जीवन एक बहती धारा . . .

15-04-2024

जीवन एक बहती धारा . . .

डॉ. जसविन्दर कौर बिन्द्रा (अंक: 251, अप्रैल द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)


समीक्षित पुस्तक: चलो फिर से शुरू करें (कहानी संग्रह)
लेखक: सुधा ओम ढींगरा
प्रकाशक: शिवना प्रकाशन, सीहोर, मप्र 466001
प्रकाशन वर्ष: 2024
 

लगातार साहित्य लेखन से जुड़ी सुधा ओम ढींगरा अपने नवीन कहानी संग्रह ‘चलो फिर से शुरू करें’ के साथ पाठकों के सम्मुख उपस्थित हुई हैं। लंबे समय से प्रवास में रहने के कारण सुधा जी के साहित्य में प्रवासी भारतीयों को मुखर रूप से देखा जा सकता है। उनसे जुड़े पारिवारिक रिश्तों व अन्य समस्याओं को कहानी के केंद्र में रखकर, भारत व प्रवासी संदर्भों के बीच पुल का काम भी करती हैं और पाठकों को वहाँ के परिवेश से परिचित भी करवाती हैं, जिनकी जानकारी हमें यहाँ बैठे नहीं होती। सामान्यतः भारतीयों को लगता है कि विदेशों और विशेषकर अमरीका में बसने वालों को भला कोई तक़लीफ़ या परेशानी कैसे हो सकती है!

‘वे अजनबी और गाड़ी का सफ़र’ कहानी हमें एक ऐसे विषय से अवगत करवाती है, जिसे अक़्सर फ़िल्मों व अंतर्राष्ट्रीय सीरियलों में देखा जाता है। दो भारतीय पत्रकार युवतियों ने एक चीनी युवती को यूरोपीय पुरुष के साथ रेलगाड़ी में जाते देखा परन्तु वह लड़की बहुत तक़लीफ़ में प्रतीत हो रही थी। उन दोनों युवतियों ने किस होशियारी व सर्तकता से उस लड़की को ड्रग माफ़िया से मुक्त करवाया, वह कहानी पढ़ने से ही पता लगता है। इस कहानी को केवल ‘एक्साइटिड’ करने या आज के दौर की सनसनीखेज़ घटना के तौर पर नहीं देखा जा सकता, क्योंकि वास्तव यह कहानी हमें अपने और अमरीकी तंत्र व पत्रकारिता के बीच के अंतर को दर्शाती है। वहाँ एक युवती पत्रकार के एक मैसेज पर सिक्योरिटी ऑफिसर्ज़ द्वारा ‘हयूमन ड्रग बॉम्ब’ के तहत उठायी जा रही उस चीनी लड़की को उस पूरे गैंग से मुक्त करवा लिया गया।

रेलगाड़ी अपनी गति से चलती रही, यात्री अपने-आप में व्यस्त बैठे रहे और एकदम सावधानी और सर्तकता से बिना कोई शोरगुल मचाए, हाय-तौबा किए, लड़की को बचा लिया गया, मैसेज करने वाली लड़की की तारीफ़ भी कर दी गई। यहाँ तक कि उसके अख़बार के मुख्य संपादक को उसका प्रशंसात्मक पत्र तक भिजवा दिया गया। भारत में हमने ऐसा कभी होते देखा है, इतनी सजगता, इतनी सर्तकता, बिना देर किए क़दम उठा लेना . . . ! वास्तव में ऐसी बातें यूरोपीय व अमरीकियों से सीखनी वाली हैं, गारंटी है, जो हम कभी नहीं सीख पाएँगे।

अंधविश्वास केवल एशिया व भारत में ही सर्वोपरि नहीं, बाहर के देश भी इसके प्रभाव से मुक्त नहीं। वहाँ भी ग्रामीण क्षेत्र हमारे समान ही पिछड़े हुए, कई प्रकार के दुरावों व पाप-पुण्य के बीच उलझे हुए हैं। इसी कारण जब अगाध सुंदरी डयू स्मिथ ने गौरव मुखी को अपने जीवन के काले अतीत के बारे में बताया तो एक बार वह यक़ीन न कर पाया। उसे यह जानकर अत्यन्त हैरानी हुई कि डयू के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ, जैसाकि किसी भी सुंदर लड़की को जवान होने पर बुरी नीयत और दुष्कर्म से गुज़रना पड़ सकता है परन्तु माँ-बाप ने अपने धर्माधिकारी के चरित्र पर संदेह न किए जाने के अपने रूढ़िवादी और अंधविश्वासी व्यवहार को निभाया। जबकि डयू उस दुष्कर्म के कारण एआईवी वायरस की लपेट में आ गयी। अपनी मेहनत व योग्यता के बल पर वह एक बड़ी कंपनी में उच्च पद पर पहुँच गयी, उसके पास सब कुछ था परन्तु उसकी सुंदर नीली आँखें उदास बेनूर थी, जिसके पीछे का रहस्य आज गौरव को समझ में आया था। इसलिए डयू उससे शादी नहीं करना चाहती थी क्योंकि वास्तविक जीवन में ऐसा करना संभव नहीं था। इस बीमारी का इलाज सारी उम्र करना पड़ता है। बाहर के देशों में ऐसी बीमारी के मरीज़ ज़्यादा है परन्तु इसके बाद भी वे जीवन में आगे बढ़ते हैं, समाज उन्हें उस प्रकार से नहीं दुत्कारता, जिस प्रकार का व्यवहार हमारे यहाँ परिवार व समाज द्वारा किया जाता है।

‘वह ज़िन्दा है . . .’ कहानी हस्पताल की उस वास्तविकता को दर्शाती है, जिसमें अल्ट्रासाउंड करने वाली नर्स कीमर्ली ने जब एकदम सपाट तरीक़े से गर्भवती कविता से कह दिया कि ‘मिसेज़ सिंह युअर बेबी इज़ डेड।’ ऐसा सुनते ही कविता के शरीर की गति वहीं रुक गई। फिर जो हुआ, वह बहुत ही दर्दनाक था। कविता के शरीर के गतिहीन हो जाने से मृत बच्चे को बहुत मुश्किल से उसके शरीर से बाहर निकाला गया। कविता की केवल साँसें से चल रही हैं जबकि वह अपना मानसिक संतुलन खो चुकी है क्योंकि दो बार गर्भपात हो जाने के बाद यह तीसरा मौक़ा ही उसे माँ बना सकता था परन्तु नर्स द्वारा बिना किसी भावनात्मक अंदाज़ के, प्यार या फुसला कर कहने की बजाय सच को पत्थर की तरह उसके दिल पर दे मारा। जिसे कमज़ोर कविता सहन नहीं कर पायी। पति के कार को पार्क करके वापस आने तक के कुछ मिनटों में ही उस दंपत्ति की ज़िदगी उजड़ गयी। अब पति हस्पताल के मैनेजमेंट से मानवता की लड़ाई लड़ रहा है । उसका तर्क बस इतना ही है कि ‘वह सच बोलने के ख़िलाफ़ नहीं पर सच को बोला कैसे जाए!’ यह बात विदेशियों को हमसे सीखने की आवश्यकता है। कई बार भावनात्मक स्तर को सँभालने के लिए झूठ का सहारा भी लिया जा सकता है या उसे टाला जा सकता है। वास्तव में लेखिका दो भिन्न परिवेशों व परिस्थितियों को उनके दृष्टिकोणों द्वारा अपनी कहानियों के माध्यम से प्रस्तुत करती है। इसे तुलना न भी कहा जाए तब भी लगता है, अच्छी बात, अच्छी सलाह जहाँ से भी मिले, उसे सीख लेने में कोई बुराई नहीं। इससे आगे बढ़ने में मदद मिलती है।

‘भूल-भुलैया’ भी कुछ इसी प्रकार के अंतर को बयान करती है। भारतीयों के वट्सएप ग्रुपों में लगातार इस प्रकार संदेश आ रहे थे कि एशियाई लोगों को अकेले-दुकेले देख कर, अगवा कर लिया जाता है और उन्हें मॉल्स के बड़े ट्रकों में उठा ले जाकर, उनके मानवीय अंग निकाल लिए जाते है। इन संदेशों से घबरायी सुरभि ने जॉगिग करते हुए एक पार्क में उसका पीछा करते एक पुरुष-स्त्री को उसी गैंग का समझ लिया और अपने बचाव के लिए पुलिस को फोन कर दिया। पुलिस ने आकर उसकी ग़लतफ़हमी दूर की कि ये सारी अफ़वाहें हैं और वे स्त्री-पुरुष उसकी सहायता के लिए उसके साथ-साथ आ रहे थे। जिस घटना के कारण ऐसी अफ़वाहें फैलने लगी, वह एक ग़लती के कारण घटी और तभी ख़त्म भी हो गई परन्तु उस एशियन महिला ने बात का बतंगड़ बना कर, अटेंशन लेने के लिए कुछ का कुछ बना दिया। यह कहानी केवल विदेशों में ही नहीं, कहीं भी रहते हुए ऐसे फैलने वाले और फ़ॉरवर्ड किए जाने वाले संदेशों से सतर्क करती है। जिस डिज़ीटल मीडिया की सुख-सुविधा ने हमारा जीवन आसान किया है, उस पर बढ़ती निर्भरता हमें बेआराम करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही।

भावनात्मक स्तर की बात करें तो संग्रह की बहुत सारी कहानियों में इसे प्रमुखता से देखा जा सकता है, जिसमें भारतीय पारिवारिक मूल्यों की अधिकता समायी हुई है।

‘कभी देर नहीं होती’ में ददिहाल के लाडले नंदी को माँ और ननिहाल के प्रभाव में आनंद में बदलना पड़ा। ननिहाल की चालाकी और तेज़-तर्रार भरे व्यवहार के कारण आनंद और उसके छोटे भाई को बचपन से ही दादा-दादी के प्यार व ममत्व भरे माहौल से दूर होना पड़ा। सब कुछ समझने के बावजूद उसके पापा ने मम्मी और ननिहाल के आगे चुप्पी साध ली ताकि बच्चों की परवरिश पर कोई बुरा असर न पड़े। जब इतने वर्षों के बाद अमरीका के एक शहर में रहते हुए उसकी बुआ ने ‘नंदी’ कह कर पुकारा, तो वह इतने वर्षों के लंबे अंतराल के बाद उसी माहौल व अपनेपन से भर उठा। अंग्रेज़ी के दो शब्द हैं, जो संबंधों के लिए प्रयोग किए जाते हैं ‘कनेक्ट’ होना और ‘रिलेशन’ होना। परन्तु हम जानते हैं कि हर शब्द का अपना लहज़ा, टोन व संदर्भ तो होता ही है, उसकी अनुभूति भी अलग होती है। यहाँ कनेक्शन से अर्थ, संस्कारों से, भावनाओं से, अपने मूल से जुड़ा होना है, जिसमें वर्षों की दूरी भी कोई अर्थ नहीं रखती जबकि दूसरी ओर रिलेशनशिप में संबंध तब तक रहेगा, जब तक आप चाहें . . .! इसलिए रिश्तों में कनेक्शन होना चाहिए, रिलेशनशिप तो आती-जाती चीज़ है।

ऐसा ही कुछ ‘चलो फिर से शुरू करें’ शीर्षक कहानी में भी देखा जा सकता है। विदेशी महिला से विवाह कर पुत्र माँ-बाप से अलग हो गया। माँ-बाप ने भी उसकी गृहस्थी में दख़ल देना ठीक न समझ, उससे दूरी बनाना उचित समझा। परन्तु जब उन्हें किसी परिचित द्वारा मालूम हुआ कि मार्था, कुशल को तलाक़ देकर, बच्चों को उसके पास छोड़ कर चली गई। इतना ही नहीं, वह उसके नाम पर तीन मिलियन का कर्ज़ ले, अपनी माँ के साथ चली गयी। यदि कुशल श्वेत अमेरिकन होता तो मार्था बच्चे साथ ले जाती परन्तु भारतीय अमेरिकन पिता के बच्चों को वह कभी स्वीकार नहीं करेगी। ऐसी मुश्किल स्थिति में कुशल को भुला दिए गए माँ-बाप ही याद आए क्योंकि उसे मालूम था कि उसके माँ-बाप ने उसे कभी भुलाया नहीं होगा। इसलिए उसने अपने पिता को फोन किया और उनके पास अपने बच्चों को छोड़ कर, जीवन में एक नयी शुरूआत करने का संकल्प लिया।

कॉलेज जीवन में ऐसे कई मित्र मिलते हैं, जिनसे सारी उम्र का नाता बन जाता है और कई बार ऐसी कुछ घटनाएँ भी घट जाती हैं, जिसकी कड़वाहट जीवन में घुल कर, परिवार को भी बदनाम कर देती है। ‘कँटीली झाड़ी’ में डिप्टी कमिश्नर की बेटी होने के घमंड में खोयी अनुभा ने कॉलेज में अपना रौब बनाए रखा। परन्तु जब उससे अधिक योग्य और सुंदर नेहा पर उसका यह रौब न चला तो उसने नेहा को बदनाम करने की कोशिश की। यहाँ तक कि शादी के बाद किसी परिचित के घर पर मिलने पर, अनुभा ने फिर से नेहा के ड्राईवर के साथ घर से भाग जाने की बात फैला कर, ससुराल में उसकी बदनामी करनी चाही। तब नेहा ने सभी को उसकी सारी सच्चाई से अवगत करवाया कि यह उसी के साथ घटा था। नेहा को समझ आ गया कि कुछ लोग इतने विषैले व काँटों भरे होते हैं कि उनसे न केवल बच कर रहना चाहिए बल्कि उन्हें उनकी औक़ात भी बता देनी चाहिए ताकि उनके ख़तरनाक कारनामों पर लगाम लग सके। इसी प्रकार कई बार पूजा व दीपक जैसे मित्र भी होते हैं, जिनकी शुरूआत लड़ाई से हुई हो परन्तु एक-दूसरे के संपर्क में आने और ग़लतफ़हमी दूर होने से दोनों ही एक-दूसरे के मददगार साबित हुए। परन्तु जीवन के लंबे समय में मित्र खो भी जाते हैं, फिर ऐसी स्थिति आ जाती है, जब ‘कल हम कहाँ तुम कहाँ‘। कोई कहीं भी रहें, मीठी याद बन कर अवश्य दिल में समाए रहते हैं। मन क्या है, इसका चेतन/अवचेतन उसे कहाँ से कहाँ पहुँचा सकता है। सदियों से इसे जानने-समझने की कोशिश धर्मग्रंथों, शास्त्रों व फिलॉसफी द्वारा की जा रही है। कई बार निकट के संबंधों को व्यक्ति सारी उम्र समझ नहीं पाता और कई बार दूर-देश में बैठे अपने बच्चों की दुख-तक़लीफ़ को माँ-बाप अपने घर में बैठे महसूस कर, तड़पने लगते हैं। कई लोग, अपनों के अलावा दूसरों के दुख-दर्द या किसी आने वाले अनिष्ट को भाँप लेते हैं। यह सब अबूझ पहेली समान है, जिसकी थाह पाना संभव नहीं, उस व्यक्ति के लिए भी नहीं, जिसे कुछ अप्रिय घटने का अंदेशा होने लगता है। माना जाता है कि सारा ब्रह्यांड एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है, इससे बाहर कुछ भी नहीं। इसलिए प्रकृति में कुछ भी घटने का भास, विशेषकर अप्रिय व दुखद घटने का एहसास संसार के कुछ जीवों को होने लगता है। कुछेक मनुष्यों को ऐसी अनुभूतियों का एहसास होना उनके अपने बूते की बात नहीं होती मगर कभी-कभार ऐसा होता है। ऐसी अनुभूतियों को लेकर दो कहानियाँ इस संग्रह में शामिल है। ‘इस पार से उस पार’ में सांची को ऐसा कुछ का एहसास अपने बचपन से ही होने लगा। उसने जब अपने परिवार व गली-मुहल्ले में एक-दो घटनाओं के बारे में घटने से पहले ही बता दिया परन्तु उसके परिवार वालों ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। बल्कि उसकी इस अनुभूति को हमेशा के लिए दबा देने की कोशिश की। बरसों बाद उसने फिर एक बार अपनी सखी अनुघा को फलां समय पर सड़क पार करने से चेतावनी देकर उसे बचा लिया। 

‘अबूझ पहेली’ नामक कहानी की मुक्ता धीर को 9/11 के हवाई जहाज़ हादसे के दृश्य कुछ दिन पहले से ही नज़र आने लगे थे। उसे बार-बार दिखायी दे रहे इस दृश्य की समझ नहीं आ रही थी। परन्तु उसका तन-मन उदास, क्लांत और निर्जीव महसूस कर रहा था। अपने पति व बेटे को बता देने के बावजूद, उसे स्वयं पर भी यक़ीन हो रहा था। परन्तु वर्ल्ड ट्रेड सेंटर का हादसा सच में घट गया, उसके पति व बेटे को उसकी बात पर यक़ीन आ गया । परन्तु इतने बरसों बाद भी मुक्ता स्वयं इस पहेली को बूझ नहीं पायी कि उसे वे दृश्य कुछ दिन पहले कैसे दिखायी देने लगे थे। वास्तव में मनुष्य विज्ञान, मेडिकल, अंतरिक्ष व तकनीकी स्तर पर कितनी भी प्रगति कर लें, प्रकृति और मन के बहुत सारे रहस्यों को समझ पाना अभी भी उसके वश की बात नहीं है।

सुधा ओम ढींगरा की सारी ही कहानियाँ उसके शीर्षक ‘चलो फिर से शुरू करें’ को ही सार्थक करती हैं। मानवीय जीवन उतार-चढ़ाव का ही नाम है। इसमें हिम्मत रखकर, डट कर चलने वाले ही जीवन की बहती धारा को पार सकते हैं।

जसविन्दर कौर बिन्द्रा,
नई दिल्ली- 110048
ईमेल- jasvinderkaurbindra@gmail.com 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

पुस्तक समीक्षा
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में