होने के अनगिनत मायनों को रेखांकित करती आरती स्मित की कविताएँ

01-01-2023

होने के अनगिनत मायनों को रेखांकित करती आरती स्मित की कविताएँ

स्व. डॉ. नरेन्द्र मोहन (अंक: 220, जनवरी प्रथम, 2023 में प्रकाशित)


पुस्तक: मायने होने के (कविता संग्रह) 
लेखिका: डॉ.आरती स्मित
प्रकाशक: वर्जिन साहित्यपीठ, दिल्ली 
पृष्ठ: 145
मूल्य:₹ 170 

प्रिय डॉ. आरती स्मित, सुमन घई जी, मंजुश्री राव। 

कविताओं के लिए बधाई आरती स्मित को . . . यह उनका चौथा कविता संग्रह है जो इस बात का गवाह है कि वे निरंतर लिख रही हैं। यह निरंतरता उन्हें हमेशा जोड़े रखती है . . . अपने समय से/परिस्थितियों से जूझना सिखाती है और यह जूझना उनके काव्य-मुहावरे की पहचान बन गया है। बेहद व्यक्तिगत तनावों, संतापों से वे इधर तक के सामाजिक, राजनीतिक सरोकार के साथ शिद्दत से जुड़ी हैं जो उनकी समग्र दृष्टि की परिचायक है। 

बातचीत का प्रारंभ मैं संग्रह की तीन कविताओं के साथ करना चाहता हूँ। ये हैं—‘सलीब पर’ (पृष्ठ 35), ‘मुझसे मेरा होना’ (पृष्ठ 53) और ‘पेंटिंग में कविता’ (पृष्ठ 85) 

1. ‘सलीब पर’

खूँटी पर टँगा है कुरता 
या टँगे हैं पिता 
सलीब पर? 
ज़िम्मेदारियों की कील से ठुके
लटके हैं वर्षों से
और
गर्व से तनी गरदन
झूलने लगी है धीरे-धीरे . . . 

झूलती बाँहों की परछाईं
गाथा सुनाती है
काँधे पर लदे
बेहिसाब दबाव का
और
हवा में लहराता हिस्सा
चिंद-चिंद होते 
तन-मन का

कुरता
पिता की यादों से लिपटा
उनकी देह-गंध समोए
उनके संघर्ष और 
जीवन की त्रासदी की 
अकथ कथा बाँचता
झूल रहा है . . . 

दिख रहे हैं पिता
झूलते हुए
सलीब पर . . .।  


2. मुझसे मेरा होना

शून्य में तकता हूँ अपलक 
एक रोशनी कौंध जाती है
कुछ डोर रंग-बिरंगी झूलती हैं
और ले लेती हैं मुझे
अपने तिलिस्मी घेरे में। 

तिलिस्म से बँधा
मैं प्रवेश कर जाता हूँ
रंगभरी रोशनी की दुनिया में

डोर मुझे बेड़ियाँ नहीं लगतीं
कि झटक दूँ उन्हें
और मुक्त हो जाऊँ 
डोर का कसाव मुझे छिलता नहीं 
उसकी रुमानियत मेरी रगों में
संवेदना बहाती है 
उसकी रेशमी छुअन
मुझमें 
मेरे होने का एहसास जगाती है। 

मैं लौटना चाहता हूँ 
शून्य की निःशब्द दुनिया से 
उस रोशनी से . . . 
उस डोर के प्रेमिल बँध से
 . . . 
अपनी स्मृतियों के मज़बूत घेरे से
पर, डरता हूँ 
 . . .
जानता हूँ
 कि
खो जाएगा 
मुझसे मेरा होना . . .।

 

3. पेंटिंग में कविता

रेखाएँ रंग पहले से हैं 
एक पेटिंग का तसव्वुर करता हूँ
और उतर आती है कविता
कैनवस पर
हरीतिमा में लिपटी वनकन्या-सी
रंगों से सराबोर! 

मैं हैरान हूँ
पेटिंग में कविता
या कविता में पेटिंग? 
वह दोनों है 
वह दोनों नहीं है? 

मैं एक बार फिर
निहारता हूँ, टटोलता हूँ
 . . . पाता हूँ 
ख़ाली कैनवस पर बिखरे
अनगिन स्मृति रेखाचित्र! 
चित्रों की रेखाएँ
हर्फ़ों की रेखाएँ
कितनी अलग! 
 कितनी सुमिलित!! 

मैं अब भी हैरान हूँ
ढूँढ़ रहा उस वनकन्या को
पर वहाँ कोई नहीं/ कुछ भी नहीं
तो क्या 
वह कोई नहीं थी? 
 . . . कहीं नहीं थी? 
मेरे तसव्वुर के सिवा!! 

कविताओं का पाठ मैंने इसलिए किया है ताकि आप जान लें कि ये कविताएँ एक तरह से साधी गई हैं। सायास नहीं हैं, आवेगधर्मी हैं। कवयित्री के लिए ये कविताएँ मुक्ति-विमुक्ति का साधन है—न निरी बौद्धिकता, न निरी संवेदना। आत्मीयता के साथ जब ये एक वेवलेंथ पर आ गईं तो कविता बन गईं। यह तरीक़ा बौद्धिकता और भावुकता को संतुलित करता गया है। 

दुविधा और संकट में पड़े हुए कवि के अनुभव और प्रश्न, अनुभव और विचार, जीवन मूल्य काव्यानुभूति की पड़ताल के लिए ज़रूरी हैं। 

कविता की प्रस्तुति छह खंडों में: 

  1. ख़ामोशी और दर्द के बीच

  2. मायने होने के 

  3. शब्द बन गए चित्र 

  4. सम्बन्ध के नए चेहरे 

  5. विसंगति

  6. चीख और दहाड़ के बीच 

‘ख़ामोशी और दर्द के बीच’ की कविताएँ बेहद मार्मिक हैं। वह गूँध रही ख़ुशियाँ और सपने माँ पर सर्वश्रेष्ठ कविता है। माँ और पिता के मार्मिक बिंब उभरे हैं। ऊपर से सरल लगती हैं, मगर बहुत मुश्किल है ऐसी कविताएँ लिख पाना-ओ पिता, सलीब पर, मेरा आसमान। ‘मेरा आसमान’ कविता में मेरा पिता और मेरा आसमान एक हो गए हैं। ‘मेरा आसमान’ लंबी कविता है। उसकी बीच-बीच की पंक्तियों में गूँथा बिंब देखें–

मैं 
पास बैठी सुनती रहती 
उसके भीतर उमड़ते-घुमड़ते 
बादलों की आवाजाही 
 . . .

मैं महसूस रही थी
समुद्र में उफनती
व्यथा का उद्दाम आवेग 

मेरी हथेली पर 
हथेली रखी उसने
और खुलती गई थी राह 
खुलते गए थे द्वार कई 
उघरते गए थे सवाल 
परत-दर-परत 
 . . . 
मौन की ताक़त तब
 मैंने जानी थी 
 . . .
ब्लैक होल से बचकर 
निकल आने की 
भरपूर कोशिश की थी उसने 
 . . . फिर सिर उठाया था 
 . . .

उसके पास थीं 
सपनों की अनछुई पंखुड़ियाँ 
उम्मीदों की दो-चार लड़ियाँ 
और राख हो चुके विश्वास के भीतर 
 ज़िंदा होती आस्था 
 फ़िनिक्स की तरह 
 . . . . 
 शोर थम चुका है 
 और 
 मेरी तलाश भी 

 मेरे भीतर 
 मुस्कुरा रहा है वह . . . 
 मेरा पिता 
 मेरा आसमान! 

 इसी तरह, “मासूम पल’ की कुछ पंक्तियाँ:

 पिता! 
 तुम ही तो बालसंगी थे मेरे 
 . . . . . .। 
 उम्र के पड़ावों ने समझाया था अर्थ 
 तुम्हारे होने का 

 उन लम्हों को 
 जब जिया करते थे तुम 
 अपना बचपन 
 . . . मुझमें 

 आज
 जब तुम अस्ताचल की ओट में हो 
 सिखा रहे हो 
 पिता होने के सही मायने 

 ‘सलीब पर’ कविता– बिंब /प्रतीक और तटस्थ प्रेम! कठिन है ऐसा कवि कर्म!’

‘छड़ी’ की पंक्तियाँ–

डूबती आँखों में तैरती है 
छड़ी 
 . . . 
छड़ी के बहाने 
तुम सौंप रहे थे 
स्पर्श की अनुभूति 
आजीवन साथ का भरोसा 

इन कविताओं में एक तरफ़ अपने होने की भाववादी व्याख्या है, दूसरी तरफ़ सामाजिक विसंगतियाँ हैं; आर्थिक अँधेरा है–सम्बन्धों की पुरानी व्याख्याएँ हों या नई, ये दो ही रास्ते हैं-सम्बन्धों में अपने होने के, पाने के। 

इसी खंड में साहचर्य में लिपटी हुईं कविताएँ हैं—‘माँ की अलमारी’ खुलते ही ‘याद आती है माँ’, ‘मुस्कुराने लगते हैं पिता’। 

 ‘मुस्कुराने लगे हैं पिता’ की कुछ पंक्तियाँ:

 एक बार फिर 
 वे खिलने लगे हैं 
 खुलने लगी हैं पंखुरियाँ 
 . . . नन्हा शिशु
 चहकने लगा है
 झुर्रियों के बीच 

चित्र बन गए शब्द: शब्द चित्र खंड के अंतर्गत अलग ढंग की कविताएँ हैं। यहाँ शब्दों में चित्र आ गए हैं, चित्रों में शब्द—मैं रंगों लकीरों में ढूँढ़ता रहा शब्दों के मायने (चित्र बन गए शब्द, पृष्ठ ८०), इसी प्रकार, “एक लकीर कैनवस पर’, “पेंटिंग में कविता’, “शब्द की पंखुरी’, “कविता’ आदि कविताओं की व्याख्या नहीं की जा सकती, सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है। 

सम्बन्ध के नए चेहरे खंड की कविताओं ‘औचक ही’, “अनुभूति के वेवलेंथ पर’ और ‘सम्बन्ध’ में प्रेम के अनूठे बिंब उभरे हैं। ‘औचक ही’ में वेदना की गहराइयों की अनुभूति कराती कुछ पंक्तियाँ देखें:

औचक ही नज़र आता है 
डोली और अर्थी का रिश्ता 
औचक ही टूटती है डोरी 
खुलती जाती है गठरी 
और बिखरते जाते हैं पल 
सँजोए हुए 

और इस गर्त में से प्रेम और आनंद का बिंब उभरता है। कविता की अंतिम पंक्तियाँ:

तब शून्य को बिलोते हुए 
औचक ही मिलते हो तुम 
पोर पोर ऊर्जा से भरे हुए 
और औचक ही पा लेती हूँ 
मक़सद ज़िन्दगी का . . . (पृष्ठ १०५) 

‘अनुभूति के वेवलेंथ पर’ की कुछ ख़ास पंक्तियाँ:

कुछ तो था 
जो बीतता था भीतर 
कुछ तो था 
जो रीतता था भीतर 
बीतने और रीतने की गहन अनुभूति 
चस्पां थीं दोनों में 
बराबर-बराबर 

‘कैनवस पर’ तंगहाली का अँधेरा है। मछुआरे, मल्लाह, आदिवासी वेदना की गहराइयों के साथ अनूठे बिंब हैं। कविता की अंतिम पंक्तियाँ:

धूप सिहरती है 
जब देखती है . . . 
कैनवस पर फैला 
तंगहाली का अँधेरा! 

विसंगति के अंतर्गत पारिवारिक संस्था का ग़ायब हो जाना, मानवीय संवेदना का हनन, सामाजिक, भावनात्मक विसंगतियों का लेखा-जोखा है। कविता ‘अँधेरे के हवाले’ की ओर आपका ध्यान तो अवश्य गया होगा—घर तो कब के मर चुके . . . व्यंग्य की मार करता प्रहसन! यह एक संवेदनात्मक कथन है, पर साथ में घर की खोज भी है। घर का खो जाना मूलहीनता की चरम अवस्था है। मकानों से आँगन-ओसारा ग़ायब होने की पीड़ा घर में विचरती संवेदना के लोप की पीड़ा है। घर की खोज केंद्र में है, चाहे वह घर की चौखट से बाहर दूसरा घर, या अस्मिता की तलाश में निकली लड़की का मुक्ति द्वार तक आ जाना हो। इसे आप घर से निकलकर घर की तलाश भी कह सकते हैं। ‘पेड़ और परिंदा’ में ख़ामोश घर, परिवार की दो पीढ़ियों के विलगाव और वृद्धाश्रम के विस्तार में गूँथे वृद्ध जीवन में उतर आए सन्नाटे की धमक सुनाई पड़ती है। ‘कहर’ सामाजिक विसंगतियों पर प्रश्न खड़े करता पाठ है तो ‘हादसा नहीं लगता’ वर्तमान सामाजिक स्थितियों पर मानव मनोविज्ञान की पड़ताल करती कविता है। अंतिम पंक्तियाँ:

शहर टिका रहता है 
बेतरतीब ध्वनियों के बीच 
मगर 
इन हादसों की ख़बर 
उसे भी नहीं होती! 

‘मूल्य’ कविता बढ़ते शहरी जंगलों के कारण बेघर होते पशु-पक्षियों की व्यथा-कथा मात्र नहीं, विस्थापन के संकट से जूझती जातियों, बंदिशों में जकड़ी साँसों की स्वाधीनता के मूल्य की स्थापना का बिंब प्रस्तुत करती रचना है। 

चीख और दहाड़ के बीच . . . ‘दौर चुप्पी का’, ‘कैनवस के बाहर का सच’, ‘नए मित्र’ आदिवासी यातना और अमानवीयता का संदर्भ देता है। ‘वह सोच रहा है’ होने के मायने के आदिवासी संदर्भ से संबद्ध है। ‘दौर चुप्पी का’ में विभाजन एवं विस्थापन के अनासिक्त बिंब हैं। पंक्तियाँ देखें:

विस्थापन की पीड़ा झेलते 
हम कौन? 
गोंडवाना के मूलनिवासी 
आदिम कथा के जीवित पात्र 
हम कौन? 
क्या दें जवाब दिकुओं को . . . 
कहाँ से लाएँ काग़ज़ी प्रमाण? 

हाशिये पर झूलते 
घुटे कंठों की चीख 
गूँज रही निरंतर . . . 
हम कौन 
जिनकी रात कभी ख़त्म नहीं होती 
अक़्सर दब जाती है चीख 
भूख/प्यास/गरीबी
और 
अशिक्षा के काले चट्टानों तले 
या 
दबा दी जाती है 
सभ्यता की आधुनिक दहाड़ से

‘कैनवस के बाहर का सच’ की कुछ स्वतंत्र पंक्तियाँ:

चट्टान पर अडिग खड़ी 
 . . . 
हहाकर ढलती धड़कती
मोटी जलधार सिर पर तोलती 
भीतर-बाहर रस भरती 
वह शोख 

 . . . 
 . . . बिखेर दे रंग 
अमरकंटक की पहाड़ियों में 
 . . . 
घुटते आदिम जीवन में 
कि 
 . . .
उड़ने लगे हैं पहाड़ वहाँ रातों रात 
और बदलने लगे हैं बुरादों में 
 . . . . . .

‘नए मित्र’ दो हिस्सों में बँटे आदिवासियों के जीवन, उनकी समझ, घर के भीतर से और बाहर आकर घर को देखना विजुअल आर्ट के रूप में है। यह घर आदिवासी अस्मिता, उनके भीतर–बाहर बदलते परिवेश का चलचित्र है। पहले खंड से कुछ पंक्तियाँ:

वे पिछड़े हैं! 
पूछते हैं . . .
कब बँट गया पुरखा पहाड़? 
 . . .
वे पूछते हैं . . . 
युगों-युगों से उनके मादाव 
पहाड़, जंगल और नदी 
कब–कैसे क़ैद हुए? 

दूसरे खंड से कुछ पंक्तियाँ:

वे 
भूमिया बैगा और ग्रामीण कोल 
अपनी रेतीली आँखों से 
निहार रहे हैं 
जंगल और पहाड़ से चिमटी 
अपनी बिरादरी को 
और सिर धुन रहे हैं . . . 

 यह कवयित्री की संवेदना के विस्तार को सूचित करता है। हाशिये पर पड़े लोगों की व्यथा-कथा! 

‘मायने होने के’ दूसरा खंड है जिसे मैं जानबूझकर अंत में ले रहा हूँ। इसलिए कि इस संग्रह की सभी कविताएँ ‘मायने होने के’ के इर्द-गिर्द घूमती नज़र आएँगी। ‘मायने होने के’ सभी कविताओं का केंद्रीय मेटाफर है, केंद्रीय रूपक है। सभी कविताएँ होने के अस्तित्व के प्रश्नों से बिछी पड़ी हैं। इन कविताओं में एक तरफ़ अस्तित्व की भाववादी प्रस्तुति है तो दूसरी ओर वृहत्त समाजवादी प्रस्तुति। ‘मायने होने के’ के खंड की कविताएँ ही नहीं, ‘चीख और दहाड़ के बीच’ की कविताएँ भी मानवीय अस्तित्व के मायने की अर्थवत्ता को पहचानने वाली हैं। 

‘मायने होने के’ खंड में कहीं रंगों-लकीरों के मायने, कहीं औरत-मर्द के नए सबंधों के और कहीं भयावह दंगों और बँटवारे से जुड़े संदर्भ! इस खंड की कविता ‘मुझसे मेरा होना’ ध्यान में उतरने; आदमियों के घेरों से परे आस्तबूद होने और ‘स्व’ में लौट, पुन: भौतिक संसार में प्रवेश से ‘स्व’ के लोप के अंदेशे को रचती है। कुछ पंक्तियाँ:

शून्य में तकता हूँ अपलक 
एक रोशनी कौंध जाती है 
कुछ डोर रंग-बिरंगी झूलती हैं 
और ले लेती हैं मुझे 
अपने तिलिस्मी घेरे में 
 . . . . . . . . . . . .
मैं लौटना चाहता हूँ 
शून्य की निःशब्द दुनिया से 
 . . . 
जानता हूँ 
कि 
खो जाएगा 
मुझसे मेरा होना . . . (पृष्ठ ५३-५४) 

‘सन्नाटा’ अंतरतम तक छाया सन्नाटा! मगर भीतर की फाँस दम नहीं घोंटती, संगीत सुनाती है-शाश्वत संगीत। आतंरिक संघर्ष में जीवन गान रचती कविता! कुछ अलग-अलग पंक्तियाँ:

सन्नाटा था 
कि बढ़ता जाता 
सुरसा के मुँह की तरह (पृष्ठ ५६) 
 . . . . . . . . . 
अब भीतर की फाँस 
दम नहीं घोटती
मैं महसूसता हूँ 
अतल में गूँजता शाश्वत संगीत 
और जी उठता हूँ 
सचमुच! (पृष्ठ ५७) 

‘समय की स्मृति में’ एक मर्मस्पर्शी कविता! आत्मिक सम्बन्ध की ऊँचाई और गहराई को बिलोती हुई . . . 

जितना बचा है मेरा होना
उससे कहीं अधिक बचा है 
तुम्हारा होना 
मेरे भीतर कहीं . . . (पृष्ठ ५८) 
 . . .
मेरे होने में छिपा है 
तुम्हारा होना 
अपने पूरे वुजूद के साथ! 
 . . .
और बचा ही रहेगा यह 
समय की स्मृति में . . . (पृष्ठ ५९) 

‘मख्बूतलहवास’ होने के मायने और महत्ता कई रूपों, कई आयामों में अभिव्यंजित हैं। अलग-अलग पंक्तियाँ:

वर्तमान के समानांतर 
सच खँगालना 
उसका स्वभाव है
 . . . 
मास्टर यूसुफ़ का पागलपन 
इब्ने सफ़ी का पलायन 
क्या मख्बूतलहवासी नहीं? (पृष्ठ ६५) 
 . . . 
मख्बूतलहवास थे कबीर 
मख्बूतलहवास था मलिक अंबर
और ये मंटो 
क्या कम मख्बूतलहवास था? 
ये न होते मख्बूतलहवास 
तो
क्या छिन्न-भिन्न कर पाते
 . . .
मचलती मान्यताओं को 
 . . .
टाँग पाते उस पर झूलते समाज को? (पृष्ठ ६६) 
 . . . . . . 
मख्बूतलहवास होना 
ज़रूरी था उसके लिए 
 . . . 
अब भी है! (पृष्ठ ६७) 

इस खंड की अन्य कविताएँ—बोनसाई, रावी, झोंपड़ी और चाँद सहित अन्यान्य कविताएँ बिंबों का नया संसार दिखाती हैं। विमर्शों के कई–कई द्वार खोलती हैं। दरअसल, इस संग्रह के सभी खंडों की कविताएँ होने के मायने ढूँढ़ती कविताएँ हैं—कहीं रंगों-लकीरों में शब्दों के मायने/ कहीं औरत-मर्द के तेज़ी से बदलते संबंधों के मायने; कहीं भावनात्मक अर्थ में, कहीं माता-पिता के संदर्भ में अपने होने के मायने और कहीं भयावह, त्रासद देशकाल, साथ ही आदिवासी संदर्भ में अपने होने के मायने ढूँढना। बहुत कुछ पाया जा सकता है इस एक संग्रह में और इस एक संग्रह की कविताएँ शोध के लिए बहुत कुछ सँजोए हुए है। 

आरती ने पहले तीन संग्रह की कविताओं के सामने इस संग्रह द्वारा एक और बड़ी लकीर खींच दी है—अपने अगले संग्रह में उसके सामने इस लकीर को पार करने की चुनौती है। मुझे यक़ीन है, वह कर पाएगी। एक बार फिर से आरती स्मित को बधाई! 


नोट: डॉ. आरती स्मित के कविता संग्रह ‘मायने होने के’ पर आयोजित परिचर्चा वरिष्ठ साहित्यकार एवं परिचर्चाकार नरेंद्र मोहन जी के जीवनकाल की अंतिम देन बनकर रह गई, जब उन्होंने सक्रिय भागीदारी निभाई थी। इस पुस्तक के लिए उनके कहे शब्द और उनके रफ़ ड्राफ्ट जो समीक्षात्मक आलोचना का संकेत देते हुए बातचीत की कड़ी जोड़ने में सहायक हैं, उसी रूप में लिखे गए हैं। नरेंद्र मोहन जी की हस्तलिखित सांकेतिक समीक्षा भी संलग्न है। 

 

1 टिप्पणियाँ

  • 5 Jan, 2023 04:26 PM

    आरती स्मित की कविताएँ गहरी अनुभूति की कविताएँ हैं। नरेन्द्र मोहन जी ने उनकी जिन कविताओं को उद्धृत किया है, वे सब हृदयस्पर्शी होने के साथ-साथ पाठक को एक नये लोक में ले जाती हैं जहाँ वह अपने पिता, पितामह, माँ से एकाकार होने का सुख प्राप्त करता है।

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