एक मौन मार्गदर्शक
महिमा सामंत
“जिस समाज में शिक्षक न हों, वह समाज ऐसा है जैसे हृदय के बिना शरीर—केवल एक जीवित मृत देह।” यह पंक्ति कोई मात्र उक्ति नहीं, बल्कि जीवन का सार है। एक डॉक्टर जीवन बचाता है, एक इंजीनियर तकनीक गढ़ता है, एक वैज्ञानिक आविष्कार करता है—परन्तु इन सभी को ज्ञान, दृष्टिकोण और मूल्य देने वाला कौन है? उत्तर स्पष्ट है—गुरु। दुर्भाग्यवश, आज उसी गुरु का सम्मान और उनका सान्निध्य धीरे-धीरे धुँधलाता जा रहा है। आज की प्रतियोगिता-प्रधान दुनिया में विद्यार्थी प्रथम स्थान, ऊँची नौकरियाँ और बड़ा वेतन पाने की होड़ में लगे हैं। परन्तु इस सफलता के वास्तविक शिल्पी—शिक्षक— को भुला देने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। पुरस्कार ग्रहण करने वाला छात्र भी शायद ही कभी अपने शिक्षक का नाम लेता है। यह स्थिति हमारे लिए आत्मचिंतन का अवसर है।
आज अधिकांश लोग केवल धन और पद की ओर भाग रहे हैं। पर यदि सभी यही सोचें कि केवल पैसा और ताक़त ही अंतिम लक्ष्य हैं, तो कोई भी शिक्षक बनने का संकल्प क्यों करेगा? फिर डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक और प्रशासक जैसे व्यक्ति किस नैतिक मार्गदर्शन से गढ़े जाएँगे? जैसे बीज बोए बिना पौधा नहीं उगता, वैसे ही समाज गुरु के बिना विकास के प्रकाश से वंचित हो जाता है। एक समय था जब बच्चों की ज़ुबान पर रहता था—“अन्नदाता किसान, ज्ञानदाता गुरु।” लेकिन आज के समय में प्रश्न कुछ और हैं—“पैकेज कितना मिलेगा?”, “प्रमोशन की संभावनाएँ क्या हैं?”, “विदेश जाने का मौक़ा है या नहीं?” डॉक्टर, IAS, इंजीनियर—इन पेशों को पहचान और प्रतिष्ठा मिलती है। परन्तु शिक्षक के हृदय में जो समर्पण, प्रेम और बच्चों को सँवारने की भावना होती है, उसे किसी धन से नहीं तौला जा सकता। आज “गुरु” शब्द का अर्थ है, परन्तु उसके स्थान का जो सम्मान मिलना चाहिए, वह दिन-ब-दिन क्षीण होता जा रहा है। यह किसी भी समाज के पतन का संकेत है। क्योंकि किसी राष्ट्र की प्रगति की जड़ें शिक्षा में होती हैं—और शिक्षा की आत्मा, गुरु होते हैं।
गुरु केवल विद्यालयों तक सीमित नहीं होते; वे हमारे कॉलेज जीवन में भी हमारे भीतर सोचने की गहराई, धैर्य और संकल्प की शक्ति भरते हैं। मेरे जीवन में इसका एक सजीव उदाहरण है। मैंने एल.के.जी. से लेकर बी.एससी. तक हर कक्षा में उत्कृष्ट अंक प्राप्त किए। सभी विषयों में, मैं डिस्टिंक्शन से उत्तीर्ण होती रही। लेकिन बी.एससी. की अंतिम परीक्षाएँ कोविड के कारण विलंब से हुईं। उसी दौरान मेरा एम.एससी. में प्रवेश हो चुका था। ऑनलाइन कक्षाएँ शुरू हो गई थीं, लेकिन मैंने सारा ध्यान बी.एससी. परीक्षा पर केंद्रित कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि एम.एससी. की ऑनलाइन पढ़ाई मैं पूरी तरह से नहीं समझ पाई, और मेरी पहली आंतरिक परीक्षा में मेरे जीवन में पहली बार बहुत कम अंक आए। मैं मानसिक रूप से टूट चुकी थी। जो छात्रा हमेशा अव्वल आती थी, वह इस असफलता को सह नहीं पाई। मुझे लगा, यह कोर्स मेरे योग्य नहीं है। शायद मुझे इसे छोड़ देना चाहिए। इसी निराशा में मैंने अपने विभागाध्यक्ष मैडम से बात की। उन्होंने पाठ समाप्ति के बाद मुझे अलग से बुलाया—और लगभग दो घंटे तक शांतिपूर्वक मेरी सारी बातें सुनीं। उन्होंने कहा, एक बार अंक कम आ गए तो इसका अर्थ यह नहीं कि तुम इस कोर्स के योग्य नहीं हो। तुम्हारे भीतर इससे कहीं अधिक सामर्थ्य है। यह असफलता तुम्हारी कहानी का अंत नहीं, एक नई शुरूआत है। उनके शब्दों ने मुझे भीतर तक स्पर्श किया। उनका वह स्नेह, धैर्य और विश्वास मेरे लिए पाठ नहीं, जीवन का संदेश बन गया। मैंने पूरे समर्पण से पढ़ाई दोबारा शुरू की—और फिर आने वाली परीक्षाओं में अच्छे अंक प्राप्त किए। उन्होंने मुझे सिखाया कि गिरना असामान्य नहीं है—पर गिरकर उठना ही शिक्षा है।
गुरु अपने दुःखों को छिपा लेते हैं। उनके चेहरे पर मुस्कान हो सकती है, लेकिन उनके हृदय में अनेक व्यथाएँ दबी होती हैं। उनकी आँखों में चमक होती है, परन्तु भीतर गहरे संघर्ष की छाया होती है। फिर भी वे अपने विद्यार्थियों को अपने बच्चों की तरह मानकर प्रेमपूर्वक मार्गदर्शन करते हैं। वे सोचते हैं—“मैं इसे एक सफल व्यक्ति बनाना चाहता हूँ।” वे केवल पाठ नहीं पढ़ाते—बल्कि जीवन जीने की कला सिखाते हैं। उस प्रेम को मापा नहीं जा सकता, उस निष्ठा को तौला नहीं जा सकता। जब एक छात्र दुःख से गुज़र रहा होता है, तब उसका दुःख अपने अंदर समेटकर, धैर्य से उसके पास खड़ा रहने वाला व्यक्ति शिक्षक होता है। वह मन ही मन उसके लिए प्रार्थना करता है। ‘गुरु’ केवल पढ़ाने वाला नहीं होता—वह, वह छाया होता है जो गिरते हुए शिष्य को थाम लेता है। वह अपने वेतन की चिंता से अधिक, अपने शिष्य का भविष्य सँवारने की चिंता करता है। ऐसे त्याग, श्रद्धा और प्रेम की कोई क़ीमत नहीं लगाई जा सकती।
आज के समय का एक दुखद सत्य यह है कि छात्र शिक्षकों को केवल तभी याद करते हैं जब उन्हें कोई मदद चाहिए होती है—जैसे परीक्षा के समय, अंक की आवश्यकता, या किसी सिफ़ारिश के लिए। बाक़ी समय, वे नमस्कार तक नहीं करते। शिक्षक दिवस या किसी उपलब्धि पर भी अधिकांश छात्र उन्हें याद नहीं करते। लेकिन जब जीवन में कोई संकट आता है—सबसे पहले जिनकी याद आती है, वे वही गुरु होते हैं। कुछ छात्र केवल अंक पाने के लिए मुस्कुराते हैं, कुछ तो नाटकीय रूप से ‘नम्रता’ का अभिनय करते हैं। यह शिक्षकों को पीड़ा देता है, लेकिन वे अपनी स्नेह देने की परंपरा नहीं छोड़ते। वे सच्चे मन से देते हैं—क्योंकि वही उनका ध्यान, वही उनका तप है। शिक्षक छात्रों की छाया में अपना उजाला ढूँढ़ते हैं। जब छात्र का जीवन सफल होता है, तब शिक्षक के दुःख का भी अर्थ होता है। शिक्षकों को दिखाया गया आदर यदि केवल पढ़ाई के समय तक सीमित हो, तो वह सच्चा नहीं होता। सच्चा सम्मान तब होता है जब पढ़ाई समाप्त हो चुकी होती है, जब शिक्षक अब पढ़ा नहीं रहे, और तब भी कोई छात्र उन्हें याद करे, संपर्क करे, और आभार प्रकट करे—वही होती है सच्ची श्रद्धा, वही होता है शुद्ध स्मरण। गुरु रहें तो प्रकाश रहता है—वरना हम डिग्रियों के बक्सों में मूल्यहीन जीव मात्र बनकर रह जाते हैं।
गुरु का सम्मान करना कोई औपचारिक शिष्टाचार नहीं, यह एक सांस्कृतिक उत्तरदायित्व है। वे केवल वेतन नहीं कमाते—वे राष्ट्र की नींव गढ़ते हैं। इसलिए हमें शिक्षकों को बेहतर वेतन, सुरक्षित नौकरी और मानसिक समर्थन देने के विषय में गंभीरता से विचार करना चाहिए। माता-पिता को अपने बच्चों में ‘गुरु के प्रति सम्मान’ का मूल्य स्थापित करना चाहिए। क्योंकि जिस समाज में गुरु का अस्तित्व नहीं होता, वह अँधेरे रास्ते जैसा होता है। अब समय आ गया है कि हम गुरु की प्रतिष्ठा को पुनर्स्थापित करें। गुरु एक जलता हुआ दीपक है—और उस प्रकाश को बुझने से बचाना हमारी ज़िम्मेदारी है। यही समय की पुकार है—हमें ‘शिक्षक एक निष्क्रिय पेशा है’ जैसे दुर्भाग्यपूर्ण दृष्टिकोण को त्याग कर उन्हें वह सच्चा सम्मान देना होगा जिसके वे अधिकारी हैं।