घूर्णन
अविचल कुमारधूमकेतु की तरह
चक्कर खाते अपने अन्तर को
मैंने रोकना चाहा
उसके अविराम, अनवरत चलते
एकालाप को मैंने टोकना चाहा
कहा मैंने, अरे कब तक
वही रुदन गान गाओगे?
जब भी दूर रहोगे अपने आप से,
सदैव दुःख पाओगे
किसे तलाशते फिरते हो,
कभी बीते हुए की ख़ाक छानते हो,
कभी अनदेखे प्रचंड परिवर्तन के
ताने-बाने बुनते हो
तुम ईश्वर की अकूत सम्पदा के मध्य जीकर
क्यों दुःख के दाने चुनते हो?
तुम्हारी खोपड़ी में तो बस
भूतकाल और भविष्य काल में ही
सब कार्य, समस्त प्रपंच, हो रहा है
और, सच तो ये है कि, आँखों के सामने
जीता-जागता वर्तमान खो रहा है
Be where you are! मैंने समझाया
और कितने समन्दर पार करोगे?
कितने महाद्वीपों के चक्कर लगाओगे?
आसपास नज़र तो दौड़ाओ!
दृष्टिपात करो, भाई!
देखो, इस समय का सत्य क्या है?
इस कमरे का सच क्या है?
पैदा होने से अब तक
पूरे जीवन का लेखा-जोखा,
मत करो हर वक़्त
लौट आओ वर्तमान के कवच में,
जीवन नहीं है उतना सख़्त,
जितना तुम्हारा दिमाग़ तुम्हें बताता है
वह तो है डेढ़ किलो माँस का लौंदा,
सिर्फ़ चिंता करता है ये, इसे बस यही बख़ूबी आता है
सिकोड़ लो चेतना के तन्तु,
ज़रूरी है अपने खोल में सिमट जाना
जानते हो न, सबसे बड़ा सुख है अपनी चमड़ी में,
अपने आवरण में, निश्क्लेष जी पाना
इन दीवारों का रंग देखा है?
इस सोफ़े के कपड़े पर की गई महीन सिलाई देखी है?
और तो और, अपने तकिए पर की गई बुनाई देखी है?
टेबल पर रखे सेबों का रंग, उनका आकार देखा है?
किस किसान ने बीज बोया होगा,
किस तरह यह पृथ्वी के सुदूर किसी कोने से
तुम्हारे कमरे तक आया होगा
अपनी उँगलियों को देखा है? अपनी आँखों को?
तुम हो न प्रकृति का अनूठा आविष्कार,
ब्रह्माण्ड का अंश, विराट का संकेत?
सजग हो जाओ अपने होने के चमत्कार के प्रति
इस पल में जियो,
क्योंकि तुम ही हो इस सृष्टि का केंद्र-बिंदु
सुख न वस्तुओं में है,
न अपने से इतर किसी दूसरे में है
तुम ही हो अपने सुख का आधार
तुम्हारे होने से ही है
इस जगत का समस्त कार्य-व्यापार
ईश्वर की संतान हो तुम,
उसी का चिदंश, उसी की सत्ता का
सबसे बड़ा प्रमाण हो तुम
’आहार निद्रा भय मैथुनम ” से आगे,
’डोपामीन’ की पुनरावृत्ति से आगे
तुम ही हो द्रष्टा और तुम ही हो दृश्य
तुम ही हो ज्ञाता और तुम ही हो ज्ञेय
कहीं नहीं जाना है, कुछ नहीं पाना है
अपने अंदर ही खोजना है
अपने को ही देखना है,
और अपना हो जाना है।
आत्मानं विद्धि!
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