इति दुविधा कथा: भारतीय मध्यवर्ग के संघर्ष व अंतर्द्वंद्व की बहुरंगी कथाएँ

15-08-2024

इति दुविधा कथा: भारतीय मध्यवर्ग के संघर्ष व अंतर्द्वंद्व की बहुरंगी कथाएँ

डॉ. नवीन सिंह (अंक: 259, अगस्त द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

समीक्ष्य पुस्तक: इति दुविधा कथा (कहानी संग्रह)
लेखक: प्रीतीश आचार्य
प्रकाशक: रोशनाई प्रकाशन, दरियागंज दिल्ली। 
मूल्य: ₹100/-

कहानी समय के वैविध्यमय कथाबिंदुओं का अर्थपूर्ण संयोग है। यह अर्थपूर्ण संयोग तभी सम्भव है जब मनुष्य के जीवन की सूक्ष्मताओं को उसकी गहराई में उतरकर ढूँढ़ा जाता है। भारतीय समाज के वर्तमान को रचने में मध्यवर्ग का बहुत बड़ा हाथ है। उच्च वर्ग और निम्न वर्ग की तुलना में मध्यवर्ग का दृष्टिकोण सामाजिक मूल्यों और मान्यताओं को निश्चित करता है। उच्च वर्ग सत्ता और समृद्धि के बल पर किसी भी मूल्य एवं मान्यता का निषेध करता है। निम्न वर्ग भी मूल्यों के निर्माण की सीमा से परे है। क्योंकि उसके लिए ज़िन्दा रहना ही सबसे बड़ा सवाल है। आज भारत की सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में मध्यवर्गीय आचार–विचार, मूल्य एवं दृष्टिकोण से बनी मध्यवर्गीय संस्कृति का स्पंदन भरा पड़ा है, जिसे ‘इति दुविधा कथा’ में संकलित कहानियों में सघनता के साथ महसूस किया जा सकता है। 

‘इति दुविधा कथा’ कहानी-संग्रह कथाकार प्रीतीश आचार्य की मूल रूप से ओड़िया भाषा में लिखित प्रतिनिधि कहानियों का हिंदी अनुवाद है, जिसमें ओड़िया जीवन और समाज अपनी पूरी जीवंतता के साथ उपस्थित है। फिर भी उनकी कहानियों में जिस मध्यवर्ग व लघु समाज से हमारा परिचय होता है वह भाषा की परिधि को लाँघते हुए व्यापक भारतीय मध्यवर्ग की संवेदनाओं को दर्शाता है। चूँकि मध्य वर्ग के मन में आधुनिक मनुष्य और आधुनिक समाज की छवियों के प्रति सहज आकर्षण है। लेकिन उसके लिए अतीत से मुक्त हो पाना भी आसान नहीं था। वह अतीत के प्रशंसा लायक़ तत्त्वों को अपनाकर आलोचक तत्त्वों का त्याग कर सकता था। लेकिन मध्यवर्ग का एक औसत व्यक्ति इस बौद्धिक बारीक़ी को न पकड़ सका। वह आधुनिकता को अस्पष्ट रूप में ही ग्रहण कर सका है। फलतः वह एक खंडित मानसिकता का शिकार होता गया। सार्वजनिक जीवन में भले ही वह आधुनिकता के तत्त्वों को स्वीकार करता रहा पर निजी जीवन में इस अनुमोदन के ख़िलाफ़ था। इसीलिए लघु समाज के चरित्रों में जो अंतर्विरोध या खंडित मानसिकता से उत्पन्न दुविधा की स्थिति है, वह पात्रों के प्रतिनिधि प्रवृत्ति बनकर कहानी-संग्रह के शीर्षक का स्थान ले पायी है। 

बाल मन बड़ा ही भावुक और संवेदनशील होता है। इस अवस्था में उसकी अपनी काल्पनिक दुनिया होती है जो यथार्थ से कहीं दूर होती है। उसका काल्पनिक संसार बड़ा ही जादुई, रोमांचक और इंद्रधनुषी होता है। बाल मन सदैव इस जादुई आकर्षण के पीछे मतवाला रहता है। बाल मन कोरी स्लेट की तरह होता है। उन्हें जैसी शिक्षा दी जाती है, जैसे संस्कार दिए जाते हैं, जैसा परिवेश मिलता है, वे उसी रूप में ढल जाते हैं। बालमन को समझना और उसकी कल्पनाओं के साथ उड़ान भर पाना एक वयस्क के लिए सम्भव नहीं है। यह तभी सम्भव है जब वह अपने भीतर एक बालमन सँजोए हुए है। कहानीकार की संवेदनशीलता का वितान इतना बड़ा है कि वह प्रौढ़ता से बाल्यावस्था की आवाजाही निर्बाध रूप से करता रहता है। 

मोटर, चिट्ठी पर्व, टिफ़िन का डिब्बा और ठंडी बर्फ़ जैसी कहानियाँ बाल मन की सूक्ष्म व कोमल परतों को बहुत ही रोचक तरीक़े से खोलती हुई चित्रित करती हैं। मोटर कहानी में गबरू का ये कथन बच्चों की कोमल भावनाओं और निर्मल सोच और बाल मोनोविज्ञान का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करती है—“गबरू ने अब एकांत देखकर, फिर एक बार ड्राइवर की गद्देदार सीट पर उछल कूद मचाई। और सोचा–गड्ढे और चट्टान का तो पता ही न लगता होगा इस पर। सीट को घर ले जाएँ तो कितना अच्छा हो। सोते समय तकिया बन जायेगा और खाते समय पीढ़ा पर फिर सोचा–‘बाप रे! ड्राइवर तो मार डालेगा’।” ये कहानियाँ भारतीय गाँवों में बसने वाले करोड़ों लोगों की जीवन शैली को दर्शाती हैं और छोटी-छोटी आँखों में पलने वाले सुनहरे सपनों की पहचान कराती हैं। बच्चों के निश्छल व पवित्र मन के भीतर उठने वाले अनोखे सवाल एक तरफ़ पाठक को गुदगुदाते हैं और दूसरी तरफ़ सोचने पर भी मजबूर कर देते हैं। 

शिक्षा-साहित्य जगत, सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार व शिक्षकों, बुद्धिजीवियों के चरित्र और उनकी चिंता को लेकर जिस बेबाकी व ईमानदारी से कहानीकार ने चित्रण किया है वह एक संवेदनशील पाठक के मन को आंदोलित करके रख देती है। ऐसा करने के लिए कहानीकार ने व्यंग्य का सहारा लिया है। उनकी ईमानदारी इस बात से भी प्रमाणित होती है कि वह कई कहानियों को आत्मकथ्य की शैली में बुनते हैं, जिसमें वे स्वयं की भी कमज़ोरियों पर व्यंग्य करते हैं जो अंततः मानवीय कमज़ोरियों का परिचायक हैं। सेमिनार कहानी में कथाकार की टिप्पणी व्यवस्था की पोल खोलने के लिए काफ़ी है—“लंच के कारण और उसके बाद सेमिनार की सफलता को लेकर किसी के मन में कोई संदेह नहीं रह था।” कथाकार प्रो. आचार्य स्वयं भी एक पात्र की भाँति उपस्थित होकर अपनी कमियों पर व्यंग्य करते हैं जिससे पाठक को यह विश्वास होता चलता है कि दूसरों की आलोचना करने का अधिकारी वही है जो स्वयं की भी आलोचना सुनने का साहस रखता हो। उनकी यह चिंता स्कूल, सेमिनार, पुरस्कार और प्लाट का गच्चा इत्यादि कहानियों में स्पष्ट दिखाई देती है। 

कथाकार पी. सी. आचार्य एक इतिहासकार के रूप में कई दशकों से शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय हैं। इतिहासकार की दृष्टि तथ्यों पर अधिक होती है। इतिहास को तथ्यों की व्याख्या के रूप में स्वीकार किया जाता है किन्तु साहित्य में तथ्य के बजाय संवेदनाओं को सहेजा जाता है। प्रो. आचार्य की कहानियों को पढ़ते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि अपनी कहानियों में भी वह इतिहास लिख रहे हैं पर अंतर यह है कि इसमें वे संवेदनाओं का इतिहास लिख रहे हैं। ये संवेदनाएँ जो कालजीवी हैं और चिरकाल तक मानव मन को प्रभावित करते रहने की सामर्थ्य लिए हुए हैं। कुड़िम, परोमा, कलेक्टर की दोस्ती, क़ैदी एक जेल का, उग्रवादी, पेंशन का काग़ज़, स्वाँग जा सच इत्यादि कहानियाँ बहुरंगी संवेदनाओं को समेटे हुए हैं। पाटपुर चौक कहानी 84 के दंगों पर आधारित कहानी है जो एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ की तरह पाठक के हृदय में संरक्षित हो जाती है। 

अंततः यह कहा जा सकता है कि ये कहानियाँ गहन जीवन बोध का एक रचनात्मक पुंज है। सामाजिक संपृक्ति ही उनकी कहानियों की पहचान है। शिक्षा के क्षेत्र में कई दशकों से सक्रिय कहानीकार निजी अनुभवों से उपजे गहरे असंतोष और आक्रोश, व्यवस्था के भ्रष्ट स्वरूप को उसकी सूक्ष्मताओं में व्यक्त किया है। इन कहानियों के माध्यम से कथाकार आत्म-समीक्षा के बहाने समाज-समीक्षा व समाज-समीक्षा के बहाने आत्म-समीक्षा करता हुआ पाठकों को निरंतर चैतन्य बनाये रखता है। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें