एकाएक

सन्तोष सुपेकर (अंक: 216, नवम्बर प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

“बार-बार देखो, हज़ार बार देखो, ये देखने की चीज़ है हमारा दिल . . .” वे दो पहिया वाहन पर सवार होकर मुख्य मार्ग पर आये ही थे कि कानफोड़ू संगीत सुनायी पड़ा, आगे भीड़-भरी बारात जा रही थी, सड़क पर जाम लगा हुआ था। वाहनों के हॉर्न के शोर के बीच बैंड ज़ोरदार ढंग से बज रहा था, पटाखे फूट रहे थे, फूल फेंके जा रहे थे और बाराती झूम-झूमकर नाच रहे थे . . . 

“स्साले कुत्ते कहीं के!” बमुश्किल वाहन का सन्तुलन बनाते-बनाते उनके मुख से गालियाँ निकलीं। “रोज़ जाम, रोज़ जाम, सालों को यही सड़क मिलती है जाम लगाने के लिए, कभी बारातें, कभी जुलूस तो कभी क्या . . .”

दाँत पीसते, ग़ुस्से में बड़बड़ाते उनकी नज़र जब वाहन पर आगे खड़े अपने चार वर्षीय बेटे पर पड़ी तो हतप्रभ रह गये। नन्हा बेटा वाहन पर खड़ा-खड़ा ही संगीत की धुन पर थिरक रहा था, तेज़ी से हाथ, गर्दन और जिस्म हिला रहा था, मुस्कुरा रहा था . . . 

इतने घुटन भरे माहौल में भी बच्चे को ख़ुश देख वे सोच में पड़ गये, अपने ग़ुस्से पर उन्हें शर्म आने लगी। वही संगीत अब कानफोड़ू नहीं, मधुर लगने लगा, तनी हुई भौंहें और ग़ुस्से से लाल चेहरा अब सामान्य होने लगा। होंठों पर मुस्कान आ गयी और एकाएक उन्होंने एक निर्णय ले लिया। 

वाहन को सड़क के कोने में तालित कर उन्होंने बच्चे को गोद में उठाया, चूमा, नाचते-गाते बारातियों के पास पहुँचे और तेज़ बजते संगीत पर ज़ोर-ज़ोर से हाथ-पाँव हिलाते हुए नाचने लगे, गाते हुए थिरकने लगे। बच्चा उन्हें देख आश्चर्य से हँसा तो वे भी नाचते-नाचते ठहाके लगाने लगे। 

उन्हें ऐसा लग रहा था कि नाच नहीं रहे हों, बरसों से अन्दर तक गहरी बैठी नकारात्मकता और कुण्ठा को नोच-नोचकर अपने व्यक्तित्व से अलग कर रहे हों, एक लिजलिजी मानसिकता से छुटकारा पा रहे हों। 

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