जिसे नसीब ने बख्शा उसे गवां बैठे
पारुलजिसे नसीब ने बख्शा उसे गवां बैठे
बंद मुट्ठी से जैसे रेत फ़िसल जाती है
किसी ग़रीब की बाँधी हुयी अठन्नी ज्यों,
भीड़ के रेले में चुपचाप बिछ्ड़ जाती हैं
हाथ खाली हुए, धड़कनें बेमक़सद सी
ख़ाक उड़ती हुई पैरों से लिपट जाती है
अब कहाँ जायें, आवाज़ दें, पुकारें उसे
ख़ौफ़ ए रूसवाई है…तनहाई बढ़ी जाती है