हिन्दी ग़ज़ल की परम्परा में डॉ. जियाउर रहमान जाफरी की ग़ज़ल
सूफ़िया खानमग़ज़ल को कविता की एक प्रवृत्ति मान ली गई है। इसका कारण यह है कि हिन्दी कविता में ग़ज़ल को पढ़ने वाले और चाहने वाले बहुत लोग हैं।
हिन्दी ग़ज़ल साहित्य में जियाउर रहमान जाफरी की पहचान ग़ज़ल के एक आलोचक के तौर पर है ही, उनकी शायरी भी हमें मुतासिर करती है। बेगूसराय के मुज़फरा नामक गाँव में जन्मे श्री जाफरी ने हिन्दी ग़ज़ल से पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने तीन भाषाओं में स्नातकोत्तर किया और यू जी सी की परीक्षा उत्तीर्ण की।
हिन्दी ग़ज़ल पर आलोचना की उनकी दो किताबें काफ़ी लोकप्रिय हैं – ’परवीन शाकिर की शायरी’ और ’ग़ज़ल लेखन परम्परा और हिन्दी ग़ज़ल का विकास’। उसके अलावा हिन्दी ग़ज़ल पर उनके संग्रह–’खुले दरीचे की खुशबू’ और ’खुशबू छू कर आई है’ भी काफ़ी चर्चा में रहे। बाल साहित्य पर उनकी दो किताबें मौजूद हैं: ’चाँद हमारी मुट्ठी में है’ और ’मैं आपी से नहीं बोलती’।
वो पत्र पत्रिकाओं में नियमित रूप से लिखते हैं, उन्हें बिहार सरकार का जनशताब्दी सम्मान भी मिला है। पत्रकारिता और लेखन के साथ हिन्दी ग़ज़ल और आलोचना को भी उन्होंने समेटने का काम किया है। मैथिली में जहाँ उनकी ग़ज़लें पढ़ी जाती हैं, वहीं उर्दू में पाबंदी से बाल साहित्य लिखने वाले वो बिहार के अकेले बाल साहित्यकार हैं।
आपकी ग़ज़लों की सबसे बड़ी विशेषता उसकी सहजता और सरलता है। भाषाई कौशल और ज़ुबान की मिठास के साथ वो एक अलग माहौल तैयार कर लेते हैं। उनका अपना एक लबो-लहजा है, जो बहुत कुछ मुनव्वर राना से मिलता है। उनपर अपने पिता फज़लुर रहमान हाशमी का भी असर है जो अपनी व्यंग्य कविताओं के लिए जाने जाते थे। इस संदर्भ में डॉ. जियाउर रहमान जाफरी की कुछ ग़ज़लों के शेर देखे जा सकते हैं–
ज़मीं पे लोग जो अच्छे थे वो रहे ही नहीं
ख़ुदा ने इसलिए ऊपर उन्हें बुलाया था
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छुपा कर कोशिशें रखने की सब नाकाम होती हैं
तेरे आने से सारा घर मुअत्तर होने लगता है
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मैं तुमसे मिलने अगर चाँद पर भी आऊंगा
मुझे उम्मीद है बादल तुम्हें छुपा लेगा
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न जाने कौन सा जादू है जब वो फोन करता है
उबलता दूध चूल्हे पर वो लड़की छोड़ देती है
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हमारी मान लो छोड़ो सफ़र की गुंजाईश
बची हुई है अभी घर में घर की गुंजाईश
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सिर्फ़ चाहत से कुछ नहीं होता
कुछ तो मजबूरियां भी रहती हैं
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जो बेज़ुबाँ थे वही चीख़ कर बताते थे
जो बोल सकते थे गूंगे का रोल करने लगे
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वक़्त कहता है कि अब घर से न निकला जाए
पर ज़रूरत है कि थमने ही नहीं देती है
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मैं कितनी बार ज़िद पर जीत करके हार जाता हूं
किसी की छीन लेने से ख़ुशी अपनी नहीं होती
जाफरी के कई शेर इस बात के प्रति इत्मीनान दिलाते हैं कि संसार ख़ूबसूरती से भरा है। कुछ शेर मुलाहिज़ा हों...
मुहब्बतों में कहाँ तक दग़ा किया मैंने
तमाम शख़्स को अपना बना लिया मैंने
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बस इसी डर से कि ख़ुशबू न चुरा ले कोई
वो निकलता है तो परफ़्यूम हटा देता है
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मैं उसके बाद फिर उसको सज़ा ही दे नहीं पाता
वो मेरे कान में सटती है सॉरी बोल देती है
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अमीरे शहर ग़रीबों पे लानतें मत कर
ख़ुदा जो चाहे तो मंज़र बदल भी सकता है
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जो झुक गई मेरी गर्दन तो बच गये हम भी
वो तीर मेरे ही सर से गुज़रने वाला था
कहना न होगा कि हिन्दी ग़ज़ल की परम्परा में जाफरी का अवदान महत्वपूर्ण है, वो इस वक़्त के नुमाइंदा शायर और ज़िम्मेदार आलोचक हैं।
सूफ़िया खानम
हिन्दी विभाग
भागलपुर विश्वविद्यालय भागलपुर, बिहार