ से भीगे नयन दिल में भरा आक्रोश है
देख उठती नौजवानों की घरों से अर्थियाँ
 
अब नहीं बाक़ी बची इंसानियत इस दौर में
देश को झुलसा रही हैं मज़हबी चिंगारियाँ
 
कायराना हरकतों पर खौलता है ख़ून भी
अब न बख़्शी जाएगी दुश्मन की ये ग़द्दारियाँ
 
चुप नहीं बैठेंगे हम अब सुन लो तुम आतंकियों
घर में घुसकर मारने की हमने कीं तैयारियाँ

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