एक दिया काफ़ी है . . .
शैलेन्द्र कुमार रस्तोगीएक दिया काफ़ी है
अँधियारा मिटाने के लिए।
श्रम की चिकनाई में डूबी
हौसले की एक बाती
आस के दीपक में धर
यदि दो जला . . .
ये जतन काफ़ी है
सपने सच बनाने के लिए।
वो जो अन्तस के निलय में
लग चुके हैं द्वेष-जाले
प्रेम की झाड़ू ज़रा सी
दो चला . . .
अपनापन काफ़ी है
रूठों को मनाने के लिए।
प्रगति पथ पर प्रज्ज्वलित
श्रमदान के इस कुण्ड में
तुम जहाँ भी हो वहीं से
अपनी आहुति दो मिला . . .
ये हवन काफ़ी है
नव-निर्माण लाने के लिए।
एक दिया काफ़ी है . . .
अँधियारा मिटाने के लिए।