दर्द में बसा सुकून
साधना सिंहमैं लिखना चाहती हूँ
तुम्हें फिर से
पर क्या लिखूँ
तुम्हें प्रेम लिखूँ कि दर्द लिखूँ
दोनों तुमसे ही हैं
चलो, तुम्हारा नाम लिखती हूँ
पर पहले मैं कोई नाम देती हूँ
सूरज लिख दूँ
या सागर ?
नहीं.. तुम्हें साहिल लिखती हूँ
और ख़ुद को लहर
हाँ, यही ठीक है
ऐसे ही तो है हमारा रिश्ता
लहर मचल कर साहिल को भिगोती है
पर उसे तटस्थ देख
उल्टे पाँव वापस आ जाती हैं
और ये कोशिश बार-बार करती है
मैं भी तो आती हूँ,
तुम्हें देखती हूँ,
तुम्हें छूती हूँ
तुम ही नहीं मुड़ते
मैं भी उल्टे पाँव वापस आ जाती हूँ
और ये कोशिश मैं भी बार-बार करती हूँ
और ना जाने सदियों से
ये आस ख़त्म नहीं होती
ये प्यास ख़त्म नहीं होती
और लहर का साहिल में अपने वजूद की
तलाश ख़त्म नहीं होती
अस्तित्व ख़त्म हो जाता है
ज़िन्दगी ख़त्म हो जाती हैं
पर फिर से मिलने की
अरदास ख़त्म नहीं होती
इस तरह दर्द मे प्रेम ज़िन्दा रहता है
और प्रेम मे दर्द बसा रहता है
और तुम मुझ में
हाँ, तुम मुझ में ही रहोगे
मैं भले ना रहूँ
तुम लहू सा धमनियों में बहोगे
मैं भले ना बहूँ
क्योंकि तुम प्रेम में निहित दर्द हो
और दर्द में बसा सुकून...