हो जाये एक कप चाय का प्याला

15-03-2023

हो जाये एक कप चाय का प्याला

गीताञ्जलि गीत (अंक: 225, मार्च द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

 

सबसे ज़्यादा जलन मुझे चाय से है। वो इसलिए, माँ-पिता ने बचपन से सिर्फ़ पढ़ना-लिखना सिखाया, बच्चे ज़्यादा चाय नहीं पीते, ये उनकी साज़िश थी या समझाइश वे ही जानें। हम तो बस इतना जाने, चाय बेचते-बेचते लोग उद्योगपति बन गए, वृहद्‌ आकार के नेता बन गए, ठेले पर चाय बेचते-बेचते लोग बड़े होटलों के मालिक बन गए। हमारे वो सहपाठी जिन्हें हम पढ़ने-लिखने की अक़्ल मुफ़्त में बाँटा करते थे, आज हम कहीं घूमने के नाम पर, अपने फटी सीट के दुपहिया वाहन से उनके ही प्रतिष्ठान में जाकर चाय पीते हैं और उनकी सहज मुस्कान भी हमें कुटिल लगती है, मानों वे कह रहे हों, “और घूमो मोटी-पतली किताबों के बीच।” अब क्या किया जा सकता है, जो होना था सो हो गया जिन माता-पिता से प्रश्न करते वो भी जवाब देने के डर से हमें तन्हा छोड़ स्वर्ग में आराम फ़रमा रहे हैं। अब बताइए हमारी जलन जायज़ है न! 

आज ही सुबह पड़ोस में सास अपनी बहू को चिल्ला रही थी, “सुबह की चाय तक ढंग से नहीं बना सकती, मायके वालों ने कुछ नहीं सिखाया क्या?” अब उस सास को कौन समझाए ये इस झगड़े की जड़ मायके से नहीं, अंग्रेज़ों से शुरू होती है। मुए यहाँ से हमारी संस्कृति, आचार-विचार और अन्य संस्कार सब कुछ छीन ले गए साथ ही ज़मीन के गर्भ से, और उसकी सतह से प्राकृतिक धन भी हड़प कर ले गए। बदले में क्या दे गए “चाय”। हिन्दु बोलता है, उस घर की चाय नहीं पीना वो मुसलमान है और मुसलमान बोलता है, उस घर की चाय नहीं पीना हम गाय की नहीं, बकरी के दूध की चाय पीते हैं। धर्म के नाम पर अँग्रेज़ों ने हिन्दुस्तान को लड़ने, मरने, और मार-काट के लिए खुल्ला छोड़ दिया था। सच में ये चाय विकट झगड़ा करा गयी, दशकों तक वाक और शीत युद्ध चलता रहा। हरिवंशराय बच्चन जी शायद इस स्थिति को भाँप गये थे, तभी तो उन्होंने चाय पर से लोगों का ध्यान हटाया और मधुशाला की रचना कर डाली कि “मन्दिर मस्जिद का मेल कराती मधुशाला।” जिसे मद्य के दुर्गुण समझ आये वो समझ गये, बच्चन जी की बातों में नहीं आना है, चाय पीना ही ठीक है। धर्म-जाति की दीवार तोड़ एक दूसरे के घर प्रेम से चाय पियो इसी में भलाई है। बच्चन जी भी ख़ुश, उनके लिखने का मक़सद जो पूरा हो गया था, क्योंकि ऊँच–नीच, धर्म-जाति की खाई से वे ख़ुद परेशान थे पर वो भी जानते थे हमारे देश का रिवाज़ है घी सीधी अंगुली से नहीं निकलता। आज मुझे लग रहा इस चाय के बहाने ही शायद बच्चन जी मधुशाला लिख पाए है। 

सच में इस चाय ने बड़े बड़े कारनामे कर दिखाये हैं, इसने बच्चन जी को नहीं और भी लोगों को हीरो बना दिया है। बस समझने के लिए गहरी नज़र चाहिये। अब मुझे भी चाय से जलन नहीं हो रही जो ज़िन्दगी का हिस्सा बन जाये उससे जलन कैसी। 

जैसे-तैसे हिंदुस्तान की दशा और दिशा सुधर रही थी। ईद और दीवाली भी गले मिलने लगे थे। तभी किसी चाय बेचने वाले ने हम सबको चेताया, एक दूसरे के यहाँ चाय मत पियो अगर पियो तो सम्हलकर, जो तुम्हारी चाय पी रहे हैं वो इस देश की धरती के नहीं है, लुटेरे हैं फिर लूट ले जायेंगे बहुत कुछ। यानी ये लड़ाई जैसे-तैसे ख़त्म हो रही थी पता चला अब फिर एक दूसरे के साथ लड़ाई करनी है। लड़ेंगे हम और हमारी कमज़ोरी का फ़ायदा उठाकर फिर कोई विदेशी, अब घोड़े का ज़माना तो रहा नहीं। हाँ इंटरनेट के साथ हवाई मार्ग के घोड़े पर बैठकर ज़रूर आएगा और इस देश की सत्ता अपने हाथ में ले लेगा। अरे, ये लड़ाई करनी थी तो सदियों पहले ही करनी थी! क्यों घुसने दिया हिन्दुस्तान के भीतर दूसरों को, अब क्या उन कमज़ोरियों को बहादुरी का नाम दें। ज़मीन पर किसी का क़ब्ज़ा स्थायी नहीं होता। चाहे जानवर हो या इन्सान, जो जितना ताक़तवर होगा वो अपना साम्राज्य फैलाएगा और वही पारिस्थितिक तंत्र के हिसाब से ज़िंदा बचेगा। यहाँ जाति और धर्म कहाँ से आ गए। इसलिए बेहतर है बीते समय से सबक़ लो। जहाँ प्रेम से चाय परोसी जा रही है उसे पियो, दिमाग़ को तरोताज़ा कर प्रगति की बात करो, इन्सानों की भलाई की बात करो। अगर इस चाय के चक्कर में लड़ाई हो गयी तो न हम चैन से साँस ले सकेंगे न आने वाली पीढ़ी विकास की बात करेगी। 

तो फिर किसी दिन मेरे घर आइये या फिर आप जहाँ कहें वहाँ मिलकर चाय पीते हैं, देश की भलाई के लिए किसी योजना पर बात करते हैं या फिर शादी योग्य लड़के या लड़की के ब्याह की बात करते हैं या फिर किसी अच्छी दिशा में आगे बढ़ने के लिए चाय की चुस्की लेते हैं, तो हो जाये एक कप चाय का प्याला? 

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