गोदान का सामाजिक दृष्टिकोण

15-12-2021

गोदान का सामाजिक दृष्टिकोण

पूजा चौधरी (अंक: 195, दिसंबर द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

एक साहित्यकार की लेखनी समाज के उस पक्ष को अभिव्यक्त करती है, जिसे साहित्यकार स्वयं अनुभव करता है। साहित्यिक विधाओं में सामाजिक पक्ष का दिग्दर्शन तो स्वाभाविक ही है, क्योंकि मानव का मूल तो एकमात्र समाज है। प्रेमचंद, साहित्य जगत के एक अनोखे व लोकप्रिय साहित्यकार हैं जो अपनी रचनाओं में वास्तविकता की अभिव्यक्ति करते हैं। इन्होंने सेवासदन, प्रेमाश्रय, रंगभूमि, निर्मला, गबन, गोदान, कर्मभूमि आदि अनेक उपन्यासों की रचना की है। जिनमें “गोदान” कृषक जीवन पर आधारित एक अद्वितीय उपन्यास है। इसके नायक व नायिका के रूप में होरी तथा धनिया को प्रतिस्थापित किया गया है। यह उपन्यास ग्रामीण एवं शहरी उभयात्मक समाजिकता को परिलक्षित करता है। अतः प्रेमचंद जी की सामाजिक जनों के प्रति उत्पन्न अवधारणाओं का वर्णन क्रमानुसार इस उपन्यास मे दृष्टिगोचर होता है।

समाज में केवल एक ही व्यक्ति का सन्निवेश नहीं होता, अपितु परिवारों के संगठन से समाज का निर्माण होता है तथा यहीं से सामाजिक सम्बन्धों का आरम्भ होता है। सामाजिक सम्बन्धों के अंतर्गत, माता व संतान का सम्बन्ध सबसे अधिक पवित्र व निश्छल प्रेम का प्रतीक होता है। एक माँ अपनी संतान के धन-दौलत से कभी प्यार नहीं करती बल्कि अपनी संतान से करती है, जिसकी एक झलक गोदान में दिखाई देती है। जब गोबर परदेश से लौटकर घर आता है तो धनिया उसके खाने के इंतज़ाम के लिए सहुआइन की दुकान पर जाती है—

सहुआइन – गोबर तो खूब कमा के आया है न ?
धनिया बोली – अभी तो कुछ नहीं खुला दीदी! तुम्हारे आसिरबाद से कुशल से लौट आया, मेरे लिए तो यही बहुत है।1

माता-पिता अपनी संतान को सर्वोच्च शिखर पर पहुँचाने के हर सम्भव प्रयास करते हैं तथा उनके उज्ज्वल भविष्य की सदैव कामना करते हैं, किन्तु संतान जब वयस्क हो जाती है और माता-पिता को उनके सहारे की आवश्यकता होती है तो वे उनका त्याग कर देते हैं। गोबर जब शहर से वापस आया तो अपने माता-पिता का सहारा बनने के स्थान पर उन्हीं से कटु वचन कहने लगता है—“परदेश में संगी-साथी निकल ही आते हैं अम्मा और यह तो स्वारथ का संसार है। जिसके साथ चार पैसे गम खाओ, वही अपना। खाली हाथ तो माँ-बाप भी नहीं पूंछते।2

वर्तमान में भी यह संदर्भ अत्यंत प्रासंगिक प्रतीत होता है। वर्तमान सामाजिक परिवेश में भी ऐसे अनेक उदाहरण दिन-प्रतिदिन प्रत्यक्ष हो ही जाते हैं।

इस उपन्यास में प्रेमचंद जी ने जिन सेमरी व बेलारी गाँव का वर्णन किया है, वह वास्तव में सिर्फ़ गाँव न होकर एक कृषक लघु संसार है। तत्कालीन समाज में ज़मींदारों का वर्चस्व था। ज़मींदार किसानों को ब्याज पर धन देते थे और जब किसान धन वापिस न कर पाते तो किसानों की भूमि को हथिया लिया जाता था। उन्हें मज़दूर बनने पर मजबूर कर दिया जाता था। होरी ने भी ब्याज पर धन लिया था, जिसे वह चुका न सका फलस्वरूप वह मज़दूरी करने पर विवश हो गया।3

समाज में त्यौहारों की बड़ी महत्ता होती है। त्यौहार समाज में ख़ुशी व प्रसन्नता के वे माध्यम हैं जिन्हें व्यक्ति अपनी व्यस्तता के कारण कहीं-न-कहीं पीछे छोड़ देता है। प्रत्येक त्यौहार भिन्न-भिन्न रीतियों व नियमों से आबद्ध होते हैं अत: त्यौहार समाज में संस्कृति की धरोहर होते हैं। प्रेमचंद के इस उपन्यास में त्यौहारों की झलक स्पष्टत: दिखाई देती है।

उपन्यास के आरम्भ में ही दशहरे के पर्व पर रामलीला का आयोजन किया गया है, जिसमें होरी को भी अभिनय का अवसर दिया गया है।4 त्यौहारों के विषय में प्रेमचंद का कथन है कि—“होली के एक महीने पहले से एक महीने बाद तक फाग उड़ती है, आषाढ़ लगते ही आल्हा शुरू हो जाता है और सावन-भादों में कजलियाँ होती है। कजलियों के बाद रामायण-गान होने लगता है।5

उस समय प्राय: सभी त्यौहारों में ढोल-मंजीरे बजाने का प्रावधान था। होली के अवसर पर तो भंग घोली जाती थी, पान के बीड़े बनाये जाते थे, रंग घोला जाता था तथा गाना-बजाना भी होता था।

तत्कालीन समाज में नारी का स्थान उतना ऊँचा न था, उन्हें तो सामान्य व्यक्तियों के अधिकार भी न प्राप्त थे। इस उपन्यास मे स्त्री प्रताड़ना के अनेक संदर्भ प्राप्त होते हैं। चौधरी तथा पुनिया के मध्य जब कहा–सुनी होती है और यह ख़बर जब हीरा तक पहुँचती है तो हीरा पुनिया को लातों से मारता है।6 पुरुष वर्ग द्वारा स्त्री को वासनापूर्ण दृष्टि से भी देखा जाता था। स्वयं की अभिलाषा को पूर्ण करने में तत्पर व्यक्ति, स्त्री की मनोदशा पर होने वाले प्रभाव की भी चिंता नहीं करते थे। इस तथ्य को पुष्ट करती हुई झुनिया की उक्ति—“एक-से-एक बाबू, महाजन, ठाकुर, वकील, अमले, अफसर अपना रसियापन दिखाकर मुझे फंसा लेना चाहते हैं।7

इस प्रकार यह उपन्यास सामाजिक प्रसंगों से परिपूर्ण परिलक्षित होता है। निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि प्रेमचंद का साहित्य सामाजिक भूमि से पूर्णतः व्याप्त है। समाज के विभिन्न क्षेत्रों का दिग्दर्शन इसमें क्रमानुसार प्राप्त होता है। इतनी पुरातन रचना होने के पश्चात् भी जब प्रेमचंद के इस उपन्यास का अध्ययन किया जाता है तो इसमें समाहित सामाजिक पक्षों का उद्घाटन इस रूप में होता है मानों ये प्रत्यक्ष नेत्रों द्वारा देखे जा रहे हों।

पूजा चौधरी
शोधार्थी(संस्कृत विभाग)
इन्दिरा कला संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़,जिला-राजनांदगांव (छ.ग.)
मो. – 9329060686
ई.मेल. – poojachoudhary5gmail.com

संदर्भ सूची:

  1. प्रेमचंद – गोदान – पृष्ठ 240 - शिवांक प्रकाशन – नई दिल्ली – प्रथम संस्करण।

  2. प्रेमचंद – गोदान – पृष्ठ 260 - शिवांक प्रकाशन – नई दिल्ली – प्रथम संस्करण।

  3. प्रेमचंद – गोदान – पृष्ठ 214 - शिवांक प्रकाशन – नई दिल्ली – प्रथम संस्करण।

  4. प्रेमचंद – गोदान – पृष्ठ 10 - शिवांक प्रकाशन – नई दिल्ली – प्रथम संस्करण।

  5. प्रेमचंद – गोदान – पृष्ठ 249-250 - शिवांक प्रकाशन – नई दिल्ली – प्रथम संस्करण।

  6. प्रेमचंद – गोदान – पृष्ठ 31 - शिवांक प्रकाशन – नई दिल्ली – प्रथम संस्करण।

  7. प्रेमचंद – गोदान – पृष्ठ 51 - शिवांक प्रकाशन – नई दिल्ली – प्रथम संस्करण।

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