एक दुनिया में दो दुनियाओं का साक्षात् कराता उपन्यास, ‘साँप’

15-02-2024

एक दुनिया में दो दुनियाओं का साक्षात् कराता उपन्यास, ‘साँप’

डॉ. अमित धर्मसिंह (अंक: 247, फरवरी द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

समीक्षित पुस्तक: साँप (उपन्यास)
उपन्यासकार: रत्नकुमार सांभरिया
प्रकाशक: सेतु प्रकाशन, प्रा. लि., सी -21, सेक्टर जेड 65, नोएडा, उत्तर प्रदेश, भारत, पिन कोड -201301
मूल्य: ₹375.00 (पेपरबैक)
पृष्ठ सं: 474
प्रथम संस्करण: 2022

हाल ही में सेतु प्रकाशन, नोएडा से प्रकाशित ‘साँप’ उपन्‍यास अपने आप में एक अनुपम कृति है। कहानी, लघुकथा, एकांकी, नाटक, समीक्षा आलोचना के दर्जनों संग्रह लिख चुके जनकथाकार रत्नकुमार सांभरिया का प्रथम उपन्यास ‘साँप’ प्रकाशित हुआ। यह उपन्यास घुमंतुओं के जीवन पर आधारित है। उपन्यास में कुल पैंतीस परिच्छेद हैं, जिनमें से अधिकांश परिच्छेद हँस, कथादेश, इण्‍डिया टुडे साहित्‍य वार्षिक, परिकथा, नयापथ, नवनीत, साहित्‍यकुंज नेट कैनेडा, साहित्‍य समर्थक जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। हिंदी साहित्य में घुमंतुओं के जीवन और उनकी दुश्‍वारियों पर यह पहला उपन्यास है, जो उनके जीवन का वास्तविक परिचय प्रस्तुत करता है। उनकी सामाजिक और आर्थिक त्रासदी को सामने लाता है। उनके संघर्ष और विजय का बाइस बनता है। उपन्यास में लखीनाथ सँपेरा, भलीराम मदारी, मनीराम, तीनों की पत्नियाँ क्रमशः रमतीबाई, सरकीबाई और रोशनीबाई। सेठ मुकुंददास, सुकुंददास, दोनों की पत्नियाँ क्रमशः मिलनदेवी और सूरतदेवी के अतिरिक्त डॉ. एल.एल. साध, डॉ. ऐन. बाला, महिला एस.पी. धर्मकंवर आदि प्रमुख पात्र हैं। 

कथानक मिलनदेवी और लखीनाथ सँपेरे के इर्द-गिर्द बुनी गई है। दोनों नायक और नायिका हैं और इनके ‘एक्स्ट्रा मैरिटल अफ़ेयर’ (अतिरिक्त वैवाहिक प्रेम प्रसंग) को दर्शाया गया है। दोनों का अनाम प्रेम और घुमंतुओं के लिए किया गया सामाजिक संघर्ष उपन्यास को परवान चढ़ाते हैं। दोनों के प्रेम और संघर्ष की औपन्यासिक यात्रा में दो दुनियाओं का साक्षात् होता चलता है। विज्ञान की खोज बताती है कि हम इस ब्रह्माण्ड में अकेले हैं। अभी तक ज्ञात यूनिवर्स में पृथ्वी की तरह की कोई दूसरी दुनिया ज्ञात नहीं हो सकी है। इस नाते हम इंसानों की पृथ्वी पर एकमात्र दुनिया है। यह भी सत्य है कि इस एक दुनिया में प्रत्येक मनुष्य की एक अलग दुनिया है। इतना ही नहीं, प्रत्येक प्राणी समाज की दुनिया में भी अनेक दुनियाएँ अंतर्गुंफित हैं। मनुष्य समाज भी इसका अपवाद नहीं। इसकी दुनिया में भी न जाने कितनी दुनियाएँ, प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष रूप से समायी हुई हैं। कह सकते हैं कि प्रत्येक स्तर और नज़रिए से इस एक दुनिया में कई-कई दुनियाएँ अंतर्व्याप्त हैं। एक दुनिया सर्वहारा यानी शोषित की है। एक दुनिया शोषक की है। एक दुनिया सेठ मुकुंददास और सुकुंददास की है। एक दुनिया ‘बंजारा की थड़ी’ यानी ख़ानाबदोशों की है। एक दुनिया मिलनदेवी की है। एक दुनिया लखीनाथ की है। सबकी जीवंत बानगी साँप उपन्यास में दिखाई पड़ती हैं। 

उपन्यासकार ने इस तथ्य को इस प्रकार स्वीकार किया है, “जिस अभिजात दुनिया को हम मख़मली देखते हैं न, वह छल-कपट, मोह-माया, दाम-साम के पैबंदों ढकी है। असली दुनिया तो सर्वहारा है। बिना दंभ-द्वेष, लोभ-लालच, हाय-हाय, निर्लेप है। ग़रीबी आत्मीयता है, आत्मसुख है। सचमुच दो दुनियाएँ हैं यहाँ। ग़रीब दुनिया। अमीर दुनिया। ग़रीब की दुनिया खरबूजे की तरह है। वह बाहर से अलग-अलग धारियों में दिखकर भी भीतर से एक है। अमीर दुनिया नारंगी की तरह से है। वह बाहर से एक जैसी होकर भी भीतर से फाँक-फाँक है।”(साँप, पृष्ठ 30) दोनों दुनियाओं में निवास करने वाली ज़िंदगियों में अनेक प्रकार की भिन्नताएँ हैं। नींव में से साँप पकड़ते लखीनाथ को देख, सेठ मुकुंददास ठीक ही सोचते हैं, “ज़िन्दगी-ज़िन्दगी में कितना अंतर है। एक ज़िन्दगी मौत रूपी सर्प को पकड़ने के लिए आतुर है। दूसरी ज़िन्दगी पेट के लिए मौत को पकड़ने के लिए अकुलायी है। अकिंचन होकर भी इनका अंतर्जीवन कितना संपन्न है। संपन्न होकर भी हमारा अंतर्जीवन कितना अकिंचन है। हम अपना अंतर्जीवन अकिंचन रखकर भी बाह्य जीवन रुपहला रखना धर्म समझते हैं। यही न कि लोक अर्थ को युग का देवता कहा जाता है।”(साँप, पृष्ठ 35) यह जो दो ज़िन्दगी और दो दुनियाओं का अंतर है, उपन्यास में इसे अमीर-ग़रीब, ऊँच–नीच सामाजिक परिवेश, संस्कृति-सभ्यता, धर्म-कर्म, स्त्री-पुरुष, प्रेम और चरित्र आदि के रूप में विस्तार से देखा जा सकता है।

भारतीय समाज में अमीरी–ग़रीबी की खाई है। ऊँच–नीच का भेद है। जाति-पाति का दंश है। स्त्री-पुरुष का अंतर है। सर्वहारा-पूँजीपति का संघर्ष है। राजनीति का अपराधीकरण है। संसाधनों की लूट है। साहूकारी और सरमायेदारी का चलन है। शासन-प्रशासन की मनमानियाँ हैं। और हैं, हाशिए के समाज की दारुण दशाएँ, उपेक्षाएँ और वर्जनाएँ। सभी की झलक यथा-तथा साँप उपन्यास में दिखाई पड़ती हैं। अमीरी–ग़रीबी की खाई को दर्शाते हुए उपन्यासकार ने लिखा है, “गाँवों के किसानों की उधारी सेठ जी की दुकान की प्राणवायु थी। किसान चीज़-बसत, सौदा-सुलफ़ ले जाते और फ़सल पर हिसाब चुकता कर देते थे सूद समेत। पीढ़ी दर पीढ़ी का यक़ीन क़ायम था। इधर सरमायेदारी से जुड़ा शोषण, उधर अज्ञानता से जुड़ी मजबूरी थी।”(साँप, पृष्ठ 15) सेठ मुकुंददास स्वयं भी इस अंतर को महसूस करते हैं। “उन्होंने अपराधबोध में सन्नद्ध साँस मारी, मैं किसानों को देते भी खाता हूँ। किसानों से लेते भी खाता हूँ। सुबह तेल-दीया, जोत और धूपबत्ती के बाद से ही पासंग बट्टा शुरू हो जाता है। पाप-शाप। निःसंतान हूँ।”(साँप, पृष्ठ 35) आज़ादी के सात दशकों बाद भी ग़रीबों, किसानों, घुमंतुओं और दलितों की सामाजिक-आर्थिक परिस्थिति में कुछ ख़ास फ़र्क़ नहीं आया है। तभी तो उपन्यासकार लिखता है कि “अंग्रेजी साम्राज्य से निचुड़े दरिद्र देश में श्रीसंपत्ति से संपन्न यह कौन-सा देश है, जो हमारी छाती पर आ बैठा है।”(साँप, पृष्ठ 12) अँग्रेज़ों के बाद से देश में राज कर रहे राजशाहों ने कभी भी अमीरी–ग़रीबी की बढ़ती खाई को पाटने की कोशिश नहीं की। अपनी सत्ता क़ायम रखने और अपना घर भरने पर ध्यान दिया। उनकी लोभी प्रवृत्ति और देश के प्रति ग़ैर ज़िम्मेदारी पर तंज़ कसते हुए सेठ मुकुंददास ठीक ही सोचते हैं, “गरीब रखकर ग़रीबी मिटाने वाले देश के योजनाकारों की जय हो। प्रधानमंत्री की जय हो। मुख्यमंत्री की जय हो। मंत्रियों की जय हो। नेताओं की जय हो। जय हो! जय हो! जय हो!”(साँप, पृष्ठ 29) 

एक तरफ़ सत्ताधीशों ने देश को ग़रीबी की खाई में धकेल रखा है। दूसरी तरफ़ समाज के ठेकेदारों ने समाज को जातिगत भेदभाव की आग में झुलसा रखा है। उच्च वर्ण, धर्म और जाति के लोग ग़रीबों, दलितों, घुमंतुओं, ख़ानाबदोशों, आदिवासियों आदि के साथ जातिगत भेदभाव बरतते हैं। उन्हें जब उनसे काम लेना होता है तो उनकी मान-मनुहार तक कर लेते हैं। जब काम निकल जाता है तो फिर उनका जातीय अहम ज़ोर मारने लगता है। ऐसा ही कुछ लखीनाथ सँपेरे के साथ होता है। सेठ मुकुंददास को उससे नींव के बिल में घुसे साँप को पकड़वाना होता है, तब तो वह उसे खोजते हुए बंजारा की थड़ी तक पहुँच जाते हैं। मुँह माँगे दामों पर, बग़ैर जात-बिरादरी का पता लगाए, अपनी कार में बैठाकर प्लॉट पर ले जाता है। जान जोखिम में डालकर लखीनाथ नींव में से साँप पकड़कर, अपनी टोकरी में बंद कर लेता है। यहाँ तक तो सब ठीक रहता है, किन्तु वापस बंजारा की थड़ी पर छोड़ने जाते वक़्त सेठ को उसकी छोटी जात और हैसियत का ख़्याल आ जाता है। “लखीनाथ को आगे की सीट पर साँप की टोकरी जाँघों पर रखे बैठा देख, सेठ के अंतस में धक हुई। यह धक वह नहीं थी, जो नींव के बिल में घुसे नाग को लेकर हुई थी। गरज नहीं रही। हिक़ारत के साथ बड़ी जात का हिंस्र दंभ पगुरा था। गाड़ी की डिक्की खोलते हुए उन्होंने लखीनाथ से कहा, “सपेरा डिक्की खोल दी है, मैंने। टोकरी रख दे उसमें और पीछे की सीट पर जा बैठ, जहाँ मज़दूर बैठा था।”(साँप, पृष्ठ 50) काम निकलने के बाद, सेठ के इस स्वभाव से लखीनाथ बहुत खिन्न हुआ। “लखीनाथ ने लंबी साँस छोड़ी, काँटों चुभो सपेरो याद आयो। मोटरगाड़ी में बैठायो, आगे। अपणे पास वाली सीट पे। सारी राह भी सपेरो ना कही मुँह से। काँटों निकल गयो, सपेरो हो गयो मैं। बात में इसी दुत्कार, मिणख-माणस ना, जींव जिनावर होऊँ। घिरणा फुचकी-पीछे बैठ सपेरा।” 

ऐसा ही वाक़या उस समय घटित होता है जब सेठ मुकुंददास मिलन के सिर में साँप घुसने के कारण, पुनः लखीनाथ को बुलाने उसके डेरे जाता है। रमतीबाई उसके लिए थाली में रखकर पानी का गिलास लेकर आती है। “थाली आगे बढ़ाए खड़ी सपेरन को देखकर धर्मनिष्ठ सेठ जी सिकुड़ गए। जैसे कछुआ अपनी काया में सिकुड़ता है। साँसें ऊपर-नीचे होने लगी। एक पलड़े पर अपनी जात की ऊँचाई। दूसरे पलड़े पर नीची जात की निचाई थी। धर्म-अधर्म। उन्होंने वक़्त की नब्ज़ टटोलती उबकाई ली। गरज का मोल आदमी की औक़ात से बड़ा हुआ करता है। केवट के सम्मुख राम असहाय थे। सेठ जी ने अपने हाथ धुलवाए। गिलास हाथों में लिया। वे गिलास के पानी को इस आजिज़ी से निहारते रहे, मानो पानी की जात देख रहे हों। यह ऐसा संकट था, जो धर्म में सन्नद्ध था और धर्म के संकट को बिना फ़रेब टाला नहीं जा सकता। उन्होंने गिलास का किनार होंठों से छू ज़रूर लिया था, पानी कंठ तक नहीं जाने दिया। साँप मार दिया, लाठी बचा ली। धर्म बचा रह गया। ख़ुद बचे रह गए।”(साँप, पृष्ठ 73-74) जातिगत भेदभाव का उदाहरण उस समय भी सामने आता है, जब समाज कल्याण मंत्री डेरे के लोगों को प्लॉट का पट्टा वितरित कर रहे थे। “मंत्री जी को ख़ूब प्यास थी, पर सँपेरे के हाथ का पानी पिए! हिक़ारत से न केवल उसके नाक-भौं सिकुड़ गए, हृदय भी छोटा होता गया। मन के हेय को सादगी के आवरण से ढकते हुए बोले–“नहीं, नहीं मुझे प्यास नहीं है।”(साँप, पृष्ठ 268)। जबकि यही मंत्री साहब महिला विकास मंत्री के हाथ का झारा गटागट पी जाते हैं। “घुमंतू के झारा का जल अछूत था। महिला विकास मंत्री के हाथों आते ही सछूत हो गया। छोटी जात से बड़ी जात के घर आई दुधारू का दूध पवित्र हो जाता है। मंत्री जी ने झारा कलेक्टर की ओर बढ़ा दिया। कलेक्टर से एस.पी., एस.पी. से ए.डी.एम., ए.डी.एम. से एस.डी.एम. . . .! झारा कद-पद के लिहाज़ से आगे बढ़ता रहा। ख़ाली होता रहा। भरता रहा।”(साँप, पृष्ठ 269) 

ठेकेदार को भी अपनी ऊँची जाति पर बड़ा गुमान था। तभी तो “ठेकदार अपनी जात और ठेकेदारी के अहम पहले बैठ गया और पांयती थपक दी–“बैठ लखीनाथ।”(साँप, पृष्ठ 291) मीघा के हाथ का पानी पीने में ठेकेदार के भी प्राण सूख जाते हैं। मीघा जब ठेकेदार के लिए पानी लाया तो, “ठेकेदार ने लोटा हाथ में ले ज़रूर लिया, मन बैठ गया। डेरे की कंगाली-बदहाली। मीघा, गरीबी-गंदगी का जीव जूण। उसे घिन सी आयी। हाथ में पानी का लोटा, साँप के मुँह छछूंदर।”(साँप, पृष्ठ 292) कुल मिलाकर, समाज में तथाकथित ऊँचे लोगों द्वारा जातिगत भेदभाव बरता जाता है। उनका यह स्वभाव और भेदभाव सदियों से लेकर आज तक बदस्तूर जारी है। लाख कोशिशों के बाद भी, उनकी निकृष्ठ सोच को बदला नहीं जा सका है। 

शासन-प्रशासन की उपेक्षा और सामाजिक भेदभाव ने इस एक दुनिया को, न जाने कितनी दुनियाओं में विभक्त कर दिया है। ऊपर भी कहा जा चुका है कि सेठ मुकुंददास, सुकुंददास की दुनिया अलग है और लखीनाथ और भलीराम की दुनिया अलग। नगरों के पोश इलाक़ों की दुनिया अलग है और फुटपाथों या मुख्य बस्तियों के बाहर डेरा जमाए घुमंतुओं, ख़ानाबदोशों की दुनिया अलग। दोनों दुनियाओं की अमीरी-गरीबी जनित परिवेश एक दूसरे से बिल्कुल अलहदा है। दोनों को देखकर लगता नहीं कि ये दोनों ही परिवेश या दृश्य किसी एक ही देश या एक दुनिया के हैं। नगर में सेठ मुकुंददास की कोठी के निर्माण की नींव रखते समय जो तैयारियाँ हो रही हैं, वह काबिलेगौर है, “मिथ चला है। ब्राह्मण प्रज्ञा से, क्षत्रिय बल से, वैश्य धन से ऊँचे हैं। शूद्र मेहनतकश होकर भी नीचे हैं। ब्याह-शादी लग्न-मुहूर्त, जन्म-जामना जैसे मांगलिक अवसरों पर ब्राह्मण भाल पर त्रिपुंड लगाकर, क्षत्रिय अहम दिखाकर और वैश्य वस्त्राभूषणों से अपनी शोहरत दर्शाया करते हैं। सोने चाँदी के गोटे-किनारियों कढ़े परिधान, पके बेरों की पीली बरबेरी जैसी सोने के अभिसारों से लकदक सेठानी तन-धन को सँभालती, हर्षित मन आतीं गईं। दरियों पर बैठती गईं। स्वर्ण बटन लगे कुर्ते, कमीज़, जॉकेट, गले में सोने की एक लड़, दो लड़, त्रिलड़ चेनें, धोलपोश सेठ आते गए, दरियों पर विराजते गए। मानव नहीं, धन दौलत का सागर उमड़ा हो। कुबेर के नुमाइंदे हों।”(साँप, पृष्ठ 12) 

एक परिवेश ‘बंजारा की थड़ी’ वाली दुनिया का है। यह दुनिया बस्ती के बाहर थी। उपेक्षित, पिछड़ी, दरिद्र, विपन्न और शोषित दुनिया। “सामने किसी किसान का खेत था, ऊँचाई पर। उसके डोले पर झुग्गी, झोपड़ियों, डेरों के बरसात में भीगे फटे-पुराने कंबल, खेस, गुदड़ियाँ, लूगड़ियाँ, लुंगियाँ, तहमद, कमीज़, धोती, पाजामें, लहँगे और सलवार, चढ़ती धूप में सूख रहे थे। सेठ मुकुंददास ने साँस खींचकर साँस छोड़ी। पानी पड़ा था, रात। दिन भर खटे निःशंक सोए पड़े होंगे। झोपड़ियों की दीवारों पर चार-चार इंच तिनकों की टूटें और कूड़ा-करकट के अवशेष चिपके थे। झोपड़ियों में पानी भर गया था। गुदड़-गाबा, कपड़े-लत्ते, बरतन-भाँड़े भीग गए। ये लोग धरती पर सोते हैं। निरा जंगल है। साँप-बिच्छू, गोहरे, कीड़े-मकोड़े, कीट-पतंगें, मक्खी, मच्छर, डास हैं। मौत के साया जूझते बदनसीबों की बेकसी। पल, पहर, दिन, हफ़्ते, साल, सदियाँ दरिद्रता की दरिया में रहते बीत गए। भूख, ग़ुर्बत और तंगहाली! यातना शिविर जैसे डेरे। समाज के अपराधी। क़ुदरत के कैदी।”(साँप, पृष्ठ 28-29) मिलनदेवी इन्‍ही घुमंतुओं के लिए डेरे पक्के बनवाने हेतु अपनी सर्वे रिपोर्ट के साथ मंत्रीजी से मिलती है। तब वह भी, इस उपेक्षित और दरिद्र दुनिया के विषय में विस्तार से बताती है, “सर, प्रस्ताव उन वीरानों के कल्याणार्थ है, जो धरती बिछाते हैं, आकाश ओढ़ते हैं। अपने पसीने से नहाते हैं और भूख खाकर सो जाते हैं। यानी घुमंतू, घुमक्कड़, ख़ाना-बदोश . . . बाशिंदे कहाँ हैं, वे लोग? बाशिंदे या आदिवासी वे होते हैं, जिनके पास अपनी ज़मीन, अपना आसमान होता है। अपनी छाया होती है। अपना आशियाना होता है। वे तो घुमंतू हैं। न तो समाज का उनसे सरोकार है, न सरकार की संवेदनशीलता उनका साया है . . . उनके घूमने-फिरने, रहन-सहन, जीवनशैली को प्रारब्ध मान लिया गया है . . .। धज्जी-धज्जी ज़िंदगियाँ हैं। साँसें मौत की लय है। दुत्कार और थपेड़ों के गहरे ज़ख्म हैं। पैबन्दों से ढका कपड़ा अपना वुजूद खो देता है। दर्द और ज़ख़्मों ने उनको अपने ही मुल्क में बिना चेहरे के लोग बना दिया है। ना गाँव, ना छाँव। अनजान। बिन पहचान। नेचुरली हार्डन सर . . . कल्याणकारी योजनाओं की हवा नहीं है उन तक। समाज उनको स्वीकारता नहीं, सरकार तवज्जोह नहीं देती। पुलिस के डंडे हाँकते उनके डेरे यहाँ-वहाँ, उठते-पड़ते हैं।”(साँप, पृष्ठ 230-231) वह आगे कहती है, “सर, मैं डेरों में जाकर उनके दु:ख-दर्द जानने लगी हूँ। उनकी पीड़ा समझती हूँ। चल-अचल सम्पत्ति के नाम पर उनके पास गधे, कुत्ते, मुर्गे-मुर्गियाँ हैं। घर-संसार कपड़े-लत्तों की एक पोटली है। पोटली उनके कंधों पर या गधों की पीठ पर चलती है। जहाँ रख दिया, वहीं दुनिया बस गई। सर्दी-गर्मी, बरसात, आँधी-तूफ़ान, आला-कांकरा से पहला वास्ता उन्हीं का पड़ता है।”(साँप, पृष्ठ 232) उक्त वर्णन से संपन्न और निर्धन दुनिया को स्पष्ट समझा जा सकता है। दोनों दुनिया एक दूसरे से, हर स्तर से अलग हैं। एक-दूसरे से अनजानी हैं। आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी ये दुनियाएँ, एक-दूसरे में घुल मिल नहीं पायी हैं। घुमंतुओं, ख़ानाबदोशों को समाज की मुख्यधारा से जोड़ना तो दूर, कहीं-कहीं तो उनके वोटर आईडी कार्ड तक नहीं बनाए जा सके हैं। ऐसे में, उनका शैक्षिक और आर्थिक विकास नगण्य मात्र ही हुआ है। कोई सरकारी सेवा उन तक पहुँच नहीं पाती है। उनके विकास और पुनर्वास के प्रति अभी तक भी सरकार का रुझान नहीं हुआ है। न ही समाज में उनके प्रति बरते जाने वाले रवैए में बदलाव आया है। उनके साथ जातिगत, आर्थिक भेदभाव के साथ सांस्कृतिक और धार्मिक भेदभाव भी बरता जाता है। इस कारण उनके सांस्कृतिक और धार्मिक मूल्य भी अलगा गए हैं। 

संस्कृति का सबसे अहम हिस्सा धर्म है। हर जाति बिरादरी और नस्ल के लोगों के बीच, धर्म किसी न किसी रूप में विद्यमान है। सभी में तरह-तरह के सांस्कृतिक और धार्मिक संस्कार, मान्यताएँ और परंपराएँ प्रचलित हैं। भारत में इनका अंतरजाल काफ़ी सघन एवं जटिल है। स्वस्थ परंपराओं और तार्किक प्रचलनों को छोड़कर, बाक़ी सब धार्मिक कर्मकांड ढकोसला, आडंबर या फ़ालतू का रूढ़िवाद है। यह बात लगभग, कर्मकांड करने वाले और करवाने वाले दोनों जानते हैं। तभी तो नींव में साँप निकल आने से घबराया पंडित सच्चाई स्वीकारने लगता है, “पंडित जी की बेचैन अंतरात्‍मा फुसफुसाई, ‘सब प्रपंच है। पोपलीला है। धोखे की टट्टी है। आडंबर है। ढकोसला है। लोगों की आँखों में धूल झोंकने की चालाकी है। इन पोथी-पतरा, मंत्र-तंत्र में नहीं, नाग-नागिन में ही महात्म्य है, शक्ति है, क़ाबू करो नींव में बैठे नाग को। उन्होंने लंबी साँस मारी- ना धर्मशास्त्र। ना धर्मध्वजा। ना सत। ना करामात। ना चमत्कार। ना पंडिताई। ना प्रभुताई। भुजंग के भय सब धराशाही’।”(साँप, पृष्ठ 14) 

बावजूद इसके, पोथी-पतरा और तंत्र-मंत्र के कार्यों में न सिर्फ़ पंडित उलझे रहते हैं, अपितु ख़ासोआम भी इसके चंगुल में फँसे रहते हैं। एक, अपनी कमाई को लेकर और दूसरा धर्म-कर्म करता है। धर्म-कर्म को लाभानुसार और लोभानुसार ढाल भी लिया जाता है। ढलवा भी लिया जाता है। सेठ जी इस बात को बख़ूबी जानते हैं। “चिंता, भय, आकुल, और उहापोह की गिरफ़्त आए सेठ जी एक समय इतिहास के विद्यार्थी रहे थे। पुरोहिताई के दस्तूर की तवारीख़ बख़ूबी जानते थे। पंडित-पुजारी, धर्म-धोरा, युद्धध्वज नीचे झुकाकर तय क़ीमत पर शत्रु को विजयश्री दिलवा देते थे। उन्होंने अपनी जेब से बीस रुपए निकाले और पंडित जी के खुले पतरे पर रख दिए थे। बड़ा प्रलोभन था। पंडित जी ने आएँ-बाएँ देखा। आँखें झपकायीं। चुरायीं। दस-दस के दो नोट जेब में रखे और कहा, “ठीक है। पहर बदलने तक, यानी बारह बजे से पहले।”(साँप, पृष्ठ 16) पंडित जी धन पाकर, दोष निवारण करने को सहर्ष तैयार हो जाते हैं। 

उपन्यास में दूसरा उदाहरण उस समय मिलता है जब डेरा पक्का बनने के बाद, मंत्रीजी द्वारा स्कूल का शिलान्यास किया जाना था। “पाठशाला के शिलान्यास करने हेतु दो पंडितों (पंडित अमरनाथ और पंडित चरणदास) की व्यवस्था की गई। किन्तु गरज अड़ी थी। मुहूर्त इन्हीं के पतरा-पंचांग, योग, जोग, टेम-घड़ी, राशि-नक्षत्र नहीं, मंत्रीजी के निजी सचिवों के द्वारा तैयार शेड्यूल के मुताबिक़ हो रहे थे। शासन-प्रशासन का लवाजमा शिलान्यास स्थल पहुँच गया था . . . वे शिलान्यास स्थल की ओर बढ़ गए। महारथियों को धर्म की लीक का इतना भी भान नहीं, हवन आहूत कराने वाले पंडितों को कुछ दान-दक्षिणा दें। नींव में पाँच पत्थर रखे जायेंगे। एक ही आकर-प्रकार के पाँचों पत्थर छाँटकर साफ़ जल से धो लिए गए थे। सिंदूर टीककर रोली-मौली बाँध दी गई। मंत्रीगण अपने करकमलों से इनको नींव में रखेंगे। पहाड़ से निकलकर इतने अहम हो गए कि मंत्रियों के करकमलों से रखे जायेंगे।”(साँप, पृष्ठ 384-385) पंडितों ने मंत्रीजी की सुविधानुसार मुहूर्त निकाला, उपस्थित रहे और शिलान्यास संपन्न करवाया। पंडित और उसके पोथी-पतरा से बढ़कर मंत्रीजी का समय, आज्ञा और प्रभाव था। इसलिए पांडतों को मंत्रीजी के अनुसार ही सभी कार्य करने और करवाने पड़े। कुल मिलाकर, सारा खेल पैसे और प्रभाव का है। पंडित इन दोनों के सामने हमेशा ही नतमस्तक रहते हैं। घुमंतुओं की अपनी संस्कृति और धार्मिक मान्यताएँ हैं, जो किसी के प्रभाव में रहने अथवा धन-दौलत बटोरने की नहीं बल्कि सच्ची निष्ठा और श्रद्धा की है। यह उन्हें नैतिक रूप से सुरक्षित रखने, विपरीत परिस्थितियों में हौसला रखने, दुःख या हर्ष प्रकट करने की सलाहियत देती है। अपने पति की रक्षार्थ रमतीबाई ऐसा ही कुछ एहतियात बरतती है। उसकी मंशा किसी को ठगने की नहीं बल्कि ख़ुद को ठगे जाने से बचाने की होती है, “औरत के नाम की सौंह मरद के लिए निरी होवै। वह दौड़ी-दौड़ी बाहर मढ़ी तक आई। जोत की राख की चुटकी भर भभूत ली और लौटते क़दमों डेरे में आ गई। उसने पति के माथे पर राख का तिलक लगा दिया। उसके मिजान लक्ष्मणरेखा थी। बोली, “नाग देवता की भभूत है।”(साँप, पृष्ठ 191) वह नागदेवता से कामना करती है कि उसका पति किसी दूसरी औरत (मिलनदेवी) के मोहपाश में न फँसे। 

कुछेक कर्मकांड घुमंतुओं की जमात में शामिल बुझक्कड़ लोग भी किया करते हैं। उनके कर्मकांड अशिक्षा और आर्थिक दरिद्रता से उपजे हुए कर्मकांड दिखाई देते हैं। जिस समय मिलनदेवी और गणेशीलाल डेरों को पक्का करवाने हेतु सर्वे कर रहे थे, उस समय, एक बुझक्कड़ के विषय में जो जानकारी सामने आती है, उससे तो यही लगता है कि घुमंतुओं के सभी कर्मकांड सोची समझी साज़िश नहीं बल्कि अज्ञानता के द्योतक हैं। बानगी देखिए, “वह एक बुझक्कड़ का डेरा था। बुझक्कड़ डेरे से निकला हुआ था। वह डेरों के बीच बसर करता। इधर-उधर से टोना-टोटका भूत-प्रेत, भूत, वर्तमान, भविष्य का फ़रेब सीखकर निरक्षरों के बीच पंडित हुआ। जन्म-मरण शादी-विवाह की रस्में पूरी कराता। मंत्र-मौली, पूजा-पाठ पंडिताई करता, थोड़ा ऊँचा रहता था। गेट पर लटका तहमद हवा के झोंके से एक ओर सरक गया था। डेरे का भीतर प्रकट था। मिट्टी-गोबर लिपि-पुती दीवार के साथ देवी-देवताओं की मूर्तियाँ खड़ी थीं। तेल-सिन्दूर लिथड़ी मूर्तियों पर चढ़ाई मालाएँ सूखी पड़ी थीं। रेत के ढूह में खोंसी अगरबत्ती धीरे-धीरे सुलग रही थी।”(साँप, पृष्ठ 277) बुझक्कड़ की माली हालत बताती है कि वह संबंधित धार्मिक कर्मकांडों में संलिप्त तो था मगर पंडितों की उस जमात में शामिल नहीं था, जिसका मक़सद जनता को उल्लू गांठकर, धन और यश अर्जित करना मात्र होता है। 

दोनों के धर्म और संस्कृति में ख़ासा अंतर दिखाई पड़ता है। एक स्वपोषी और दूसरी परपोषी है। उपन्यासकार ने दोनों की तुलना बेरी और अमरबेल से ठीक ही की है। “नीम था, हरा कच्च। पहले का उगा खड़ा था। उसकी छाया के नीचे टूटे बान की झोली-झंखड़ सी खाट बिछी थी। ढीली ढंकड़। फ़ालतू पड़ी खाट के पायों से कुत्ता, बकरी बँधते थे, देर-सबेर। जेबड़ी टूटी सरकंडों खड़ी मूढ़ी पड़ी थी। सेठ जी की खाट पर बैठने की हिम्मत तो नहीं हुई, मूढ़ी पर बैठ गए थे। आधे धंसे सेठ जी को अपने घर के छह-छह इंच ऊँचे सोफा बरबस याद हो आए। विवशता ने मलाल पैदा कर दिया, आड़े वक़्त गधे को भी बाप बनाना पड़ता है। दूसरी ओर बेरी खड़ी थी। पीले-पीले डोरों सी एक बेल उस पर फैलने लगी थी। सेठ जी सहानुभूत हुए, “अमरबेल, शोषक संस्कृति की पहरुआ है। प्रश्रय देने वाले दरख़्त का हरा-हरा चूसकर ख़ुद पीली की पीली बनी रहती है। ख़ुद की जड़ें हैं नहीं, सबल को निर्मूल कर देती है। साँस मारी, बेरी की हरितिमा कितने दिन?”(साँप, पृष्ठ 73) 

सेठ मुकुंददास बंजारा की थड़ी की माली हालत देखकर क्षणिक रूप से अपनी शोषक संस्कृति के प्रति कुपित और चिंतित है। फिर भी आख़िर, सेठ थे। अपने अहम और धन से पले-पगे, सेठ। अपनी गरज, लखीनाथ को ले जाने के लिए गधे को बाप बनाए बैठा रहा। बड़ी विडंबना है कि धर्म-कर्म के सब ढकोसले या तो आमजन को बेवुक़ूफ़ बनाकर ठगने के लिए हैं अथवा निजी सेवा लेने के लिए। यही कारण है कि लखीनाथ अपने डेरे की नींव भरवाते समय, न तो कोई पूजा अर्चना करवाता है, न ही नींव में नाग-नागिन का जोड़ा रखवाता है। उसके लिए तो गुरु कानिपानाथ, परदादा सजनानाथ, दादा धवजानाथ, बाप देवानाथ, भाई सरूपानाथ में ही सब देवी-देवता समाए हुए थे। वह अपने पूर्वजों से बढ़कर किसी को नहीं मानता। वह इन्हीं पाँचों के नाम के पाँच पत्थर नींव में रखवाता है। “ना रोली-मौली, ना सिंदूर टीप, ना नाग-नागिन का जोड़ा, ना कलश, ना प्रसाद भोग, ना कारीगर का नेग सगुन। पाँचों पत्थर नींव में रखवा दिए गए थे। मिलनदेवी की नेकी लखीनाथ को रह-रह याद थी। लोक की अपनी कान है।”(साँप, पृष्ठ 303) लखीनाथ सभी धर्म-कर्म और देवी-देवता से बढ़कर मानव सेवा को मानता है। उसकी नज़रों में देवी-देवताओं से बढ़कर पूर्वजों का और पंडितों से बढ़कर मिलनदेवी का स्थान और दर्जा ऊँचा था। वह यह भी मानता है कि मंदिर-मस्जिद से बढ़कर, स्कूल मनुष्य का कल्याण कर सकते हैं। जब एक बूढ़ा लखीनाथ से मंदिर बनवाने की बाबत कहता है कि “वो सहरवाली बहणजी से कहके थोड़ी जगह में मंदर-देवरा बणवा ले। धर्म फले।”(साँप, पृष्ठ 309) तो लखीनाथ साफ़-साफ़ मना कर देता है, “ना दादा ना। ग़लत बात। फेर तो मसजत भी बणवाणी पड़ेगी। पत्थर खड़या होवैगो। दिला में बैर बढ़ेगौ . . . स्कूल बणवावांगा दादा। पूरी बसती की टाबर एक साथ पढैगा। सरवस पावैगा। जितनी घणी सिकसा, उतनी बड़ी सरवस”(साँप, पृष्ठ 309) 

मानव सेवा से बढ़कर कोई सेवा नहीं और सच्ची सेवा, मनुष्य कल्याणार्थ की गई सेवा ही है। बशर्ते, सेवा धरातलीय स्तर पर होनी चाहिए। इस संदर्भ में ‘जन मन समिति’ की सचिव मिलनदेवी समिति के साथियों से ठीक ही कहती है कि “हमें इन लोगों से महज़ मिलना नहीं है, इनमें मिलना है। इनकी ग़रीबी में घुलना है। नर्स मरीज़ की सेवा-सुश्रूषा तभी कर सकती है, जब वह पेशेंट को अपने तन की तरह सहेजे। हमें उसी सुधी, त्यागी और निष्ठावान नर्स की भाँति हाशिए के इन लोगों के दुःखों को आत्मसात करना होगा। इनके दु:ख-दर्द को दवा मानकर पीना होगा। ना इनके तन पर लत्ते हैं, ना सिर पर छत है। देश में वीराने हैं। अनजाने हैं। बेगाने हैं। ख़ाना-बदोश हैं। आदमी नदी में, सरोवर में कुंड में नद में डुबकी लगाने से फल नहीं पाता। वह फल पाता है, ग़रीबों की दुआओं से। उनकी आशीषों से। उनके आशीर्वाद से। ग़रीब को सताना पापों का पाप है। ग़रीब की हाय घातक हथियार से भी कहीं मारक होती है। दुआ पत्थर की खान से सोना निकाल लाती है।”(साँप, पृष्ठ 115) कुल मिलाकर, मानव सेवा की दृष्टि से किए गए कार्य ही मनुष्य का असली धर्म-कर्म हैं। बाक़ी सब छल-प्रपंच हैं जिनका सबसे अधिक शिकार, हाशिए का समाज है। फिर चाहे वह समाज, दलित समाज हो या घुमंतुओं का समाज। 

भारत में जो लोग आज घुमंतुओं और ख़ाना-बदोशों का जीवन यापन कर रहे हैं, पराधीन भारत में इनकी कौमें विद्रोही कौमें थीं। इन विद्रोही कौमों में “नट, मदारी, कलंदर, बाज़ीगर, बहुरूपिया, सँपेरे, कालबेलिया”(साँप, पृष्ठ 165) आदि थीं। आज़ादी के लिए ये सभी अँग्रेज़ों के विरुद्ध संघर्ष करते थे। अँग्रेज़ों ने इन्हें जन्मजात अपराधी घोषित कर रखा था। अंग्रेज़ी सरकार का फ़रमान था कि इन्हें कहीं भी बसने न दिया जाए। ये एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते रहते और गुज़र बसर करते। इन्होंने अँग्रेज़ों की ग़ुलामी स्वीकार नहीं की, इसलिए अंग्रेज़ी सरकार से इन्हें किसी प्रकार की राहत भी नहीं मिली। फिर भी ये अपने अस्तित्व और अस्मिता का संघर्ष करते रहे। स्वाभिमान की रक्षार्थ ही लखीनाथ द्वारा सेठ मुकुंददास का चाँदी का रुपया, साड़ी और सौ रुपए का नोट लौटा लेने को कहने पर “सेठ जी की त्यौरियाँ चढ़ीं और क्रोध भर गया, हठात्‌। यह अकड़ ग़ुलामी के दिनों में मेरे पिता के सामने हुआ होता। चमड़े के तमसे बँधे डंडे से बात करते। महीनों बेगार कराते। कोड़े पड़ते। ऐसे अकडुओं-झकडुओं की तो वे जूत-जूत छोत झाड़ते थे।” (साँप, पृष्ठ 75) 

दरअसल, अँग्रेज़ों के ख़िलाफ़ बिगुल फूँकने वालों का यही हाल था। न सिर्फ़ अँग्रेज़, उन पर अत्याचार करते थे बल्कि अँग्रेज़ों की सरकार में पद-प्रतिष्ठा पाने वाले भारतवासी भी उनके ख़िलाफ़ लामबंद रहते थे। यह सच्चाई मिलनदेवी और उसकी मित्र काजल के संवाद में भी उभरकर सामने आती है। काजल कहती है, “यह अँग्रेज़ों का निचुड़ा देश है। अँग्रेज़ों के जो जितने नज़दीक रहे, वह अमीर हुए। जो दूर रहे, वे दरिद्र हो गए। दूरी की ये दरें राष्ट्रप्रेम की धारा है। नज़दीकी और दूरी में राजप्रेम और देशप्रेम जितना अंतर रहा मिलन। मिलन को चिकोटी सी कटी। उसके श्वसुर और पिता दोनों ही अँग्रेज़ों की ताबेदारी में रहे। उसने साँस खींचकर साँस छोड़ी-ठीक कहती हो, काजल। एकदम सही फ़रमाया आपने।”(साँप, पृष्ठ 116) इतना ही नहीं, अंग्रेज़ी सरकार में घुमंतुओं पर अत्याचार आम बात थी। पुलिस किसी भी अपराध में धर दबोचती थी। किसी भी झूठे इल्जाम में फँसाकर जेल भेज देती थी। आज भी उनके प्रति पुलिस का रवैया कुछ ख़ास बदला नहीं है। पुलिस आज भी उन्हें अपराधी क़ौम मानती है। किसी भी अपराध में, मात्र शक की बिनाह पर धर दबोचती है। “इधर-उधर घूमते-हांडते घुमंतुओं, घुमक्कड़ों-खानाबदोशों को थाने लाकर बंद कर देना, मुँह पर हाथ फेरने जैसी आम बात है, पुलिस के लिए।”(साँप, पृष्ठ 162) इस त्रासदी की सघन और गहनतम पीड़ा लखीनाथ के शब्दों में उस वक़्त उभरती है, जिस समय वह, मिलनदेवी और बस्ती वालों के साथ, पक्का डेरे बनवाने हेतु मुख्यमंत्री से मिलने जाता है। वह कहता है, “हुकुम म्हारी घुमक्कड़ जातियाँ अपना ही देस में बीरानी हैं। अनजानी हैं। बिना चेहरा की हैं। देस अपणो। परदेस अपणो। पर ना म्हारो कोई गाम। ना ठीयो। ना गली। ना कूचो। गाम की गली से निकला, कूकरां म्हारा पे भोंके। लोग बाग़ सक की आँख देखे। बंगला-कोठी चोरी-चकारी ख़ुद घरवाला कर ले। पुलस को धाड़ौ म्हारा डेरा में पड़े। मर्दा ने उठा ले जावै। मारे-पीटे। झूठ पे साचो गूंठा टिकवा ले। थाना में बंद कर दे। ना म्हारी सफारस। ना म्हारे पास पीसा। छोड़े तब छोड़े। एक हाँड़ी में दो पेट है, अपणा देस में।”(साँप, पृष्ठ 255) 

जो अमीर हैं, मालो-जर वाले हैं, प्रभाव वाले हैं, पद, क़द और प्रतिष्ठा वाले हैं, अपराधी और नेता हैं, पब्लिक का ख़ून चूसने वाले व्यापारी हैं, उन सबको कोई कुछ नहीं कहता। ना शासन उन्हें कुछ कहता है। ना प्रशासन उन पर हाथ डालता है। बेबस, लाचार, दरिद्र और अनाथ सरीखे घुमंतुओं को कोई नहीं बख्शता। जिसके हत्थे चढ़ जाते हैं वही इनका मनमाना शोषण करता है। इस विसंगति को मिलन के शब्दों में दर्ज कर सकते हैं, “घुमंतुओं को देखकर मन बेचैन होता है। दिन-रात का अंतर दिखाई देता है। वहाँ भूख-प्यास है, यहाँ व्रत-उपवास के चोंचलें हैं। उनकी उम्मीदों पर इतना पानी फिर गया, ओर-छोर, तल दिखाई नहीं देते। ज़िन्दगी और मौत का इतना कड़ा मुक़ाबला। जिन लोगों ने ग़ुलामी को प्राणवायु माना, वे राजा-महाराजा हो, महल-प्रासाद पा गए। जिन्होंने पराधीनता से टक्कर ली, वे वीराने-कंगाल दर-दर के रह गए। बेगानों का भूतकाल बेगारी और शोषण में गुज़र गया, वर्तमान बदहाली में बीत रहा है।”(साँप, पृष्ठ 207-208) यही कारण है कि मिलन जिस जन मन समिति की सचिव हैं, उसके माध्यम से घुमंतुओं के लिए पक्के डेरे बनवाने और उनका वोटर आईडी कार्ड आदि बनवाकर उन्हें समाज की मुख्यधारा से जोड़ने का प्रयास करती है। इसमें मिलन का अपना भी अप्रत्यक्ष स्वार्थ अंतर्निहित होता है। यह स्वार्थ मिलन देवी और लखीनाथ के अनाम प्रेम में उभरकर सामने आता है। 

उपन्यास में प्रेम के कई स्वरूप देखने को मिलते हैं। सामाजिक और परंपरागत प्रेम। सामाजिक बंधनों से उन्मुक्त प्रेम। पुरुषोचित या मर्दवादी प्रेम। पुरुषोचित या मर्दवादी प्रेम असल में प्रेम नहीं, अनाधिकार चेष्टा है, लालच है, स्त्री देह पाने की कामुक लालसा है। उपन्यास में कामुक लालसा के एक नहीं, चार-चार उदाहरण दिखाई पड़ते हैं। यहाँ भी प्रेम और कामना की अलग-अलग दुनिया हैं। पहला उदाहरण, डॉ. एल.एल. साध का है जो मिलनदेवी की ख़ूबसूरती पर लट्टू है। वह उसे पाने की लालसा में किसी भी हद तक जाने को तैयार है। जिस वक़्त मिलनदेवी लखीनाथ सँपेरे से मिलने के लिए सिर में साँप घुसने का बहाना बनाती है, उस वक़्त प्राथमिक जाँच और उपचार के लिए उसका पति मुकुंददास ज़िला चिकित्सालय के चिकत्सक डॉ. एल.एल. साध के पास लेकर जाता है। डॉ. साध की उम्र चालीस के आसपास थी और मिलनदेवी छब्बीस के। फिर भी “डॉ. साध ने पर्ची ली और मिलन की ओर देखा। देखते रहे अपलक, अहमकपन की हद तक।”(साँप, पृष्ठ 81-82) “मिलन की शर्म को डॉ. साध विकल्प समझ बैठे। अंतस के उत्स को सहेजते हुए सोचने लगे, बाँझ औरत बड़ी सहजता से क़दम बढ़ा लेती है। यह महिला संतान सुख के वशीभूत सिर में साँप घुसने का ढोंग रचे लक्षित है। उनके नेत्र जंग चढ़े लोहे से हो गए, वासना के वशीभूत। उन्होंने आव देखा न ताव, आँख से सेन की और काँइयाँ प्रस्ताव मिलन को प्रस्तुत कर दिया था।”(साँप, पृष्ठ 84-85) 

दरअसल मिलनदेवी को सिर में साँप घुसने के मर्ज़ की गरज यहीं डॉ. एल.एल. साध के पास लाए थे। डॉ. साध निःसंतान मिलन के इस वहम को अधूरापन मान बैठे और मिलन उनकी बदनीयती का शिकार हुई। डॉ. साध की बदनीयती का आलम यहाँ तक बढ़ा कि वे मिलन के घर तक पहुँच गए। जब मिलन उसके हाथ नहीं आयी तो खीजकर उसने मिलन की राह में रोड़े अटकाने शुरू कर दिए। जिस वक़्त लखीनाथ पुलिस की गोली से घायल हुआ था, तब न केवल उसका इलाज करने से मना किया बल्कि डॉ. ऐन. बाला को भी पुलिस केस बताकर डराने की कोशिश की ताकि वह भी लखीनाथ का इलाज न करें। इस संदर्भ में मिलन को स्वयं डॉ. ऐन. बाला ने बताया, “मिलन एक्चुअली सिविल हॉस्पिटल से डॉ. एल.एल. साध का फोन आया था, अभी-अभी मेरे पास। वार्निंग सी देते उन्होंने कहा–“मिलनदेवी नाम की महिला सो एंड सो ट्राइब्स सँपेरे को साथ लिए घूम रही है। उसकी लेग में पुलिस की गोली लगी है। केस टिपिकल है। बिना पुलिस परमिशन ट्रीटमेंट के ख़तरे हैं। इट विल गुड डू नॉट टेक ऐनी रिस्क। कोर्ट-कचहरी के चक्कर काटने होंगे।” डॉ. साध की स्थिति उस समय खिसियानी बिल्ली की सी थी। वे खिसियानी बिल्ली की तरह खंबा नोंच रहे थे अथवा लोमड़ी की तरह अंगूर हाथ नहीं लगे तो खट्टा बताने में लगे थे। 

दूसरा उदाहरण सपरानाथ और रमतीबाई का है। सपरानाथ के शराबी होने के कारण सपरानाथ और रमतीबाई की सगाई होकर टूट चुकी थी। सपरा से सगाई टूटने के बाद रमतीबाई की शादी लखीनाथ के बड़े भाई सरूपानाथ से हो गई थी। फिर भी सपरा, रमती का पीछा दाबे रहा। आये दिन वह उसे जबरन हासिल करने की जुगत करता रहता। एक दिन घर पर सजी सँवरी रमती अपने नाथ जी को रिझाने के लिए उसकी राह देख रही थी। सपरा वहाँ आ गया और “उसके रूप-लावण्य और सार-शृंगार से कामुक सपरानाथ के भीतर नशा-सा उतरता चला गया। वह वासना भरी निगाह गड़ाए उसकी ओर काग-सा टकटकी बाँधे देखता रहा। अपलक। यह इसके एकतरफ़ा प्यार की ऐसी डोर थी, जिसके दोनों सिरे उसी के हाथ में थे . . . वासना आग में घी की तरह होती है। लपटें उठती हैं, रह-रह। बणी-ठणी रमती उसकी माँग रही थी। उसमें कामना जगी और उठ खड़ा हुआ था। बाहर बैठा कुत्ता उसके मन का कलुष भाँप गया। सपरा झोपड़ी के गेट तक पहुँचा। कुत्ता पीछे-पीछे आया। मुँह लगाकर उसकी पिंडली सूँघता रहा। कहता हो, यह लक्ष्मण रेखा है।”(साँप, पृष्ठ 61-62) बावजूद इसके उसने कई बार रमती को पाने की चेष्टा की, मगर असफल रहा। वह सरूपानाथ से पीटा भी। रमती को लेकर दोनों में ऐसा विवाद ठना कि इसकी एवज़ में सरूपानाथ को जान से हाथ धोने पड़े। 

उसके बाद रमती देवर लखीनाथ के बैठा दी गई। फिर भी सपरानाथ अपनी हरकतों से बाज़ नहीं आया। एक दिन उसने, नशे में धुत्त होकर नहाती हुई रमती को दबोचने की कोशिश की। इस पर लखीनाथ ने लाठी से उसकी ख़बर ली, तब कहीं जाकर उस पर कुछ बंदिश लगी। तीसरा उदाहरण धारसिंह थानेदार का है। वह मदारी भलीराम की पत्नी मदारिन सरकीबाई के रूप पर फ़िदा हो जाता है। वह उसके रूप-लावण्य के इतना वशीभूत हुआ कि एक रात सरकीबाई को बलात हासिल करने उसके डेरे ही जा पहुँचा। “रात का सन्नाटा था, पिन गिरते खुड़का सुन जाए। खिली चाँदनी थी, सूई में धागा पिरो जाए। मदारिन पाँचेक क़दम दूर डेरे के भीतर अपनी काया लुकी बैठी थी, कछुआ ख़तरे में देह समेटता है। उसने थानेदार की आँखों की घूर देख ली। दाँतों की किटकिट सुन ली। उसके भीतर का भय घना हुआ। हृदय की धकधक बढ़ी। धकधक नए उपाय की सुध थी। कोने में मदारी की झोली रखी थी। पुरानी-धुरानी फटी उधड़ी। चीकट। उसमें खेल-तमाशा दिखाने का सामान था। बाँसुरी, कंचे, कौड़ियाँ, कपड़े की बत्तख, मोर, लोहे के छोटे-बड़े चार-पाँच गोले। मदारी गोले को मुँह में भरता, ग़ायब कर वापस निकालता। ग़ज़ब दिखता, तमाशबीनों का मन मोह लिया करता था। मदारिन ने उसमें से मोटा सा एक गोला निकालकर मुट्ठी में भींचा और देहरी पर आ बैठी। चाकू दूसरी मुट्ठी में दबा था। ‘कौण सो हथयार काम आ जावै।’ उसने बताती आँखों बाहर की ओर देखा, पुलसिया अब आ तू।”(साँप, पृष्ठ 154) 

मदारिन की हिम्मत, प्रतिरोध और उसके पालतू कुत्ते द्वारा थानेदार पर किए गए हमले के कारण मदारिन थानेदार का शिकार होने से बच गई। मगर न जाने कितनी मदारिनें धारसिंह जैसे लोगों की भेंट चढ़ जाती हैं। समाज में अधिकतर पुरुष, आज भी स्त्री को उपभोग मात्र की वस्तु समझते हैं। सुंदर काया दिखी नहीं कि लगे जाल बुनने। घुमंतुओं, ख़ानाबदोशों, दलितों, पिछड़ों की औरतें तो उन्हें आसान शिकार नज़र आती हैं। रक्षक रूपी पुलिस वाले भी इन ग़रीब-गुरबा महिलाओं के भक्षक बनने से पीछे नहीं हटते। न ही दबंग, अफ़सर, नेता आदि, इस बदी से बाज़ आते हैं। उदाहरणार्थ, शहर विकास मंत्री छब्बीस पट्टों में से लखीनाथ का पट्टा इसलिए रोक लेता है कि “मंत्रीजी लखीनाथ को पट्टे से वंचित रखकर मिलनदेवी को साधना चाहते थे। सती सावित्री नकचढ़ी अपने यार के काम भागी-भागी दफ़्तर आएगी, होंठ रचाएगी, ज़ुल्फ़ें नयनों पर गिराये। कमरे में आ गई, बाहर मुँह नहीं खोल पाएगी। कालबेलिया के कारण बदनाम हो रही ऐन.जी.ओ. की महिला का कौन पक्षधर। पनपती यौन कुंठा, वे अवांछित के लिए कटिबद्ध थे।”(साँप, पृष्ठ 271) 

महिलाओं के प्रति ऐसी घिनौनी सोच पुरुषप्रधान समाज में सदियों से यथारूप अंतर्व्याप्त है। कुछ भी नया करना, कहीं भी स्वतंत्र जाना, शिक्षित होकर शासन-प्रशासन में सेवाएँ देना, यहाँ तक कि अन्य सामाजिक कार्य करना आदि, महिलाओं के लिए अत्यंत दुष्कर और चुनौतीभरे कार्य होते हैं। महिलायें पढ़ी-लिखी हों या गृहिणी, गोरी हों या साँवली, आदमी की बदनीयती का शिकार होती ही हैं। इस कारण दुनिया स्त्री-पुरुष में विभक्त दिखाई है और इस विभक्त दुनिया में पुरुष जबरन किसी स्त्री से सम्बन्ध बनाने के प्रपंच रचा करता है। 

यद्यपि समाज भी स्त्री-पुरुष के रिश्ते को मान्यता देता है, मगर यह मान्यता समाज अपनी शर्तों और अपने अनुसार देता है। अर्थात् सामाजिक तौर से जो वैवाहिक संस्कार संपन्न करवाए जाते हैं उनमें विवाह पहले होता है, प्रेम बाद में। कहिए कि प्रेम नव दंपती पर थोपा जाता है। कुछ दंपती इसे सहजता से स्वीकार कर लेते हैं और गृहस्थी बसा लेते हैं। कुछ इसका प्रतिरोध भी करते हैं। दोनों ही प्रकार के उदाहरण समाज और उपन्यास में मौजूद हैं। पहला उदाहरण लखीनाथ और रमतीबाई का है। रमतीबाई लखीनाथ से उम्र में बड़ी है। लखीनाथ से ब्‍याहे जाने से पूर्व विवाहित और गर्भवती थी। फिर भी समाज ने रमतीबाई का विवाह लखीनाथ के साथ करवाया। दरअसल, रमतीबाई लखीनाथ के बड़े भाई सरूपानाथ की पत्नी थी। सरूपानाथ की असमय मृत्यु के कारण लखीनाथ के बिठा दी गई थी। “दिवंगत सरूपानाथ का तेरहवाँ दिन था। कांधे छूटे। कन्याएँ बैंठीं। जात-बिरादरी के पंच चौधरियों के सिर जुड़े। सलाह-मशवरा हुआ। एक राय बनी। दो माह की गर्भवती रमतीबाई को उसके अन्योदर देवर पटेबाज किशोर लखीनाथ की चूड़ियाँ पहना दी गईं। ना शौक-चाव, ना बाजा-गाजा, ना गीत-गान। क़ब्र पर दूसरी इमारत जैसा कुछ था। डेरा वही था। परिवेश वही था। गृहस्थी की गाड़ी का एक पहिया बदल गया था। गार्हस्थ ने अपनी राह पकड़ ली थी।”(साँप, पृष्ठ 71) 

एक उदाहरण, रोशनीबाई और मनीराम का है, जो अनुपम है। लखीनाथ और रमतीबाई के वैवाहिक संस्कार में समाज की इच्छानुसार अथवा परिस्थितिवश समझौता दिखाई देता है। रोशनीबाई और मनीराम के मामले में दोनों की इच्छा, समाज की इच्छा और परिस्थिति दोनों पर भारी पड़ती है। रोशनीबाई का पति बोलाराम कुचबंदा शराबी और ग़ैर ज़िम्मेदार है। परिवार का भरण-पोषण ठीक से नहीं करता। किसी दूसरी विधवा औरत से भी है। बोलाराम की उससे एक औलाद भी है। इस कारण रोशनी की गत ख़राब हो जाती है। “बाइस-तेईस की उसकी काया की मादकता को घर का अभाव और पति की उपेक्षा खा गए। पति की बेवफ़ाई के कारण दिन-रात आँसू बहते। ना विधवा। ना सधवा। मरद दूसरी से था और महीने में एकाध बार डेरे आता। औरत जात जल्दी सीझती है। वह उसे मारता, बहलाता, फुसलाता और उसकी कमाई मार ले जाता। बेचारी खिलौने बनाने वाले के वहाँ खिलौने बनाकर अपना पेट भरती। खिलौने वाले विधुर कुचबंदे ने कई बार सेन की, उसके रह जा। दोनों कमा-खा मौज करांगा। वह अपने सत रही। नाड़ हिला दी, साफ।”(साँप, पृष्ठ 211) आख़िर अपने पति और समाज से तंग आकर रोशनीबाई अपने देवर मनीराम के निकट हो जाती है। दोनों का प्रेम परवान चढ़ने लगता है। समाज को पता लग जाता है। एक दिन बोलाराम दोनों को रंगे हाथ पकड़ लेता है। विवाद खड़ा हो जाता है। पंचायत बुलाई जाती है। पंचों के सामने रोशनीबाई साफ़-साफ़ कह देती है कि “मेरा देवर की चूड़ी पहरा दो। कमावागां। खावागां। अपने टाबरा ने पढ़ावांगा।” उसने याचना भरी निगाह सबकी ओर इस क़द्र निहारा बस्ती माता मनोकामना पूरी करे। 

“अपनी ब्याहता का दो टूक जवाब सुनकर बोलाराम का रौआँ-रौआँ सत निकल गया। खेत के बिजूका-सा खड़ा रह गया। हिलता, थरथराता। निर्जीव। वहीं बैठ गया, ढह गया हो। मनीराम नीची गर्दन किए था। उसने पलकें उठायीं और रोशनी की ओर ऐसे देखा निहाल हुआ दाद दे रहा हो। रोशनी की चाह, उसकी आह थी। मौजूद बस्ती में सन्नाटा-सा उतरा था। मुँह फटे-फटे थे, साँसें हिल रही थीं। दूसरे के प्रति इतना लगाव और ख़ुद के पति के प्रति ऐसा अलगाव नहीं देखा था। रोशनी ऐसी विद्रोहिणी! ऐसी मुँहफट! बस्ती हैरान थी।”(साँप, पृष्ठ 331) अंततः, पंचायत का सबसे बुज़ुर्ग मुखिया चीमाराम रोशनी के हक़ में फ़ैसला सुनाता है। अपने हक़ के लिए विद्रोह की मिसाल रोशनी अपने ग़ैर ज़िम्मेदार पति से छुटकारा पाती है। अपने प्रेमी मनीराम की चूड़ी पहनती है। उधर बोलाराम और जूनाबाई बस्ती छोड़कर शहर की ओर निकल जाते हैं। उक्त दोनों उदाहरणों में नव दंपतीयों को एक करने में समाज महती भूमिका अदा करता है। एक में समाज और परिस्थिति के अनुसार दंपती ढलते हैं, दूसरे में दंपती के अनुसार समाज और परिस्थितियाँ ढलती हैं। लेकिन, मिलन और लखीनाथ का प्रेम कुछ ऐसा रहा जिसमें न उनके अनुसार समाज और परिस्थितियाँ ढलती हैं और न वे समाज और परिस्थितियों के अनुसार ढलते हैं। 

दोनों में अगाध प्रेम है, मगर उनके प्रेम को कोई नाम अथवा रिश्ता दे पाना अत्यंत कठिन है। इस अनोखे प्रेम की नींव प्रकृति या ज़रूरत किसमें है, कुछ कहा नहीं जा सकता, किन्तु, प्रकृति प्रदत्त सहज प्रेम का आदर्श उदाहरण मिलनदेवी और लखीनाथ का अनूठा प्रेम ही प्रस्तुत करता है। इसमें न समाज है। न रस्म-रिवाज़ हैं। दो दिल हैं, उनके बीच प्रेम का सहज प्रस्फुटन है। प्रेम का पवित्र निबाह, त्याग और समर्पण है। मिलनदेवी ऊँचे घराने की पच्चीस छब्बीस की बला की सुंदर युवती है। लखीनाथ सँपेरा बाइस तेईस का गबरू जवान है। दोनों उम्र, जवानी और सौंदर्य के उफान पर हैं। दोनों एक-दूसरे के रूप पर सम्मोहित थे। होते भी क्यों न! मिलनदेवी जैसी “खूबसूरत स्त्री लखीनाथ अपनी बाइस तेईस की उम्र में पहली दफ़ा देख रहा था। क़ुदरत के हाथों फ़ुरसत में गढ़ी नपी-तुली काया। सारस सी गर्दन। गदराया जोबन। वह अपने बचपन में दादी, नानी माँ से परियों और रानियों की सुंदरता के बखान सुना करता था, यो जनानी वो ही तो ना है?”(साँप, पृष्ठ 49) 

कुछ इसी तरह लखीनाथ ने मिलनदेवी को आकर्षित किया था। “मिलन ने लखीनाथ की ओर नयन उठाकर ग़ौर से देखा। कल से भी ज़्यादा सुंदर, सुशील और सजीला लग रहा है वह। डेरा बस्ती का छैल-छबीला छोरा। जंगल का फूल। एकदम ताजादम। निर्लेप आदमियत। कबूतर-सी मासूमियत। आदमियत और मासूमियत का अनुपम समन्वय।”(साँप, पृष्ठ 94) दोनों का सौंदर्य प्राकृतिक और स्वाभाविक था। एक-दूसरे के प्रति दोनों का आकर्षण भी प्राकृतिक और स्वाभाविक था। मिलनदेवी विवाहिता होकर भी निःसंतान थी। उसे लखीनाथ में अपना वंश दिखाई देने लगा था। इसी निहितार्थ, वह लखीनाथ के निकट होती चली गई। उसने लखीनाथ से मिलने के लिए 'सिर में साँप' घुसने का बहाना किया। लखीनाथ को घर बुलवाया। ख़ुद भी ‘बंजारा की थड़ी’ गई। वहाँ लखीनाथ की बस्ती की हालत देखकर दुःखी हुई। उसने लखीनाथ से वादा किया कि वह सभी बस्ती वालों के कच्चे डेरे पक्के बनवाकर छोड़ेगी। बदले में उसे अपना अंश देना होगा। समाज में निःसंतान स्त्री का जीना दूभर हो जाता है। सगे नाते-रिश्तेदारों की निगाह, निःसंतान दंपती की सम्पत्ति पर रहने लगती है। डॉ. साध जैसे देह पिपासे निःसंतान स्त्री पर ललचाने लगते हैं। लखीनाथ ने मिलन के इसी दुःख द्रविभूत होकर और बस्ती के हित अपना अंश देने की हामी भर ली। अपनी लंबी मूँछ का बाल उखाड़कर मिलन को वादे की गारंटी स्वरूप दिया। मिलन ने सँपेरे की मूँछ का बाल उसकी आन-बान-शान को गिरवी रख लेने की तरह सँभालकर रख लिया। बाद में, मिलन ने अपने हित साधन के लिए लखीनाथ को दो बार होटल में कमरा बुक करके प्रणय प्रस्ताव रखा। दोनों बार लखीनाथ रमतीबाई के ख़्याल और अपनी बस्ती के हित पीछे हट गया। किन्तु, अपने वादे को बरक़रार रखते हुए अडिग रहा। 

पहली बार उसने यह कहकर अपने और मिलनदेवी के चरित्र की रक्षा की कि “ना सेठाणी जी ना। थारो वादो अबार अधूरो है। कच्चो फल या तो खट्टो रहवै या कड़ूवो।”(साँप, पृष्ठ 194) मिलनदेवी को लखीनाथ से ऐसी उम्मीद न थी, क्योंकि “वह यक़ीन के साथ यहाँ तक बढ़ी थी, लखीनाथ सँपेरा घुमक्कड़ है, अहसानों तले दबा पालतू-सा है। उसे क्या मालूम था, सँपेरा दीन-ईमान का धनी है। छोटी जात के लोग आन के पक्के और तन के सच्चे होते हैं। भूखे पेट ज़मीर ज़िन्दा है, इनमें।”(साँप, पृष्ठ 195) लेकिन यह भी सच है कि “आदमी पद, पैसा जात, बिरादरी से चाहे बड़ा हो या छोटा। मोहब्बत दोनों के दिल-ओ-दिमाग़ में एकरस धड़कती है। मिलन का लखीनाथ की हथेली पर लिखा वादा और लखीनाथ की मूँछ का वह बाल। न लखीनाथ सँपेरा, न मिलन सेठाणी।”(साँप, पृष्ठ 221) इसलिए दूसरी बार जब मिलनदेवी, लखीनाथ को होटल लेकर गई तो उसने लखीनाथ से स्पष्ट कहा कि “तुम्हारे नाग के तो एक फण और दो जीभ ही होती हैं। उन नागों के तो कई-कई फण और कई-कई जीभें हैं। मुझे चारों ओर से जिन विषैलो ने घेरा है, उनको क़ाबू करने के लिए मुझे कालबेलिया वंश चाहिए, लखीनाथ। इसी कामना से तुम्हारी ओर खिंची हूँ, मैं।”(साँप, पृष्ठ 379) मिलनदेवी “अपनी बात दोहराती बोली-लखीनाथ, दग़ा मत दे देना। उसने फिर रुमाल निकाला और सुबकते, बिसूरते, सिसकते होंठ और पनियाए नयन उसमें ले लिए।”(साँप, पृष्ठ 379) 

लखीनाथ इस बार मजबूर हो गया। दिल पसीज गया उसका। “लखीनाथ का जी उठ-उठ बैठने लगा था। अपने आप को थाम लिया। जो होवेगो देख्यौ जावेगो। मेरो अर बसती के क़र्ज़ मिट जावेगो। अपणो सीनो चीर रमती ने सांच दिखा दूंगो।”(साँप, पृष्ठ 379-380) लखीनाथ की चारित्रिक ईमानदारी और रमती के प्रति वफ़ादारी ने मिलनदेवी को पुनः रोक दिया था। उसे विश्वास हो चला था कि संसार में चरित्र अमूल्य है। इसकी हर हाल में रक्षा की जानी चाहिए। इसलिए, इस बार मिलनदेवी ने ही लखीनाथ के कंधे पर हाथ रखा और कहा, “लखीनाथ, चरित्र इस दुनिया की अमूल्य थाती है। वह धनाढ्यों और सरमायेदारों के दिलों में नहीं, ग़रीबों और वंचितों के जिगर में सुरक्षित है।”(साँप, पृष्ठ 380) इसके बाद, लखीनाथ और मिलनदेवी का, एक-दूसरे के प्रति प्यार और गहरा तथा विश्वास और अधिक मज़बूत हो चला था। 

इस गहरे प्रेम और मज़बूत विश्वास का नतीजा यह निकला कि दोनों एक-दूसरे की ज़रूरत में मन-प्राण से काम आए। मिलन ने, न केवल लखीनाथ सँपेरे और उसके साथी भलीराम मदारी को पुलिस के चंगुल से बचाया बल्कि उसकी बस्ती के छब्बीस के छब्बीस डेरे पक्के करवाए। इसके लिए उसने अथक परिश्रम और संघर्ष किया। दरअसल घुमंतुओं और ख़ानाबदोशों की हैसियत, पुलिस की नज़रों में अपराधियों जैसी होती है। सरकीबाई मुख्‍यमंत्री के सामने कहती है, “हुक्म ओला-कांकरा, म्हारे पे गिरे। आंधी-भभूल्या हमने घेरे। गरमी तपां। ठंडी ठिरां। ना जीवां। ना मरां। इतनी बड़ी दुनिया में म्हारे पास सिर छुपाव ने चप्पो ना . . . हुक्म म्हारो जीणों मरणों बरोबर है। दारीका पुलसया म्हारा मुरगा, बकरा खा जावै। रातबासो कर जावै। बोला मुँह खोलां। घणों कूटे-पीटे थाणा में पटक दें। चोर लुटेरा के बदला में म्हारा आदमियों को जेल करा दे।”(साँप, पृष्ठ 257) 

ऐसा ही कुछ, लखीनाथ और भलीराम के साथ हुआ था। थानेदार धारसिंह ने जो दो लुटेरे पकड़े थे, वे भंवरदत्त एम.एल.ए. के रिश्तेदार निकले, जिन्हें ऊपरी दबाव के चलते छोड़ना पड़ा। उनकी जगह लखीनाथ और भलीराम को उस समय धर दबोचा जब वे मिलनदेवी का दिया हुआ चाँदी का सिक्का, साड़ी और एक सौ रुपए का नोट लौटने जा रहे थे। थानेदार ने कांस्टेबल को हुक्म दिया “दोनों लुटेरों से जो माल बरामद हुआ है न, हवालात में बंद सँपेरे की टोकरियों में रखवाकर चपड़ी लगवा दो। मतलब लूट का माल सँपेरे से बरामद हुआ है। टोकरी से जो चीज़ें बरामद हुई हैं, उन्हें बरामदगी की लिस्ट में जोड़ दो . . . लॉकअप में बंद इन दोनों का हाल-हुलिया भी कमोबेश उन लुटेरों जैसा ही है, जिन्हें छोड़ दिया गया हैं। सँपेरे के बाल थोड़े-थोड़े कटवा दो। कानों के कुंडल उतरवा लो। मुलजिम का नाम, वल्द, जाति बदल दो। गाँव के नाम जोड़ दो। डेरा उठाव-रख होता है। गाँव नहीं होता।”(साँप, पृष्ठ 144) इस बाबत मदारिन जब मिलनदेवी को बताती है तो मिलनदेवी को बहुत दुःख होता है। वह डेरा बस्ती वालों के साथ मिलकर थाने का घेराव करती है। वह बस्ती वालों से कहती है, “शहर के बाहर सदर थाना है, सबके सब वहाँ पहुँचो। समूची डेरा बस्ती के लोगों को ख़बर कर दो। वहाँ जाएँ, अपनी ताक़त दिखाएँ। अपने-अपने जीव-जिनावर ज़रूर साथ लेकर जाएँ। पुलिस घुमंतुओं से ज़्यादा उनके जानवर से डरती है।” 

थाने के बाहर घेराव करके, विरोध प्रदर्शन करके, नारेबाज़ी करके और महिला एस.पी. धर्मकंवर की मदद से मिलनदेवी दोनों को छुड़ाने में कामयाब हो जाती है। मिलनदेवी स्वभाव से अत्याचार विरोधी थी ही, जिस 'जन मन समिति' की वह सचिव थी वह भी जनकल्याणार्थ कार्य करती है। समिति की मदद से मिलनदेवी घुमंतुओं के डेरे पक्के बनाने की मुहिम छेड़ती है। वह सभी संबंधित अधिकारी, विधायक, एम.एल.ए., मंत्री, मुख्यमंत्री आदि तक से मिलती है। घुमंतुओं की आवाज़ को राजधानी तक ले जाती है। वह घुमंतुओं को चेताती हुई कहती है, “मेरी समझ नहीं आता आप लोग कब तक साँप, गोहरे पकड़ते रहोगे। बनैले जानवरों की रासें पकड़े गली-कूंचे घूमते रहोगे। बाज़ पालते रहोगे। कबूतर लड़ाते रहोगे। तोतों से करतब दिखाते रहोगे। आकाश ओढ़ना, धरती बिछाना, इधर-उधर वीराने पड़े रहना, जीवन है? घर का सपना ज़िन्दगी का सपना होता है। यह सपना बुनते आपकी पीढ़ियाँ चलीं गईं। सपना, सपना ही रहा। दिवंगत पीढ़ियों को हमारी सबसे बड़ी श्रद्धांजलि यही होगी कि यह सपना अंगारे की तरह सुलगता रहना चाहिए। चिंगारी चटकेगी। अँधेरा दूर होगा।”(साँप, पृष्ठ 245) वह आगे कहती है, “देखिएगा चुनाव सिर पर हैं। चुनावों के दिनों जनता नेताओं की माई-बाप हो जाती है। वक़्त हमारी मुट्ठी में है। मुट्ठी बाँधे रखना है। माना मंत्री ने दुर्भावनावश हमारी फ़ाइल पटक ली है। मंत्री से ऊपर मुख्यमंत्री हैं। वे राजधानी में रहते हैं। राजधानी यहाँ से तीस मील दूर है। हमें कल सुबह अपने-अपने जीव-जंतुओं के साथ राजधानी की ओर कूच करना है। हमारे पास दोहरी ताक़त है। इंसान और जीव-जानवर। रीछ, भालू, बंदर, कबूतर, तोते, बाज़, नाग, गोहरे, नेवला, पाटागोह, गधा, कुत्ता, जिसके पास जो भी प्राणी है, उसे साथ ले चलें।” (साँप, पृष्ठ 245) 

इस प्रकार, सही समय पर मिलनदेवी मुख्यमंत्री से मिलती है। घुमंतुओं की दारुण दशा और इतिहास के विषय में मुख्यमंत्री जी को विस्तार से बताती है। वह कहती है, “सर, संयम की सीमा होती है। पीढ़ियाँ चली गईं। पशुओं के लिए बाड़ा तो होता है, इनका तो कोई ठौर-ठिकाना ही नहीं है। अपने ही देश में बेगाने हैं, अनजाने हैं। स्थायी निवास नहीं होने के कारण न इनके राशन कार्ड बने, न वोटर लिस्ट में इनका नाम जुड़ा। हाँ, देश की जनगणना में शुमार अवश्य हैं . . .। एक समय ये जातियाँ वीर थीं। हाँ सर, अंग्रेज़ी राज के लिए ख़तरा बन गई थीं। ख़ूब क़ाबू करने के बावजूद सरकार विरोधी इनकी गतिविधियाँ बदस्तूर जारी रहीं। पानी सर तक आया, तो अँग्रेज़ सरकार ने सन्‌ 1872 में जरायमपेशा एक्ट लागू कर, इन जातियों को जन्मजात अपराधी होने का दर्जा दे दिया। दुनिया का सबसे काला क़ानून था वह। अनर्थ। घिनौना . . . ख़ाना-बदोश जातियों को चौदह-चौदह फ़ीट ऊँची बाड़ के बाड़ों में घेर-घोटकर रखा जाता था। एक जगह से दूसरी जगह जाते वक़्त जो भी थाना राह में पड़ता, वहाँ हाज़िरी देना क़ानूनन था . . . इक्कीस अगस्त, 1952 को वह एक्ट समाप्त कर इन्हें विमुक्त जातियाँ घोषित कर दिया गया। सरकारी काग़ज़ातों में इनके जीवन-तिमिर को मिटाकर उजियारा भले दिखा दिया हो, अँधेरा वही का वही है। स्याह . . . पुलिस इन लोगों को एक जगह टिकने नहीं देती, यह सरकारी दहशतगर्दी हुई। समाज इनको दुत्कार-फटकार देता है, यह सामाजिक अन्याय हुआ। हम इनकी घुमक्कड़ी को स्वाभाविक मानते हैं, यह हमारा बौद्धिक दिवालियापन है। इनकी बदहाली के लिए समाज और सियासत दोनों बराबर ज़िम्मेदार हैं।”(साँप, पृष्ठ 259, 260, 262) 

मिलन की तार्किक बातें सुनकर मुख्यमंत्री कहने पर मजबूर हो गए कि “शरणार्थी स्थापित हो गए। देश के मूलनिवासी आज भी ख़ाना-बदोश, घुमंतू, घुमक्कड़, विमुक्त जातियाँ हैं। जन्म-जन्मांतर से विषमताओं, अभावों, हताशाओं, क़ुदरती क़हर और समाज के ज़हर से जूझ रहे हैं। जज्बाती वीरों की धीरता और संघर्ष को मैं सलाम करता हूँ। संत्रास जीते हैं, विलापते नहीं।”(साँप, पृष्ठ 262) अंततः, मुख्यमंत्री की सहायता से मिलनदेवी सभी घुमंतुओं के लिए प्लॉट आवंटित करवाती है। सभी घुमंतुओं के लिये पक्के डेरे बनवाती है। 

लखीनाथ अपने वादे पर क़ायम था। उसकी पत्नी रमतीबाई पेट से थी। उसकी डिलीवरी के कई महीने पूर्व, मिलन ने अपने पेट पर कपड़ों की ठठरी बाँधकर, ख़ुद को गर्भवती दिखाना शुरू कर दिया था। सबकुछ प्लान किया गया। प्लान में मिलनदेवी के साथ उसका पति मुकुंददास और लखीनाथ शामिल था। रमती की डिलिवरी तक गर्भवती होने का लोक दिखावा किया जाना था। मिलन को तब तक परिवार वालों से दूर रहना था। मिलन के अचानक पैर भारी होने पर उसकी मित्र डॉ. ऐन. बाला हैरान थी। एक दिन उसके सामने भेद खुल गया तो मिलन ने उसे सारी बात समझा दी। मिलन और लखीनाथ के बीच तय हुआ था कि जैसे ही रमती को बच्चा होगा, वह चोरी से बच्चा मिलन को सौंप देगा। आख़िर, रमती को बेटा हुआ और रात के सन्नाटे में मिलन और उसका पति मुकुंददास बच्चा लेने बंजारा की थड़ी के बाहर पहुँच गए। बाहर ही कार में बैठकर लखीनाथ का इंतज़ार करने लगे। लखीनाथ बच्चा चुराकर मिलनदेवी को सौंपने की तैयारी करने लगा। उसने बच्चा चुरा लिया। “लखीनाथ! उचक्का। बघेर। भेड़िया। चोर। रमती का चोर। कलेजे का चोर। ज़मीर का चोर। अपने लहू का चोर। पैसे-धैले, टूम-ठेकरी की चोरी की बात और, देह चीरकर कलेजा निकालने जैसा डाका!”(साँप, पृष्ठ 397)

मगर रात के अँधेरे में, लखीनाथ ने बच्चा चुराकर मिलनदेवी को सौंप दिया। उस वक़्त “लखीनाथ बुरा घबराया था। मिलनदेवी बेतहाशा सदमायी थी। रात मानो भयावह हुई ग्रस जाने को थी। सन्नाटा नीलता जाता था। गाड़ी में पीछे की सीट पर चाँदी की बोतल में दूध लिए बैठे सेठ मुकुंददास वक़्त का सिरा नहीं पकड़ पा रहे थे। ठोड़ी हथेली पर टिकाए आत्मकलेश में डूबे थे। ऐसे त्रास का सामना वे पहली दफ़ा कर रहे थे। मिलन पर ख़ूब आग बबूला होकर भी अपनी कमी चुप रहे। त्रासद नियति। मिलनदेवी विचारती रही, सद्यः प्रसूता से उसका बच्चा लेना, नाहर के मुँह से उसका दीगर खींचना है। चिड़ी तक चोंच उठा लेती है। बिल्ली मरना मांड देती है। बंदरिया ख़ूँख़ार हो जाती है। बाघिन लहू पीने को उद्यत होती है। कृत्य न केवल दुष्कर है, बल्कि अविश्वसनीय और असंभव। वह सोच-विचार के व्यूह में पड़ गई। विचारते-विचारते निथरकर ऊपर आयी। मरता क्या नहीं करता। सोचने लगी। दिवास्वपनl हवाई क़िला। मौत का वरण। इतना सहा, यह भी सही। शायद अबला की गुहार रमती पसीज जाए।”(साँप, पृष्ठ 408) सोचकर वह, आत्मग्लानि के बावजूद आत्मबल सहेजकर लखीनाथ, मुकुंददास और बच्चे सहित रमती के द्वार पहुँच गयी। “मिलनदेवी मैक्सी पहने थी। उसने मैक्सी उठायी। पेट बँधा ठठर उसके सामने पटक दिया। ख़ुद को थामती कहने लगी, “रमतीबाई पाँच महीने हो गए हैं, मैं पल-पल सूली की सेज सी काट रही हूँ। इस छद्म कैसे जी रही हूँ, मेरा दिल जानता है। मेरा मन जानता है। मेरा तन जानता है।”(साँप, पृष्ठ 409) 

पूरी कहानी जानकर रमतीबाई का कलेजा भर आया। उसने पहले तो रात के अँधेरे में बच्चा मिलनदेवी को सौंप दिया। फिर कुछ सोचकर बच्चा बस्ती के सामने देने का निर्णय लिया। अगले दिन पूरी बस्ती चौक में जमा हुई। पंच बैठे। लखीनाथ ने अपनी बात रखनी शुरू की, “सेठ जी अर सेठाणी जी इ धरती पे भगवान से भी घणा बड़ा है। भगवान नाम को होवै, काम ना आवै। सेठाणी ने डेरा की काया बदल दी। हांडता-फिरता, गाम-गली नापता को पक्का ठीया करवा दियौ। तैंतीस करोड़ देवी-देवता मिलके भी वो ना कर पाता, जो इकली ने कर दिखायो।”(साँप, पृष्ठ 415) मिलनदेवी के अहसानों की पूरी कहानी सुनाकर लखीनाथ ने अपना बच्चा उसको देने की इच्छा प्रकट की। पंच के पूछने पर उसने बताया कि इसमें रमतीबाई भी राज़ी है। पंचायत के बड़े बूढ़े के हाथों बच्चा सेठ मुकुंददास और सेठाणी मिलनदेवी को सौंप दिया गया। “एकाएक मिलन की आँखें टपटप टपकने लगी थीं। झरते अश्रुकण ख़ुशी और उपकार से लबरेज़ थे। लखीनाथ का चरित्र और रमती का त्याग उसकी स्मृति की इबारत थे। बस्ती की आशीष सोने पे सुहागा रही। पहले उसका मन चोर की भाँति डरा-डरा, दुबका-दुबका था। अब साहूकार की तरह खिला-खिला, उल्लसित हुआ जाता था।”(साँप, पृष्ठ 417) इस प्रकार, मिलनदेवी ने अपना वादा पूरा किया। लखीनाथ ने अपनी मूँछ के बाल की लाज रखी। दोनों के प्रेम और निबाह में, लखीनाथ का अंश और मिलनदेवी का वंश, मिलकर एक हो गए। यहाँ पर प्रेम की दो दुनियाएँ मिलकर एक हो गईं। 

चारित्रिक दृष्टि से देखा जाए तो उपन्यास में मिलनदेवी और लखीनाथ का चरित्र सर्वाधिक प्रबल है। दोनों के चरित्र में कुछ समानताएँ हैं तो कुछ असमानताएँ। सामाजिक कार्यों और मानव सेवा को लेकर, दोनों के विचार लगभग एक जैसे हैं। नैतिक और धार्मिक चरित्र में थोड़ी असमानता है। लखीनाथ का चरित्र विकसित और मिलनदेवी का चरित्र विकासशील है। मिलनदेवी संतान सुख को लेकर कुछ अधिक ही उत्साहित और लड़खड़ाती सी नज़र आती है। “लखीनाथ की हथेली पर अपनी अंगुली से लिखा ‘वादा’ और सोने की डिबिया में रखा लखीनाथ की मूँछ का बाल उसकी याद्दाश्त की बही में दर्ज है, मोटे-मोटे आखरों में। पन्ने पलट-पलट उसकी आँखों के सामने आते। उसने स्वयं को बाँहों में भर लिया। कुछ सकुचायी सी, कुछ लजायी सी, कुछ शरामायी सी, कुछ रिझायी सी, वह कभी बदली बन इठलाती, कभी बूँद हुई पूर्णता पाती। रीझ-रीझ दिल की घुमड़न उठती-बैठती। अजीब निवेश से वह कभी निथरती, कभी डूबती थी। उसका वादा लखीनाथ का इरादा . . .। कोख। आबरू। परहित। कोख! कोख बूँद होती है, जात नहीं। वह अपनी हथेली पर अंगुलियाँ फेरने लगी थी, मानों क़ुदरत की खिंची लकीरों को मिटा कर ख़ुद की इबारत लिखेगी। विचारती रही, विचारती रही। विचारती-विचारती विचारों में गुम गई। दुनिया का कोई कार्य पाप-पुण्य की तुला पर एकसार नहीं होता। सद्कर्मों का पलड़ा सदैव भारी और दुष्कर्मों का पलड़ा उठा रहता है। चाह को, न हहराता समंदर डुबो सकता है, न आग की फरफराती लपटें उसे जला सकती हैं। न आँधी उड़ा सकती है, न मेह भिगो सकता है। आँगन में खिले पुष्प को देखकर कौन अभागा ख़ुश नहीं होगा। एक लक्ष्य से दो कार्य सधते हैं। ज्ञात-अज्ञात। ज्ञात दीन-दुखियों की सेवा है। अज्ञात ख़ुद का स्वार्थ है। मनोरथ है। वंश . . .।” (साँप, पृष्ठ 207) 

हालाँकि बाद में, लखीनाथ के संयम और सूझ-बूझ से मिलनदेवी के इन विचारों में परिवर्तन होता है और वह बग़ैर नैतिक पतन के लखीनाथ का अंश (बच्चा) पाकर अपने वंश को बढ़ाती है। मिलनदेवी के धर्म-कर्म संबंधी विचार तर्क और वैज्ञानिक दृष्टि पर खरे उतरते हैं क्योंकि “पुनर्जन्म में वह विश्वास नहीं करती थी। सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलयुग को वह युटोपिया (काल्पनिक) मानती रही। डेरों की जगह बसी पक्की बस्ती का युग परिवर्तन अपनी आँखों देख रही है। स्वर्ग-नरक की कल्पना महज़ एक सनक है। कोरा अंधविश्वास है। भोले-भाले अनपढ़ लोगों की भावनाओं को भुनाने का सुनियोजित षड्यंत्र है। नरक से स्वर्ग में बदल गई बस्ती को देखने के बाद, उसमें नई सोच ने जन्म लिया है, न स्वर्ग ऊपर है, न नरक नीचे है। दोनों इसी ज़मीं पर हैं। भूख नरक है। रोटी स्वर्ग है।”(साँप, पृष्ठ 389) वेल एजुकेटेड यानी उच्च शिक्षित होने के कारण मिलनदेवी पहले ही काफ़ी प्रगतिशील विचारों की थी, कुछ लखीनाथ से मिलकर और कुछ घुमंतुओं के डेरे पक्का बनवाने के लिए संघर्ष करके हुई। यह लखीनाथ के चरित्र की ही ताक़त थी कि मिलनदेवी उसको सहज प्राप्य होकर भी पवित्र रही। दो-दो बार होटल में जाकर भी निष्पाप लौट आई। क्योंकि “लू के थपेड़े सहते, क़ुदरत का विषम झेलते, आसपास के अविश्वास से रूबरू होते घुमंतू-खानाबदोशों के बालक किशोर सा, किशोर युवा सा, युवा अधेड़ सा अनुभव सँजो लेते हैं। बाइस के लखीनाथ की भरी देह चिकनाई थी। घुमंतू लखीनाथ को जात-बिरादरी, यारी-रिश्तेदारी, राह-सड़क कितनी ही नवयोवनाओं के नयन मनोनयन हुए थे। लखीनाथ चरित्र को अपना सबकुछ मानने वाला काँटे का आदमी था। सेठानी की आँख-बंक उसे काण लाँघती लगी। सेठाणी! असत!”(साँप, पृष्ठ 95) इस असत से लखीनाथ, न सिर्फ़ सेठाणी मिलनदेवी को बचाता है, बल्कि अपनी गृहस्थी और बस्ती की लाज भी रख लेता है। वह ईमानदार भी इतना होता है कि जिस वक़्त डेरे पक्का बनाने वाला ठेकेदार उसे कमीशन खाने-खिलाने का लालच देता है तो लखीनाथ उसे ईमानदारी का पुख़्ता सबूत देते हुए, अपनी ईमानदारी से टस से मस नहीं होता। जिस कारण “ठेकेदार के दिमाग़ ने झटका खाया। सहारा पाया। वक़्त आँका। ख़ुद झाँका। सोच में डूब गया। जीवन का यह कैसा फ़लसफ़ा है। यहाँ सूख-फाका के बावजूद ईमानदारी हरी है। वह ठेकेदार होकर, इतना कमाकर भी मज़दूरों की दिहाड़ी तक डकार जाता है।” (साँप, पृष्ठ 290)

लखीनाथ के नेक और सद्चरित्र के कारण, उसे न सिर्फ़ मिलनदेवी पसंद करती है बल्कि बस्ती वाले भी उसको ख़ासा चाहते हैं। “लखीनाथ की बड़ाई डेरे-डेरे पूरी थी। फल आते पेड़ की टहनी झुक जाया करती है। उसमें भावनाएँ बलवती होने लगी थीं। मन नम्र होता गया। परहित प्रबल हुआ जाता था। क्षुद्रताएँ और द्वेषभाव भूलने लगा था। विजन व्यापक हो तो निष्ठा आ ही जाती है। ग़रीब की निष्ठा तो कहीं अधिक घनीभूत होती जाती है . . .। जोखिम से खेलती ज़िन्दगी, दुःख पाई ज़िन्दगी, क़ुदरत सताई ज़िन्दगी, वीरानी, बेगानी, अनजानी, बिना चेहरे की ज़िन्दगी, वक़्त के बल्ले से गेंद सी लुढ़कती ज़िन्दगी, जड़ पकड़ते पौधे-सी लग रही थी। बस्ती में आया यह हर्ष, समंदर के ज्वार की भाँति बढ़ भी रहा था और फैल भी रहा था। सूत्रधार था लखीनाथ।”(साँप, पृष्ठ 295, 296, 297) 

यह बात सही है कि जो लोग अभावों में जितना पलते और बड़े होते हैं, वे ज़िन्दगी की सच्चाइयों के उतना ही क़रीब होते हैं। वे जीवन में कभी, न हार मानते हैं और न जल्दी से ग़लत राह पकड़ते हैं। वे हर दशा, दिशा में अपने नैतिक बल और चरित्र की रक्षा करते हैं। इसका मार्मिक और जीवंत उदाहरण नट की बेटी प्रस्तुत करती है, “झोपड़ी के बाहर खटोला डला था। झोल झंकड़। नौ दस बरस की नट लड़की उसमें आधा लेटी थी। उसकी दायीं टाँग पिछले दिनों रस्सी पर खेल दिखाते गिरने से टूट गई थी। तेल-हल्दी बालों की पट्टी बँधी थी। फ़्रॉक पहने थी। उसके झुतरैले-लटियाए बालों में जुओं और लीकों का एकछत्र राज था। वह बढ़े नाखूनों अपनी अंगुलियों से सिर खुजलाती। टूटी टाँग बँधी पट्टी सहलाती, मुँह बिसूरती दर्द के मारे, सी-सी किए जाती थी। मक्खियाँ भिनभिनाती थीं, बुरी तरह। लड़की नहीं, गंदगी का अंबार हो। उसका बाप मदारी अपनी छोटी लड़की को लेकर तमाशा दिखाने निकला था। मिलन ने शशि से कहा-इससे दरिद्र भी कोई दुनिया हो सकती है? ऐसी भुखमरी हो सकती है? दाने-दाने को मोहताज हो सकता है? शशि ने गर्दन हिलाई—मैंने तो नहीं देखा, आज तक। काजल में करुणा उपजी-सचमुच दुखियारी है। मिलन ने एक रुपया निकाला और लड़की के निकट जा खड़ी हुई। उसकी हथेली पर रुपया रखकर बोली—लो बेटी! लड़की रुपया वापस मोड़ती कहने लगी—रहणे दो बहण जी। टाबरपन से भूख खाणी सींख जावां हम। लड़की ने रुपया को अकूत धन की तरह देखा। आँखें भर आईं और अपनी टूटी टाँग सहलाने लगी।”(साँप, पृष्ठ 110-111) 

दलितों और हाशिए के समाज के लोगों की यही चारित्रिक विशेषता उन्हें दूसरों से अलग करती है। एक-दूसरे के निकट लाती है। एक-दूसरे के दुःख में खड़ा होना सिखाती है। उन्होंने जीवन में इतने दुःख झेले और इतनी ठोकरें खाई होती हैं कि वे चाहकर भी बहक नहीं पाते। अपने सत, नेक और नियम पर अड़े रहते हैं। यही उनकी सामाजिक एकता का बाइस बनता है, जैसा कि ‘बंजारा की थड़ी’ (बंजारों के डेरे) में बनता है। जिस वक़्त मंत्रीगण लखीनाथ का पट्टा रोक लेते हैं, उस वक़्त मिलनदेवी, सभी डेरावासियों से पट्टा लौटा देने की अपील करती है ताकि लखीनाथ को भी तत्काल पट्टा आवंटित करवाया जा सके। डेरावासी एक पल की देर किए बिना, एक-एक करके पट्टे लौटाने लगते हैं। “डेरों में जात की छत्तीस फाँक भले थी। ग़रीबी के साए एक ही आँच तपे थे। एका। घुमंतू मिलन का इशारा समझ गए। एक-एक ख़ाना-बदोश आगे बढ़ता गया और समाज कल्याण मंत्री को अपना पट्टा थमाता गया।”(साँप, पृष्ठ 273) इसका परिणाम यह निकला कि संबंधित अधिकारियों को लखीनाथ का पट्टा भी तत्काल मुहैया करवाना पड़ा।

विपरीत इसके शासन-प्रशासन का अपना चरित्र होता है। लखीनाथ के जज़्बे और लोकप्रियता को देखकर मंत्रीजी उसे पार्टी में शामिल कर लेना चाहते हैं, ताकि लखीनाथ के माध्यम से घुमंतुओं की वोट बटोरे जा सकें। वे डेरे में जब स्कूल का शिलान्यास करने जाते हैं, तब “मंत्रीजी की नज़र लखीनाथ की ओर गई। उसने मुख्यमंत्री निवास पर जिस संजीदगी, आत्मविश्वास और वाकपटुता से घुमंतू समाज का दर्द बयान किया, मुख्यमंत्री चबुक पर अंगुली रखकर हां-हां करते रहे। कान उठाकर सुनते रहे। सँपेरा होकर भी उसमें संयम, सादगी और परहित की भावना कूट-कूटकर भरी हुई है। वह संघर्ष और प्रतिरोध के लिए तत्पर है। ऐसा जज़्बा ख़ानाबदोशों में दुर्लभ है। आज जिस व्यक्ति को बस्ती पलकों पर बिठाए हुए है, ऐसे ख़ुद्दार और जज़्बाती ख़ाना-बदोश के गले में पार्टी के कार्यकर्ता का पट्टा डालना हित में रहेगा।”(साँप, पृष्ठ 363-364) इसी तरह प्रशासन का अपना चरित्र होता है। वह शासन के आदेश-निर्देश के अनुपालन में जनता के हित और अहित दोनों को ताक पर रख सकता है। घुमंतुओं के डेरे पक्के बनने के बाद घुमंतुओं के सामने जो बड़ी परेशानी आती है, वह यह थी कि अब उन्हें अपने पालतू जीव-जानवरों से अलग होना पड़ेगा। प्रशासन इसकी पहल, डेरे के पक्के बनने के तुरंत बाद कर देता है। 

प्रशासन को घुमंतुओं और उनके जीव-जानवरों का आपसी जुड़ाव से कोई लेना-देना नहीं होता। जीव-जानवरों की परेशानी से कोई सरोकार नहीं होता। न ही उनके प्रति कोई सहानुभूति होती है। प्रशासन की ओर से अख़बार में जो ख़बर निकाली जाती है उसे धूनाराम बंजारा लखीनाथ को पढ़कर सुनाता है। वह पढ़कर बताता है कि “अपनी बड़ी सिरकार जंगली जीव-जिनावर, पालन-पोषण-बेचण अर उनके खेल तमासो दिखावण पे पूरी तरां रोक लगा दी है। राखणियां पे जुरमानों हुवेगौ, अर जेल भी काटेगौ।”(साँप, पृष्ठ 337) सुनकर लखीनाथ चिंतित हुआ। सारी बस्ती चिंतित हुई। उनका रोज़ी-रोज़गार इन्हीं जानवरों से चलता था। डेरे पक्के होने से रोटी का बंदोबस्त तो पक्का नहीं हुआ था। इंसान और जानवरों को डेरे में एक दूसरे की बहुत ज़रूरत थी इसलिए जंगल में छोड़े जाने के बाद भी जानवर फिर से घर लौट आते हैं। डेरा में इंसान और जानवर, दोनों के “पेट और गरज एक थे। जंगली जीव-जानवरों का कमाया रगों में समाया था। इंसान और जानवर के बीच पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे रिश्ते की वह मज़बूत डोर क़ानून की एक धारा ने काटकर पृथक कर दी थी। जंगली जीवों के प्रति लगाव, ख़ुद का फंसाव था। संत्रास। जुर्माना। सजा।”(साँप, पृष्ठ 351) दरअसल, भारत सरकार ने देश के वन्यजीवों के संरक्षण और अवैध तस्करी को रोकने के लिए ‘वन्य जीव संरक्षण अधिनियम 1972’ लागू कर दिया था। नियम के प्रावधान अनुसार “यदि कोई व्यक्ति रीछ, भालू, शेर, बघेरा, चीतल, हिरण, ख़रगोश, पाटागोह, बंदर आदि जंगली जानवरों तथा बाज़, गिद्ध, चील आदि पक्षियों और साँप, गोहरा, नेवला, कोबरा पालते, उनका व्यापार करते या उनसे खेल-तमाशा दिखाते पाया गया तो अधिनियम के तहत क़ानूनी कार्यवाही की जायेगी।”(साँप, पृष्ठ 338-339) 

मजबूर होकर डेरावासियों ने अपने-अपने जीव-जानवर फॉरेस्टर को सौंपना उचित समझा। जानवरों को लेने के लिए “एडिशनल और डिप्टी साथ आए। एस.डी.एम. के साथ डी.एफ़.ओ., पशु चिकित्सक, रेंजर, फॉरेस्टर और दो तीन गार्ड आए। ट्रेंकुलाइजर टीम दो पिंजरे अपने साथ लायी।”(साँप, पृष्ठ 358) सभी जीव-जानवर पिंजरे में क़ैद कर लिए गए। “पिंजरा बंद हो गया। ख़ानाबदोशों की आँखें डबडबा आईं। अश्रुकण फूट पड़े। उनकी अश्रुपूरित आँखें देखकर एस.डी.एम. उनके निकट गए। हमदर्दी प्रकट की और उनको ढाढ़स बँधाते बोले, “अरे रोओ मत! जानवरों को शहर के चिड़ियाघर में छोड़ेंगे। शहर देख-देख जायेगा। बच्चे ख़ुश होंगे। जब चाहो तुम भी देखने चले आना।”(साँप, पृष्ठ 361) डेरा वासियों का डेरा तो पक्का हो गया किन्तु उनके चहेते पशु-पक्षी उनसे बिछड़ गए। पहले जो जीव-जानवर उनके परिवार और रोज़गार का हिस्सा हुआ करते थे, अब सरकार की आमदनी का ज़रिया होंगे। एक बस्ती बसी। एक बस्ती उजड़ी। एक दुनिया बसी। एक दुनिया उजड़ी। आदमी बसे, पशु-पक्षी उजड़े। इंसान और जीव जानवर की दुनियाएँ अलग हुईं। शासन और प्रशासन की आमदनी और शान बढ़ी। घुमंतुओं का रोज़गार गया, चिंता बढ़ी। घुमंतुओं को बसने की क़ीमत चुकानी पड़ी। 

अंत में बात अधूरी रह जायेगी यदि साँप उपन्यास के शीर्षक और इसकी भाषा पर बात नहीं हुई। साहित्य में ‘साँप’ प्रतीक रूप में इस्तेमाल होता रहा है। इसका प्रतीकार्थ होता है, विषधर। मनुष्य समाज में ऐसे-ऐसे लोग रहते हैं जिनके सामने साँप का दंश और विष भी पानी भरता है। उपन्यास में, साँप शीर्षक दो प्रमुख प्रतीक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। एक तो मिलनदेवी यानी निःसंतान स्त्री के इर्द-गिर्द साँप रूपी पुरुष, समाज, रिश्तेदार और पितृसत्तात्मक परिवार के प्रतीक रूप में। दूसरा, हाशिए के समाज और घुमंतुओं के बरक्स शासन, प्रशासन और समाज के ठेकेदारों के प्रतीक रूप में। दोनों की स्थिति, परिस्थिति, दशा और सामाजिक पहचान को उजागर करने के लिए उपन्यास का शीर्षक ‘साँप’ रखा गया है। इसकी तार्किकता पर ग़ौर करते हुए पहले प्रतीक अर्थ की बात करें तो, मिलनदेवी इस संदर्भ में लखीनाथ के सामने स्पष्ट संकेत करती है कि “चाचा का लड़का बराबर दबाव बनाए हुए है, उसके तीन लड़कों में से एक को गोद ले लूँ। ससुराल में जेठानी जी अपनी लड़की के लड़के को गोद देने के लिए गले पड़ी हैं। यह तो आप भी जानते हैं लखीनाथ, अपनों के दत्तक पुत्र कभी अपने हुए हैं? दोनों ओर स्वार्थ का पासा है। लोभ के विषधर फण काढ़े हुए हैं। धोखे की दोहरी जीभ लपलपा रही है। घात पर घात होते हैं . . . तुम्हारे नाग के तो एक फण और दो जीभ ही होती हैं। उन नागों के तो कई-कई फण और कई-कई जीभें हैं, मुझे जिन विषैलों ने घेरा है।” इससे सहज ही अंदाज़ हो जाता है कि समाज और परिवार में निःसंतान स्त्री का जीना कितना दूभर हो जाता है। परिवार और समाज के विषधरों (डॉ. साध, मंत्री और थानेदार धारसिंह जैसे विषधरों) से स्त्री हमेशा घिरी रहती है। 

दूसरे प्रतीक अर्थ की बात करें तो दलितों, वंचितों, घुमंतुओं और हाशिए के समाज की समस्या भी कुछ-कुछ मिलनदेवी के जैसी ही होती है। ये भी तरह-तरह के विषधरों से घिरे होते हैं। इनका भी मनमाना शोषण समाज के ठेकेदारों द्वारा किया जाता है। व्यवस्था उनसे जितना लेती है, उसके बरक्स देती कुछ नहीं। जातिगत भेदभाव, आर्थिक पिछड़ापन, अशिक्षा, बेरोज़गारी यहाँ तक कि सामाजिक और संवैधानिक अधिकारों तक से वंचित किए जाते हैं; हाशिए के समाज के लोग, दलित, वंचित, घुमंतू, घुमक्कड़ और ख़ाना-बदोश। सेठ मुकुंददास के सामने, इसी बात की पीड़ा उभरती है लखीनाथ के शब्दों में। वह नींव के बिल में घुसा साँप पकड़ते हुए कहता है, “वो तो नाग देवता है, सेठ जी। स्याम सलोनो। संकरजी के गला को गहनो। सबसे ख़तरनाक तो वो होवै, जिका भीतरला में दया-धरम नाम की चीज़ ना होवै। साँप बेचारो एक चेहरा राखै। आदमी चेहरा पे चेहरा धरो रहवै। काला धोलो का पतो तक ना चाले सेठ जी।” (साँप, पृष्ठ 35) 

उक्त दोनों संदर्भो और प्रतीक अर्थ में उपन्यास का शीर्षक यथोचित है। उपन्यास की भाषा की बात करें तो यह भी उपन्यास का बेहद ख़ास और मज़बूत पक्ष है। उपन्यास की भाषा बहुत प्रभावशाली है। लेखक द्वारा किया गया विलक्षण प्रयोग है। यह उपन्यास को पठनीय, सुगढ़ और सारगर्भित बनाती है। सुंदर और सटीक अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बनती है। उपन्यास को साहित्यिक और वैचारिक स्तर से उत्कृष्ट बनाती है। पात्रानुकूल भाषा का प्रयोग उपन्यासकार के औपन्यासिक कौशल को दर्शाने वाला है। लोक प्रचलित मुहावरों, किंवदतियों और सूक्तियों आदि का प्रयोग उपन्यास को प्रासंगिक बनाता है। संप्रेषण के तमाम गुण उपन्यासकार की भाषा में दिखाई पड़ते हैं। छोटे-छोटे वाक्य, पात्रों और परिस्थितियों के अनुसार शब्दों का चयन, उपन्यास की भाषा को चार चाँद लगा देते हैं। ख़ासकर लोक शब्दावली, उपन्यास के पात्रों को, परिवेश को और घटनाओं को जीवंत और समसामयिक बनाकर पेश करती है। अहमक़, डास, नीड़े, हाड़े, ठेल, कोली, चूहे, टोटा, बाना, टोल्ला, लुकना, नामचारा, आड़, झूतरा, गोड़े, बखेड़ा, मोड़ना या फेरना (लौटाना), पीड़, बेर (देर), रहपट, तावला, तड़के, नाड़, धौले, दीदा, काढ़ना, रासें, उपड़ना, दलद्दर, सयानपत, रिपसता, चपड़की, रुक्का, तोड़, खुरंड, थावस, कदी, कन्ने, ओलो, चाणचक, सटक, थड़ी, खोस, मुसना, हाज़त, फरागत, दाईदवाल, कपड़ा पहर, बल उठी, पासंग, पत्ती मारना, ठेकरा, तिहार, टेम आदि ऐसे शब्द हैं जो अपने समय और लोक-परिवेश को जीवंत कर देते हैं। एक-एक शब्द अपने समय का पूरा-पूरा आख्यान प्रस्तुत करता प्रतीत होता है। पाठक उपन्यास में निर्मित किए माहौल और परिवेश में ख़ुद ब ख़ुद डूबता, उतराता चलता जाता है। भावनाओं के उत्स को सँभालने का भाषाई शऊर जैसा रत्नकुमार सांभरिया के पास है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। तभी वे एक दुनिया में दो दुनियाओं का साक्षात् और सम्मिलन कराने में सफल हुए हैं। घुमंतुओं के जीवन का आख्यान यथोचित शब्दों में पिरोकर उपन्यास रूप में प्रस्तुत कर पाए हैं। कोई कृति देखते-देखते कालजयी बन जाती है। 'साँप' उपन्‍यास उसका ज्‍वलन्‍त उदाहरण है। 

डॉ. अमित धर्मसिंह
401/7-बी, यूजीएफ, के.एच.नं. 54/4,
अशोक मोहल्‍ला, नियर जाट चौपाल,
भूतों वाली गली, नांगलोयी, दिल्‍ली-110041
मो. 931004324
E-mail-: amitdharmsingh@gmail.com

 

 

 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें