गाँव की बेटी

01-04-2025

गाँव की बेटी

अरविन्द यादव  (अंक: 274, अप्रैल प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

घटना कुछ सालों पुरानी है, जब संचार क्रांति नहीं आयी हुई थी और ज़्यादातर गाँव कच्ची सड़कों द्वारा ही जुड़े हुए थे शहरों से और बैलगाड़ियाँ एक मुख्य साधन थीं आवागमन का। बिजली अभी भी गाँवों में धीरे-धीरे पहुँच रही थी। मोबाइल फोन अभी आना बाक़ी था दुनिया में। उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव में रहने वाली सुलोचना की शादी रेलवे में कार्यरत सुरेश से दो साल पहले ही हुई थी। सुरेश की नौकरी झाँसी में थी जहाँ दोनों अपनी छोटी सी गृहस्थी की गाड़ी चला रहे थे। तीन महीने पहले ही बेटी हुई थी। अचानक सुलोचना के बाबूजी की तबियत ख़राब होने का तार मिला और तार मिलते ही दोनों लोग अपने तीन महीने की बच्ची को लेकर निकल पड़े थे। 

पहले झाँसी से ट्रेन से आगरा आये थे फिर रोडवेज़ की बस से जसराना आ गए थे। अब यहाँ से गाँव लगभग पाँच किलोमीटर दूर पड़ता था। सामान्यतः तो चिट्ठी भेज देने से बैलगाड़ी यहाँ सूर्यास्त तक इंतज़ार करती थी और जितने भी लोग आने वाले होते उनको साथ लेकर जाती थी। इस बार अचानक कार्यक्रम बना और थोड़ा ज़्यादा ही लेट हो गए, तो जसराना आते-आते ही अँधेरा हो चला था। रात के लगभग 11 बज गए थे। गाँवों कि ज़िन्दगी में ऐसे भी सूर्यास्त के समय ही अँधेरा होने लगता था। ये क्षेत्र डाकुओं के लिए बदनाम था। अब दोनों पति-पत्नी अपनी नवजात बच्ची को लिए हुए तेज़ी से चले जा रहे थे। पति के हाथ में सामान का बैग था और पत्नी की गोद में तीन महीने की बच्ची थी। 

सर्दी का समय था, अँधेरा हो गया था और डाकू बहुल क्षेत्र होने के कारण अब कोई वाहन मिलना मुश्किल ही था। दिन का समय होता तो कोई ना कोई ट्रेक्टर या बैलगाड़ी मिल ही जाती, पर अब तो पाँच किलोमीटर पैदल ही तय करना था इस सुनसान में। 

स्याह अँधेरी अमावस की रात और डाकुओं का डर, ऐसे में दम्पति डरते-डरते चले जा रहे थे। आसपास खेत और घने पेड़ थे। लगातार चोरी और डाके की ख़बरें वो लोग सुनते ही रहते थे इस क्षेत्र में। ये क्षेत्र डाकुओं की कहानियों से भरा पड़ा था। अमूमन ये डाकू आसपास के गाँवों से ही आते थे। दिन में गाँवों में ही आम ज़िन्दगी जीते थे और रात में चोरी और लूट का काम करते थे। ऐसा भी सुनने में आता था कि कभी-कभी ये डाकू ज़्यादा सामान न मिलने पर लोगों को जान से मार देते थे। 

हम इंसानों का एक मूलभूत स्वभाव होता है कि जब भी कोई विपत्ति में पड़ते हैं तो हमेशा किसी और को क़सूरवार ठहराना चाहते हैं। उसी तरह आज इस मुश्किल की घड़ी में सुरेश सुलोचना के गाँव को कोसता हुआ जा रहा था, साथ ही उस लम्हे को कोस रहा था, जब इतने दूर के गाँव की लड़की से शादी की और आज ये विपत्ति आन पड़ी है। सुलोचना चुपचाप सब सुनते हुए चली जा रही थी। वैसे भी जबसे उसे बेटी हुई थी, तब से सुरेश उससे कुछ कटा हुआ ही रह रहा था। बेटी के साथ खेलना तो दूर उसे गोद भी नहीं लेता था। 

ख़ैर, कच्ची सड़क पर दोनों पति पत्नी किसी अनिष्ट की आशंका के साथ धड़कता हुआ दिल लिए चले जा रहे थे। अचानक पास की झाड़ियों में कुछ सरसराहट हुई। दम्पति ने एक दूसरे की ओर देखा और थोड़ा तेज़ी से चलना शुरू कर दिया। अचानक सरसराहट बढ़ गयी और फिर एक टोर्च की रोशनी चमकी और 4-6 लोग दाएँ-बाएँ तरफ़ से सड़क पर आ गए। दम्पति को मानो, काटो तो ख़ून नहीं! दो डाकू उनके दाएँ खड़े हो गए और दो उनके बाएँ खड़े हो गए। एक सामने खड़ा था। उसके पीछे अँधेरे में कम्बल लपेटे हुए एक और डाकू खड़ा था। 

सभी डाकू हाथ में हँसिया और लाठी लिए थे। बस कम्बल वाला आदमी एक बन्दूक लिए हुए था और हाव-भाव से वो इनका सरगना मालूम होता था। 

डर के मारे पति-पत्नी की घिग्घी बँधी हुई थी। तभी आगे खड़े डाकू ने टॉर्च की रोशनी सड़क पर मारी और उस रोशनी में एक अँगोछा सड़क पर बिछाया और दम्पति की ओर देखकर चिल्लाया कि जो भी सामान, नक़दी, गहने वग़ैरह हों, इस पर रख दो। पति-पत्नी तो डरे हुए थे, पति सोच रहा था कैसे भी जान छूटे आज। दिमाग़ काम करना बंद कर चुका था। पति ने अपना पर्स, घड़ी और जो थोड़ा नक़द रखा था जेब में वो अँगोछे पर रख दिया। 

डाकू भड़का, “बस इतना सा सामान? मज़ाक़ है क्या ये?” 

अब पति पत्नी डर गए। उन्हें पता था कि इन डाकुओं का कुछ भरोसा नहीं होता। यहीं लूट-पाट करके मार कर डाल देते हैं मुसाफ़िरों को। ऐसी कितनी ही कहानियाँ सुन रखी थीं उन्होंने। 

डरते-डरते पति बोला, “भैया अब कुछ है नहीं हमारे पास।” 

डाकू बोला, “बेवुकूफ़ समझते हो हमें?” 

आदमी की बोलती बंद थी, महिला की भी आँखों में डर के मारे आँसू आ रहे थे। बच्ची भी भूख से व्याकुल होकर रोने लगी। 

महिला डर से कँपकँपाते बोली, “भैया! जो कुछ था यहीं रख दिया। बड़ी दूर से आ रहे हैं हम। पिताजी की तबियत की ख़बर सुनी, तो भैया जैसे बैठे थे, वैसे ही भागे। शादी के बाद से गाँव नहीं जा पायी हूँ। अभी बच्चा होने के बाद दो साल में पहली बार अपने घर जा रही थी। आते-आते लेट हो गए। गाड़ी घोड़ा कुछ नहीं मिला हमें और जाना ज़रूरी था तो पैदल ही निकल पड़े। भैया जाने दो हमें।” 

डाकू ने अपने सरदार की तरफ़ देखा। सरदार ने कुछ इशारा किया, तो डाकू सामान उठाते हुए बोला, “ठीक है जाओ। कौन सा गाँव है तुम्हारा?” 

महिला बोली, “जसरामपुर!” 

गाँव का नाम सुनते ही सामान समेटते हाथ एक दम ठिठक गए और वातावरण में एक निःस्तब्धता-सी छा गयी। सामान समेट रहे डाकू ने अपने सरदार की तरफ़ देखा। सरदार दो क़दम आगे आया पहली बार उसका चेहरा हल्का-सा दिखाई दे रहा था। लम्बी-चौड़ी क़द काठी थी उसकी। 

उसने पूछा, “किसके घर जाना है जसरामपुर में?” 

महिला बोली, “भैया मास्टर साब के यहाँ।” 

सरदार ने फिर पूछा, “मास्टर रघुबीर सिंह?” 

महिला ने कहा, “हाँ भैया!” 

सरदार के स्वर में नर्मी थी, “उनकी बेटी हो तुम?” 

महिला ने कहा, “हाँ, भैया।” 

महिला की घबराहट बढ़ रही थी कहीं कोई दुश्मनी ना निकला आये इन लोगों कि उसके गाँव से या उसके बाबू जी से। 

सरदार ने अपने साथी को पास बुलाकर फुसफुसाते हुए कुछ कहा और थोड़ा पीछे हट गया। डाकू जिसके पास सारा सामान था, उसने सारा सामान सुरेश को दे दिया। 

पति पत्नी दोनों को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि ये क्या हो रहा था? दोनों हतप्रभ से सारे घटनाक्रम को देख रहे थे और चीज़ों का मतलब समझने की कोशिश कर रहे थे। 

सरदार ने नवजात बच्चे की तरफ़ इशारा करके पूछा, “ये तुम्हारा बेटा है कि बेटी?” 

महिला बोली, “बेटी है भैया।” 

सरदार ने अपने साथी को कुछ इशारा किया और जाने के लिए मुड़ गया। 

डकैत महिला के पास आया और बच्चे को एक नज़र देखकर उसके हाथ में कुछ रख दिया। 

सभी डाकू जाने के लिए मुड़े, तो पति ने पूछा, “भैया आपके सरदार ने क्या बोला था आपको?” 

डाकू बोला, “सरदार ने कहा कि जाने दो इनको अपने गाँव की बेटी है।” 

इसके बाद डाकू चले गए। पति पत्नी हतप्रभ से चुपचाप अपने रास्ते चल दिए। 

अचानक महिला को याद आया तो उसने बच्ची का हाथ टटोला। देखा कि बच्ची के हाथ में 51 रुपये थे। पति ने आश्चर्य से पत्नी की ओर देखा तो पत्नी बोली, “चूँकि मैं उनके अपने गाँव की बेटी हूँ और उसने पहली बार मेरी बेटी को देखा तो नेग दिया है।” 

पहली बार सुरेश के चेहरे पर मुस्कान आई। 

जो हुआ उस पर दोनों पति-पत्नी भरोसा नहीं कर पा रहे थे और ईश्वर को लाख-लाख धन्यवाद देते हुए गाँव की ओर चले। 

जब सड़क से गाँव की लालटेनों कि रोशनी दिखनी शुरू हुई, तब सुरेश रुका और मुड़कर बोला, “आज तुम्हारी इस ‘गाँव की बेटी’ वाले डाकू ने मेरी आँखें खोल दीं। मुझे नहीं पता था कि आज भी गाँव वालों के संस्कार ज़िन्दा हैं।” 

ऐसा बोलकर उसने अपनी बेटी को गोद ले लिया। सुलोचना मुस्कुरा दी, सामने वो गाँव था, जिसकी वो बेटी है। 

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