हँसो गीतिके हँसो

06-07-2007

हँसो गीतिके हँसो

अभिरंजन कुमार

हँसो गीतिके हँसो--
हँसो ऐसे जैसे 
हवा से हिलकर हँसते हैं गुलमोहर के फूल।
हँसो ऐसे जैसे 
कोई अकेला बच्चा खुद में हो मशगूल।
हँसो ऐसे जैसे 
पहाड़ों से उतर कर हँसते हैं झरने।
हँसो ऐसे जैसे 
पूर्णिमा की रात हँसती हैं चंद्रकिरणें।
हँसो...
 गाय के ताज़ा दुहे दूध के फेन-सी हँसी।
हँसो... 
मन के सारे मलाल मिटा कुदरत की देन-सी हँसी।

 

हँसो, गीतिके हँसो।
इस तपिश में 
मानसून की शीतल फुहार कीतरह हँसो।
मेरे पतझड़ में 

बहार की तरह हँसो।
नफ़रत में प्यार की तरह हँसो।
गीतिके हँसो।

 

हँसो, क्योंकि तुम हँसती हो 
तो बोलती हैं तुम्हारी आँखें।
हँसो, क्योंकि तुम हँसती हो 
तो डोलती हैं तुम्हारी साँसे।
हँसी तुम्हारे होंठों पर 
बाँसुरी-सी बजती है
तुम्हारे गालों पर 
सजती है गुलाल-सी हँसी।
बागों के बेखबर 
झूले-सी झूलती हो तुम
और लचकती है 
हरी-हरी डाल-सी हँसी।
मैंने तुम्हारी हँसी को 
तितलियाँ बन-बनकर उड़ते देखा है।
मैंने तुम्हारी हँसी को 
दूर जा-जाकर मुड़ते देखा है।
तुम हँसती हो तो
मेरे दिल तक बनती है एक राह।
और सहसा बिछ जाते हैं 
उसपर पुष्प भी अथाह।

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