हथेली पर उजास की गुनगुनी भोर

01-02-2022

हथेली पर उजास की गुनगुनी भोर

डॉ. मृणालिका ओझा (अंक: 198, फरवरी प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

 

समीक्षित पुस्तक: भोर हथेली पर (काव्य संग्रह)
लेखक: ज्योति मिश्रा
प्रकाशक: बोधि प्रकाशन, सी-46, सुदर्शनपुरा इंडस्ट्रियल एरिया एक्सटेंशन
नाला रोड, 22 गोदाम, जयपुर-302006
ई-मेल: bodhiprakashan@gmail.com
ISBN: 978-93-90827-01-0
पृष्ठ संख्या: 144
मूल्य: ₹ 150/-

शब्द-चित्रों के माध्यम से जीवन के बसंत से पतझड़ तक को कविता का आकार देती हैं—ज्योति मिश्रा।  ज्योति मिश्रा की रचनाएँ हर बार पाठक को झकझोर जाती हैं। इसमें दो मत नहीं कि पाठक उस वक़्त तक सिर्फ़ पाठक होता है, जब तक वह पठन और पाठन में ही सीमित हो। लेखक के शब्दों और भावों की संप्रेषणीयता उसे, विषय वस्तु की अतल गहराइयों में डुबो जाता है। जब पाठक भावनाओं और संवेदनाओं की तरंगों के साथ, मंत्रमुग्ध सा आत्मविस्मृत होने लगता है, तब उसे टूटते हुए परिवेश का हाहाकार ठीक-ठीक समझ में आता है। उसके अंतर्मन के झंझावातों को, उनके समग्र रूप में मानो वह उसी वक़्त अनुभव करने लगता है। जब वह अपने कर्तव्य की वेदी पर खड़ा रहकर भी लोक के यथार्थ को आजीवन अनदेखा करता है, तब जीवन की सच्चाइयों से कई बार बहुत दूर भी होता है। 

हम अपने भीतर आसपास की, और फिर मानव समाज की तपिश और स्वप्न दोनों को धीरे-धीरे जीने लगते हैं और तभी ज्योति जी की कविताओं को हम अपने व्यक्तिगत, सामाजिक और वैश्विक रूप में भीतर अनुभव करते हुए चलते हैं। हमें उन गहरी चोटों के निशानों का, उन बेबस लोगों की ज़िन्दगी का, उनकी निःशब्द बेबसी का, और उनकी अंतहीन पीड़ा का अनुभव होता है जो उनकी रचनाओं में सजीव होकर इस वक़्त हमारे सामने पुस्तक के आकार में, कविता संग्रह के रूप में “भोर हथेली पर” के नाम से हमारे पास हैं। पुस्तक का मुख-पृष्ठ भी कविता से कुछ कम नहीं है। क्षितिज की अनंत गहराइयों से उठता-उगता हुआ सूरज अपनी हथेली पर भोर लेकर आता है। ‘सूरज’ जो जड़ चेतन सब को अंधकार से, चुप्पी से, निष्क्रियता से उबारता है। पूरी पुस्तक पाठक को मानो झकझोर देती है। लंबी चुप्पी को पुनः मुखर कर देती है और यथार्थ के पक्ष में अपनी आवाज़ बुलंद करने का साहस भी देती है। लेखिका के साहित्‍य का यह सकारात्मक प्रभाव ही राष्ट्र, समाज और संसृति की हथेली पर सचमुच एक सुनहरी भोर ला कर देगा। 

वात्सल्य की तरंग उमड़ पड़ी /
और जल उठी वह-प्रसन्नता से /
मुक्ति के इस मार्ग को स्वीकार, 
पूर्ण कर उद्देश्य—त्याग की यात्रा का /
कोपलों से—कोयलों तक! 

यह हैं, ज्योति जी की रचना की कुछ पंक्तियाँ। परपीड़ा को देखकर, समेट कर उसके बदले में अपने सारे सुखों के संसार को त्याग कर, अंतिम यात्रा को भी लोक कल्याण के लिए अंगीकार करना सामान्य बात नहीं है, परंतु यह सब कुछ प्रायः औरत की व्यथा कथा है। औरत के जीवन का यथार्थ है। तभी तो कहा गया है —“आंचल में है दूध और आँखों में पानी।”  ज्योति जी के शब्दों में:

तुम्हें! ज्ञात भी है क्या? 
इक चुभन सी होती है  . . .
स्वर और हृदय की न मिलने पर! 
उस क्षण अपराधी सी खड़ी होती हूँ . . .
हृदय के समक्ष! 

लगभग नारी विमर्श के धरातल पर उपजी कविताओं ने लेखिका की अपनी निडर बयानी को प्रमाणित किया है। अमानवीय कृत्य और घृणित यौन अपराधों से भस्मसात हो रही मानवता की लिए बार-बार चीत्कार किया है। अंतःकरण से उठा आर्तनाद है। उनके ही शब्दों में:

फिर गूँजी नग्नता की चीख
फिर उतरा समय —शव की कलाइयों से
फिर फटे चीर कटी देहों से 
फिर भरी जेब मानवता के भस्मों से
फिर सजी भोर नेपथ्य के चेहरों से 
फिर फिर फिर—अनवरत फिर! 

“निश्छल दूत” झकझोर देने वाली रचना है। यह जीवन के यथार्थ को, दुखों को अंगीकार करने का कौशल है और इन सब के बाद ’काँटा” के नाम से उस पर उपेक्षा सहने की शक्ति केवल काँटों में ही तो होती है। ज्योति जी के शब्दों में:

एक सत्य है–निश्छल यथार्थ सत्य, 
कठोर, निर्दयी मगर एक चेहरे वाला 
मैं चुभूँगा 
इस बात की गवाही 
वो शीश पर रखते हैं 
काँटे!—पीड़ा के सच्चे दोस्त होते हैं। 

सच यही है कि सुख-दुख के तटों के बीच जीवन नदिया बह रही है। इसी के मध्य है सारी कला, सारा साहित्य, सारा विज्ञान और पूर्ण प्रकृति। सब कुछ! 

बेहद विवश होकर अन्याय की अतिशयता से उबरने के लिए कवयित्री द्वारा विधाता से पूछा गया प्रश्न, संसार के असंख्य अधरों को कंपित कर देता है। बहुत बड़ा समुदाय ईश्वर के मौन को अब और सहन करने से अस्वीकार करता है। लेखिका की क़लम से स्तब्ध पीड़ा का समंदर भी विधाता के प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा में है। 

”क्या झूठी है वेदोक्तियाँ? 
या अपरिचित हैं अच्युत—अपने ही संसार से? 
क्या विस्मृत कर दिया अपने ही कथन को? 
या प्रतीक्षा में हैं—
शिशुपाल की सौ ग़लतियों के?” 

’प्रतीक्षा’ नारी संवेदनाओं की अति सूक्ष्म अभिव्यक्ति है। उत्पीड़न और आशा के बीच सहनशीलता के चरमोत्कर्ष से उपजा यह एक यक्ष प्रश्न है, जिसके प्रत्युत्तर में विधाता मौन है। भारतीय समाज में नारी की स्थिति दो पाटों के बीच पिसते हुए दाने की तरह होती है। विशेषतः ससुराल की देहरी के अंदर कर्तव्य और विवशता की पीड़ा। अनेक नारियों द्वारा झेला गया सत्य है: 

याद है मुझे –
टूटती साँसें, 
छूटती हिम्मत 
ग़ैरों सा बर्ताव, 
अपनों के हाथ, 
याद है मुझे। 

’रोटियाँ’, ’ले लो न साहब’ जैसी रचनाएँ भी सूक्ष्म में समष्टि जैसे कम से कम शब्दों में गहन और विस्तृत संप्रेषणीयता के गुणों से भरपूर है। यह पुस्तक—“भोर हथेली पर” भारतीय समाज के आर्थिक और सामाजिक सामर्थ्य के अभाव में घिसटती ज़िन्दगी का शब्दांकन है। बड़ी ही ख़ूबसूरती से बेहद संक्षेप में अब तक के अंतहीन समस्याओं को कवयित्री ने स्वर दिया है:

उनका विरोध 
सिर माथे चढ़ाया था मैंने 
मेरा प्रतिरोध चरित्रहीन हो गया। 
घुटती हुई ज़िन्दगी के बीच आज भी हैं– सारी तकलीफ़ों से संघर्ष 
करते, अंधकार से मुक्ति दिलाने के की मज़बूत आस लिए हुए मज़बूत इरादों वाले लोग। 
जीतने सम्मान/
फैलाने प्रकाश

रखने छोटी पुतलियों के स्वप्नों का मान
गढ़ता है वह आज भी
मिट्टी के नए पुष्पदीप
उगाने को भोर हथेली पर! 

कम से कम शब्दों में गहन और विस्तृत संप्रेषणीयता के गुणों से भरपूर है—ज़िन्दगी की ऊर्जा लिए हुए उनका यह काव्य संग्रह – 'भोर हथेली पर'!

समीक्षक-
डॉ.. मृणालिका ओझा
पहाड़ी तालाब के सामने
बंजारी मंदिर के पास 
वामनराव लाखे वार्ड (66) 
कुशालपुर 
रायपुर (छत्तीसगढ) 
492001

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें