धीमी मौत 

15-10-2024

धीमी मौत 

डॉ. रिम्पी खिल्लन सिंह (अंक: 263, अक्टूबर द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

 

वह एक शिक्षा संस्थान में अध्यापक था। सुनते हैं कि उसे एक तरह की बीमारी हो गयी थी। उसे रोज़ लगता था कि वह मर रहा है। वैसे उसे लगातार संदेह था अपने जीवित होने पर। वह बहुत बार आईने के सामने अपने चेहरे को देखता था। कभी अपनी दाढ़ी के तिनके साफ़ करता पर पिछले काफ़ी समय से उसने दाढ़ी रखना ही छोड़ दिया था। कौन पड़े इस साफ़-सफ़ाई के झंझट में? 

उसकी दिनचर्या ख़ाली भी थी पर साथ ही थकाने वाली भी थी। उसे लग रहा था कि वह जबरन उस व्यवस्था के भीतर बने रहने के लिए ज़ोर लगा रहा था जो अब उसे नहीं चाहती थी पर सवाल यह भी तो था कि आख़िर व्यवस्था चाहती क्या थी? बहुत सारी चीज़ें उसकी आँखों के सामने विस्थापित होती चली गयीं थी। 

विस्थापन केवल एक जगह से दूसरी जगह खदेड़ दिए जाने में होता हो, ऐसा नहीं है। वह बहुत कुछ जिसे आप लंबे समय तक साथ लेकर चलते रहे हों, उसे मान्यता देते रहे हों, उसे एक झटके में अमान्य क़रार दिया जाना भी किसी विस्थापन से कम नहीं है। यूँ भी एक शिक्षक की मान्यता क्या? और सोच क्या? उसे गंभीरता से लेता ही कौन है? आपको गंभीरता से लिया जाये, इसके लिए आपके पास शक्ति होना अनिवार्य है, फिर भले ही आप उसके पात्र हो न हों। 

वह एक शिक्षक था इसलिए इन मुद्दों पर सोचता भी था पर इतना सोचना सेहत के लिए कहाँ अच्छा होता है? आख़िर वह था तो तंत्र का ही एक छोटा-सा पुर्जा। वह धीरे-धीरे अपने सहकर्मियों के बीच भी विस्थापित हो रहा था। कल स्‍टाफ रूम में मिसेज़ पाल मिली थीं। वह जैसे ही उनकी बग़ल वाली कुर्सी पर अभिवादन की मुद्रा में बैठने को हुआ, “लगता है क्लास का समय हो गया है।” वे लगभग दौड़ने की मुद्रा में उठी थीं। 

वह एक पल के लिए हवा में ताकता रह गया। पढ़ाना उसका पेशा नहीं था, उसकी शिद्दत थी, उसके जीने की बड़ी वजह थी पर आजकल पढ़ाना भी उसे थकाने लगा था। उसकी आदत थी विषय से इतर अन्य विषयों को जोड़कर पढ़ाने की पर अब डर लगने लगा था कि पता नहीं वह जो कहेगा, सामने वाला उसका क्या मतलब लगा ले? 

सबके हाथ में मोबाइल हैं और सब बिना स्वतंत्रता के अर्थ को जाने कुछ ज़्यादा ही आज़ाद भी हैं। किसकी आज़ादी भीतर से कब कुलबुलाने लगे पता नहीं। उसे याद आये अपने विद्यार्थी जीवन के वे दिन जब मोबाइल नहीं था पर खुल कर बोलने का जज़्बा भरपूर था। मानवाधिकारों पर गरमा-गर्म बहसें थीं और कोई भी बहस तब तक सफल नहीं मानी जाती थी जब तक दोनों ओर से असहमतियाँ खुल कर न दर्ज हो जायें और लोग उन ख़तरों को उठाने के लिए तैयार भी थे। 

वह लगातार सोच रहा था। इस बीच अगली कक्षा की घंटी बज चुकी थी। वह सोच रहा था कि शायद आज भविष्य में होने वाली “पानी की लड़ाई” पर चर्चा करेगा। उसने कल ही ख़बर पढ़ी थी कि किसी देश में इतना भयानक सूखा पड़ा है कि उन्होंने ऐलान किया है कि वे अपने यहाँ के हाथियों को मारकर खाएँगे और इस तरह से उस भयानक सूखे की मार से बचने का प्रयास करेंगे। उसे ख़बर बहुत आतंकित करने वाली लगी थी। वह बच्चों से शायद भविष्य की इसी चिंता को साझा करना चाहता था कि कितना भयानक होगा वह भविष्य जिसमें दूसरे की मौत आपके जीवित बने रहने का आधार होगी। 

वह इसके साथ जोड़कर कर आज के समाज पर, राजनीति पर चर्चा करना चाहता था पर पता नहीं क्यों आजकल उसकी जीभ तालू से चिपक कर रह जाती थी। विषय से भटके नहीं कि गिरे गहरी खाई में इसलिए वह मुद्दे से इधर-उधर होते-होते ही वापस विषय पर लौट आया अपने पाठ्यक्रम पर। उसने पिछले दिनों योगाभ्यास करके अपने मन को बहुत संतुलित करने का प्रयास किया है लगभग एक दूकानदार की तरह वह केवल उसी प्रोडक्ट तक सीमित रहता है जो उसे अपने उपभोक्ताओं को बेचना है पर कमबख़्त पूरी तरह उस कला में माहिर नहीं हो पाता पर धीरे-धीरे विस्थापन की प्रक्रिया तीव्र हुई है या कहें कि उसकी थकान अपनी उपस्थिति को लेकर तीव्र हुई है। 

शिक्षक दिवस के अवसर पर उसे बहुत सारे संदेश आये हैं जो इस बात का प्रमाण हैं कि वह बहुत अच्छा शिक्षक भले ही न रहा हो पर इतना बुरा भी नहीं रहा है पर अब जब वह संप्रेषण की प्रक्रिया को कक्षा में समझाता है तो वक्ता और श्रोता के बीच संचालित होते संदेश में ही अटक कर रह जाता है क्योंकि “माध्यम ही अब संदेश बन चुका है।” 

कल उसे पता चला कि शिक्षकों और विद्यार्थियों के लिए के लिए एक नयी कोड संहिता लागू की गयी है जिसके अनुसार आपको अपनी कक्षा में अपने पाठ्यक्रम पर केंद्रित होना अनिवार्य है। पाठ्यक्रम को सिखाना शिक्षक का धर्म है और पाठ्यक्रम को सीखना विद्यार्थी का। बात भी सही है। वह लगातार अपनी मानसिक व्यवस्था को विकेंद्रीकरण के शिकार से बचाने का भरसक प्रयास कर रहा है। यहाँ तक कि वह कक्षा में जाते ही श्यामपट्ट पर एक बिन्दु बना देता है ताकि उसकी एकाग्रता भंग न हो। उसने योगाभ्यास के अभ्यास की अवधि भी बढ़ा दी है पर उसका दिमाग़ है कि केंद्र पर फ़ोकस हो ही नहीं पाता और बहुत सारी परिधियों की यात्रा पर निकल पड़ता है। रोज़ इसी ऊहापोह में डूबता उतराता वह अपनी कक्षा तक भारी क़दमों से चलता हुआ पहुँचता है। 

कभी उसका हाथ अपने चेहरे तक जाता है जो बहुत चिकना हो चुका है जिस पर से पानी और पसीना दोनों फिसलकर उसकी गर्दन तक आ जाते हैं। वह इतिहास में विभाजन की त्रासदी के दौरान विस्थापित असंख्य लोगों की पीड़ा और दर्द के बारे में पढ़ा रहा है कि कैसे उनके अपने, उनका घर, उनके काम धंधे और उनके वुजूद का एक बड़ा हिस्सा पीछे छूट गया और फिर वे सब उस विस्थापन का दंश सदियों तक झेलते रहे। यह सब पढ़ाते-पढ़ाते उसका गला अवरुद्ध हो आया था। 

एक पल को उसे लगा था कि उस भरी पूरी कक्षा में उसकी आवाज़ प्रतिध्वनि बनकर उस तक ही लौट रही है। वह सीखने सिखाने की इस प्रक्रिया में हाशिए पर खड़ा है पर तभी एक विद्यार्थी के सवाल से उसकी तंद्रा टूटी और वह जैसे पूरी तरह दीवार की तरफ़ सरकते-सरकते बचा। विद्यार्थी का सवाल था, “सर क्या आज हमारे मुल्क की तरफ़ आने वाले बांग्लादेशियों का विस्थापन भी उसी तरह का विस्थापन है जो कई साल पहले हमने झेला था ?” इसके जवाब में उसके मुँह से अनायास ही निकला कि “विस्थापन विस्थापन ही होता है चाहे वह किसी का भी हो और किसी भी परिस्थिति में हो। एक बार विस्थापित हो गये तो फिर जीवन निकल जाता है ख़ुद को स्थापित करने के लिए।” 

उसे लगा कि वह कुछ और भी कहना चाहता था उस विद्यार्थी की जिज्ञासा पर। उसने इधर-उधर नज़र घुमाई। उसकी नज़रों में कुछ अजीब-सा था। उसकी नज़रों में एक अजीब सा भय था। उसे अपना ही सिर अपने धड़ से अलग होता प्रतीत हो रहा था। उसका मस्तिष्क जैसे बार-बार उससे विस्थापित हो रहा था। अचानक ही अगली कक्षा का घंटा बजा। उसे लगा उसकी जान में जान आ गयी हो जैसे। उसने सोचा कि कल कोई और विषय लेगा। “अभी कुछ दिनों तक इस विषय पर बात करना सम्भव न हो सके शायद।” 

आज जब वह घर पहुँचा तो अचानक ही तेज़ मूसलाधार बरसात शुरू हो गयी थी। वह लगातार गिरती हुई बरसात को देखता रहा था। उसे लगा कि वह बरसात नहीं थी बल्कि उसके भीतर से रिसता हुआ कोई सोता था। वह उस रिसाव का क्या कर सकता था? उसे लगा कि वह ऐसे परिवेश में घिरता जा रहा है जहाँ व्यक्ति रिस सकता है पर सवालों के जवाब लेना या देना एक ख़तरनाक मसला हो सकता है पर कठिनाई यह थी कि एक शिक्षक के वुजूद का तो सारा का सारा दारोमदार ही सवाल और जवाब पर टिका था। 

वह फिर योगाभ्यास की मुद्रा में बैठकर मन को शांत करने का प्रयास करने लगा पर उसका मन पूरी तरह अशांत था। उसे लगा कि एक शिक्षक का काम ही विद्यार्थी के मन में जिज्ञासा पैदा करना होता है, उसका अतिक्रमण करना नहीं। यदि ऐसा हुआ तो फिर सवाल कौन पूछेगा? और जब सवाल ही नहीं होंगे तो फिर उनके जवाबों की तलाश कैसी? उसे लगा जैसे वह ख़ुद से ही ये सब सवाल कर रहा था पर इनमें से किसी सवाल का जवाब भी वह ख़ुद को देना नहीं चाहता था। जब विद्यार्थी राजनीतिक मुद्दों पर ज़्यादा सवाल जवाब करते हैं तो आजकल वह भी उन्हें यही कहकर चुप करवा देता है कि “पढ़ाई ज़रूरी है” जबकि भीतर ही भीतर वह अच्छी तरह से जानता है कि यही उनकी सवाल करने की उम्र है। अगर अब जिज्ञासायें नहीं उठी, सवाल नहीं पूछे गये तो फिर ज़िन्दगी भर नहीं पूछे जा सकेंगे। एक अच्छी नौकरी, बँधी बँधाई तनख़्वाह, जीवन का स्थायीपन धीरे धीरे सब कुछ को ख़त्म कर देंगे। 

तभी उसे अपने एक विद्यार्थी का चेहरा याद हो आया। उसके चेहरे का कौतूहल जैसे उसके भीतर के शिक्षक को जीवंत बनाए रखता था। उस जैसे विद्यार्थी जैसे उसकी जीवन रेखा थे पर अब वह जैसे स्वयं ही अपनी जीवन रेखाओं के तार कुतरने में लगा था। वह उस विद्यार्थी को निरंतर केवल अपने करियर पर फ़ोकस करने के लिए कहता। 

कभी-कभी उसे लगाता कि उसकी कक्षा में बैठे विद्यार्थी अब उससे अधिक भरोसेमंद गूगल महाशय को मानने लगे हैं जो कम से कम उनकी जिज्ञासाओं को तो शांत करता है। उसकी अंतरप्रज्ञा ही शायद उसे जीवित रख सकती थी पर उसे बाँटना बहुत सारे कोडों का हनन करना था। वह अक्सर जब सोचता तो यही सोचता कि उसने अपने पसंदीदा पेशे का चयन किया था। उसे कुछ और नहीं बनना था। वह केवल पढ़ना और पढ़ाना चाहता था। पर लोग उसे अविश्वास भरी निगाह से देखते। भला आज के समय में कौन समझदार इंसान शिक्षक बनना पसंद करेगा। 

उसे लगा कि वह अनेक तरह के संदेहों से घिरता जा रहा है। उसका वुजूद जैसे व्यवस्था की फिसलन का शिकार होता जा रहा है। वह सोचने लगा था की शिक्षा दरअसल करती क्या है? उसके पिता कहा करते थे, “ शिक्षा मुक्त करती है”। उसके पिता किराने की दुकान चलाते थे। उन्हेंं हमेशा लगता था की रोज़ कुआँ खोदने और पानी पीने की जिस प्रक्रिया से वह मुक्त नहीं हो सके उनसे उनका बेटा ज़रूर मुक्त हो जाएगा। उनके लिए किराने की दुकान उन्हेंं हमेशा एक मकड़जाल जैसी लगती थी जिसमें वे एक मकड़ी की भाँति उल्टा लटके थे। पर अपने बेटे को एक मुक्त मनुष्य के रूप में देखने का उनका सपना था। एक कम पढ़े लिखे पर समझदार व्यक्ति का सपना जो जानता था कि जब तक “हरा समंदर गोपीचंदर बोल मेरी मछली कित्ता पानी” का जवाब “इत्ता पानी” जैसा बड़ा और विशाल हाथ खोले नहीं होगा तब तक उनका बेटा भी पोखर की मछली की मानिंद ही रह जाएगा। कभी समंदर के सफ़र पर नहीं निकल सकेगा। 

उसे आज पिता बहुत याद आ रहे थे जो शायद नहीं जानते थे या हो सकता है वह उनके विवेक पर संदेह कर रहा हो क्योंकि वह किराने की दुकान चलाते थे पर फिर भी जानते हों कि समंदर की तरफ़ रुख़ करने के अनेक ख़तरे हैं। उसकी कोई थाह नहीं होती। बारिश का पानी बाहर ज़ोरदार आवाज़ कर रहा था। उसे लगा की वह समंदर के बीचों-बीच डूब रहा है, उतरा रहा है। उसकी कक्षा के जिज्ञासु विद्यार्थी का सवाल उसके मस्तिष्क में बिजली की तरह कौंधा था। क्या सभी तरह के विस्थापन एक जैसे होते हैं? क्या हम विस्थापनों के दौर में हैं? 

उसे फिर लगा उसके भीतर का शिक्षक भी लगातार कक्षा से विस्थापित हुआ है जो भीतर है वह महज़ एक यंत्र है बोल रहा है, लिख रहा है। उसने आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस को लेकर बहुत कुछ सुना है। सुना है कि अब शायद रोबोट ही शिक्षा भी देने लगे, उसे फिर लगा कि उसमें और रोबोट में भी कोई ख़ास अंतर नहीं बचा। अक्सर रात को सपने में उसे ऐसा लगता कि कोई दूसरे ग्रह के प्राणी उसके शरीर की ऊपरी परत को छीलकर भीतर कुछ फ़िट कर रहे हैं। शायद सिम जैसा कुछ। और वह घबराकर बिस्तर से उठ बैठता है। अपने चिकनी चेहरे से नीचे गिरती हुई बूँद को पोंछते हुए। 

उसकी जीभ फिर से उसके तालू से चिपक जाती है। उसके भीतर रोबोट होने के सारे लक्षण प्रकट होने लगते हैं। वह यंत्रवत उठकर बैठ जाता है। और एक टक बाहर की तरफ़ ताकता है। भीतर कुछ महसूस नहीं होता। वह मर रहा है या जीवित है उसे ठीक से पता नहीं पर सिम जैसा कुछ है जो उसे चला रहा है उसे लगता है कि उसका जैविक शरीर और मस्तिष्क जैसे एक धीमी मौत मर रहे हों। 

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