हाइकु का सफ़र वृद्धों की बस्ती की ओर

01-04-2025

हाइकु का सफ़र वृद्धों की बस्ती की ओर

रमेश कुमार सोनी (अंक: 274, अप्रैल प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

समीक्षित पुस्तक: अँधेरों का सफ़र (साझा हाइकु संकलन)
संपादक: डॉ. सुरंगमा यादव 
प्रकाशक: अयन प्रकाशन,नई दिल्ली, 
प्रकाशन वर्ष: 2025
ISBN: 978-93-6423-788-8
मूल्य: ₹320/-
पृष्ठ-112, 
भूमिका: रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
संपादकीय/आलेख: डॉ. सुरंगमा यादव

हिंदी हाइकु अब वैश्विक उड़ानें भर रहा है इसलिए की अब कई अंतरराष्ट्रीय साझा हाइकु संकलन प्रकाशित हो रहे हैं। हिंदी साहित्य की भी इसी बहाने बाँछें खिली हुई हैं। हाइकु जो एक पूर्ण कविता है में काव्य के सभी सौंदर्य वर्णित हो सकते हैं जिसका उदाहरण है यह ‘वृद्धावस्था पर केंद्रित हाइकु संकलन’ इस तरह अन्य विषयों पर भी केंद्रित संकलन आए हैं और कुछ लाइन में लगे हुए हैं। प्रत्येक हाइकुकार अपनी साधना से इस विधा को निखारने में लगा हुआ है—सभी बधाई के पात्र हैं। 

वर्तमान में मुझे डॉ. सुरंगमा यादव के संपादन में ‘वृद्धावस्था पर केंद्रित हाइकु संकलन’ में शामिल होने एवं पढ़ने का अवसर मिला। वृद्धों पर केंद्रित यह प्रथम हाइकु संकलन है। इससे पहले नदी विषय पर केंद्रित हाइकु संकलन डॉ. भीकम सिंह के नेतृत्व में—अप्रमेय प्रकाशित हुआ था। साझा संकलनों के विषय आधारित कई संकलन (सप्तक शृंखला) प्रकाशित हो चुके हैं। 

इस संकलन में इनके हाइकु की सहभागिता है: 1. सुधा गुप्ता, 2. रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, 3. सुदर्शन रत्नाकर, 4. डॉ. कुँवर दिनेश सिंह, 5. कमला निखुर्पा, 6. पुष्पा मेहरा, 7. डॉ. शिवजी श्रीवास्तव, 8. डॉ. जेन्नी शबनम, 9. ऋता शेखर ‘मधु’, 10. डॉ. सुरंगमा यादव, 11. अनिता ललित, 12. डॉ. उमेश महादोषी, 13. डॉ. कविता भट्ट, 14. भावना सक्सेना, 15. डॉ. आशा पाण्डेय, 16. रमेश कुमार सोनी, 17. मीनू खरे, 18. अनिता मंडा, 19. प्रियंका गुप्ता, 20. भीकम सिंह, 21. रश्मि विभा त्रिपाठी, 22. डॉ. पूर्वा शर्मा, 23. दिनेश चन्द्र पाण्डेय, 24. डॉ. छवि निगम, 25. डॉ. उपमा शर्मा, 26. अनिमा दास, 27. अंजू निगम, देशान्तर-28. डॉ. हरदीप सन्धु (आस्ट्रेलिया), 29. कृष्णा वर्मा (कनाडा), 30. सविता अग्रवाल ‘सवि’ (कनाडा), 31. मंजु मिश्रा (संयुक्त राज्य अमेंरिका) एवं 32. शशि पाधा (संयुक्त राज्य अमेंरिका)। 

वृद्धजनों की सुध लेने के लिए यह हाइकु संकलन प्रस्तुत हुआ है जो आज के समय में प्रासंगिक है। वैसे भी किसी साहित्यकार को जो उसके परिवेश से अनुभूति होती है उसका वह शब्दांकन करता है। यह संकलन वर्तमान समाज का हाइकु विधा में एक साहित्यिक दर्पण है। ये हाइकु वृद्धों को हाशिए पर रखने वालों के चेहरों के जंगल की व्यथा है:

कभी केंद्र में/आज हाशिए पर/ढकेले गए। डॉ. सुधा गुप्ता
चारों ओर है/चेहरों का जंगल/मन अकेला। डॉ. हरदीप कौर 

वृद्धों के पास उसके अनुभवों की अकूत पूँजी होती है जिसे वह अपनों को हस्तगत करना चाहता है लेकिन लेने वाला इस परिदृश्य से लुप्त है। इस तरह ये पूँजी इन खुली किताबों के साथ ही बंद हो रही है। इसी तरह बहुत सी विद्या जो गुरु-शिष्य की परंपरा से हस्तांतरित होती थी उसकी कमी भी अब देखने को मिलती है। इन हाइकु में नए तजुर्बे जो अनुभवों से पके हुए हैं वो जीना सिखाते हैं का अर्थ लिए प्रस्तुत हुए हैं:

बूढ़े हो गए/ज्यों-ज्यों बढ़ती छाया/तजुर्बे नए। डॉ. कुँवर दिनेश सिंह
जब भी खुलें/अनुभव पिटारे/जीना सिखाएँ। अनिता मंडा

रिश्तों को लेकर इनके पास कई खट्ठे-मीठे अनुभव होते हैं। सामूहिक परिवार की मिठास इन्हें न्यूक्लियर परिवार की खटास तक पहुँचा देती है। कई रिश्ते समाप्तप्राय हैं। कई बच्चों की परवरिश करने वालों को इस अवस्था में उनके बच्चे निभा नहीं पाते यह समस्या वैश्वीकरण के साइड इफ़ेक्ट्स के रूप में पसरती जा रही है। सुरसा जैसी अपेक्षाओं के चलते रिश्तों का पखेरू उड़ जाता है तब उसकी अनुपस्थिति खलती है। समय रहते इन रिश्तों के माली की फ़िक्र कम लोगों को ही होती है:

उड़े पखेरू/सूख गईं डालियाँ/छाया लापता। रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ 
उसने खींचा/प्रेम-हस्त अपना/जिसको सींचा। डॉ. कविता भट्ट 
रिश्तों का मोल/वृद्धों की मूक आँखें/लेती है तोल। भीकम सिंह 
हुई सुरसा/स्वार्थ की भूख ‘औ’/रिश्तों में हूक। कृष्णा वर्मा

वृद्धाश्रम आज की दुनिया की एक कड़वी हक़ीक़त है इस पर बहुत सी संस्थाएँ अपनी सेवा दे रही हैं जहाँ उन्हें घर से दूर एक और घर का अहसास दिलाया जा सके। जितनी भी सुविधाएँ वे यहाँ जुटा लें अपनों के साथ की बात ही कुछ और होती है। यहाँ वक़्त काटने के लिए सिर्फ़ स्मृतियाँ ही होती हैं और बोलने के लिए एक-दूसरों की व्यथा। वृद्धाश्रम में वृद्धजनों की प्रतीक्षा का दर्द बयाँ करते हैं ये हाइकु:

कब से खड़ी/वृद्धाश्रम के द्वार/आएगा बेटा। कमला निखुर्पा 
बच्चों से मिला/वृद्धाश्रम का कैम्प/हँसते चले। पुष्पा मेहरा

सेवानिवृत्ति ज़िन्दगी की दूसरी पारी की शुरूआत होती है जिसकी स्वर्णिम कल्पना करने वालों को कई बार कष्ट मिलता है, कभी मिलता है जीवनसाथी के चले जाने का एकाकीपन। कई बार अपनों का व्यवहार भी कष्टकारी होता है जब आप इस उम्र में भी उनके ए। टी। एम। बने रहते हैं। इन भावों को समेंटे हुए ये हाइकु अच्छे हैं:

छोटा-सा कोना/सोएँ बूढ़ा-बुढ़िया/घर बेगाना। सुदर्शन रत्नाकर
सेवानिवृत्ति/जिम्मेदारी के बाद/नव उत्साह। ऋता शेखर ‘मधु’ 
सेवानिवृत्ति/मेंरा डेबिट कार्ड/बेटे के पास। मीनू खरे

संवेदना और बातों के भूखों को पेट की भूख से क्या वास्ता वैसे भी इस उम्र तक ना दाँत साथ देती है और ना ही आँत। स्वाद की चटोरी जीभ कई बार हास्य का पात्र तो कभी मरीज़ बना देती है। बातों की भूख मिट जाए और देख रेख करने वालों की यदि संवेदना मिल जाए तो बुढ़ापा सुधर जाता है। लावारिस सी हो चली ज़िन्दगी की इस अवस्था में झिड़कियों से सब इच्छाएँ बुझ जाती हैं:

भूख है शांत/झिड़कियाँ खाकर/प्यास ना पास। डॉ. सुरंगमा यादव 
दो-दो वारिस/भटकें वे बुजुर्ग/ज्यों लावारिस। रश्मि विभा त्रिपाठी

दवा पर निर्भर ज़िन्दगी कभी परहेज़ नहीं चाहती। उम्र की आख़िरी दहलीज़ पर डॉक्टर और परिचारक ही मित्र होते है। इन्हें पता है आधुनिक दवा जो क्षणिक मात्र की राहत तो देते हैं लेकिन रोग को पूरी तरह ठीक नहीं कर पाती इसलिए उन्हें इससे कोफ़्त होने लगती है। दवाओं की भीड़ में फँसा अकेला वृद्ध अपने सुकून का थोड़ा आकाश चाहता है:

थोड़ा आकाश/ढूँढ़ रहे घर में/वृद्धों का त्रास। डॉ. शिवजी श्रीवास्तव
दवा की भीड़/वृद्ध मन अकेला/टूटता नीड़। डॉ. जेन्नी शबनम

अकेलेपन और वृद्धावस्था का साथ अटूट सा हो गया है, इस शांत झील में पोता-पोती कंकड़ स्वरूप अपनी हँसी या तोतली बोली की किलकारी छेड़ें तो एक पोपली लहर इनकी रूह तक को हर्षित कर देती है। वृद्धों के अकेलेपन को तोड़ने इन बच्चों की मुस्कुराहट ही काफ़ी होती है जिसका रास्ता चॉकलेट से होकर जाता है इन भावों के हाइकु देखिए:

शोर सो गया/जागा अकेलापन/भोर हो गया। रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ 
घर में पोता/चॉकलेट की शॉप/भूलें न बाबा। डॉ. सुरंगमा यादव 

इस संकलन में आप मेंरे 24 हाइकु पृष्ठ 68 से 71 तक में पढ़ सकते हैं। जैसे:

डॉलर-यूरो/अर्थी उठाने दौड़े/ ‘ई’ मुखाग्नि। रमेश कुमार सोनी

हालाँकि इन हाइकु में वृद्धावस्था की पीड़ा, और ख़ालीपन ज़्यादा है, सभी हाइकु पढ़ने योग्य हैं। इनमें मुझे कोई भी हाइकु ऐसा नहीं मिला जिसमें इस अवस्था के आनंद/उल्लास का उल्लेख हो जैसा प्राचीन काल की संन्यास के बाद की वानप्रस्थ जीवन की तरह का हो। इस संकलन के हाइकु वृद्धावस्था के स्याह पक्ष को सशक्त तरीक़े से अभिव्यक्त करने में सफल हुए हैं। इस संकलन के सभी हाइकु संपादकीय कसौटी पर परखकर प्रकाशित हुए हैं इसलिए सभी में शिल्प और भाव के साथ विचारों की पुष्टता है। ये दृश्य दुःख के मरुस्थल में ख़ुशियों की बूँदों की तरह हैं:

मुझे सिखाती/सारी न्यू टेक्नोलॉजी/नन्हीं अंगुली। डॉ. पूर्वा शर्मा 
प्रातः भ्रमण/स्वछन्द अट्टाहास/मित्रों का साथ। शशि पाधा 

मेरी सभी हाइकुकारों को साधुवाद एवं संपादक को बधाई। 

समीक्षक-
रमेश कुमार सोनी

1 टिप्पणियाँ

  • 1 Apr, 2025 10:12 AM

    बहुत सुन्दर समीक्षा की है, हार्दिक शुभकामनाएँ।

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