जब से उम्र ढली है मेरी
प्रदीप कुमार त्रिपाठी(वृद्धावस्था की व्यथा पर मेरा एक गीत)
झूल रहे क़ब्ज़ों पर आधे
आधे घिसट रहे अपने बल
सहमे उम्र ढले दरवाज़े
मुठ्ठी भर लाएगा क्या? कल
जिन रिश्तों से कसे हुए थे
कीलों से जो धँसे हुए थे
मज़बूती से अंदर-अंदर
ख़ुद से ही पकड़े-जकड़े थे
जब से उम्र ढली क्या मेरी
नातों की ढीली है सांकल
हर मौसम को आते जाते
सहा सर्द, गर्मी, बरसातें
आँगन से डयोढ़ी की दूरी
घर में सबको रहा बताते
जब से उम्र ढली क्या मेरी
खिसक रहा पैरों का है थल
संवेदन की वंदनमाला
भावों की बिखरी रंगोली
कोमल पैर धरे सीने पर
अब जूतों की ठोकर झेली
जब से उम्र ढली क्या मेरी
सूख गया आँखों का है जल
जीवन के झंझावातों में
सुख-दुख संघर्षों के मेले
परछाईं ने लुकाछिपी के
अक़्सर, खेल अनोखे खेले
जब से उम्र ढली क्या मेरी
तब से वक़्त रहा मुझको छल