दहेज़—सामाजिक बुराई

15-04-2024

दहेज़—सामाजिक बुराई

रिया गुलाटी (अंक: 251, अप्रैल द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

शादी है एक बहुत प्यारा सा बंधन, 
परन्तु ख़ूब माँगा इस अनमोल रिश्ते के लिए लड़के वालों ने धन। 
 
मैं कोई वस्तु नहीं जो बेची जाऊँ, 
क्यूँ मैं उन लोगों की दहेज़ की लालसा को अपनाऊँ? 
 
बहुत लाड़-प्यार से मैं पली-बढ़ी, 
ऐसी हिसाब-किताब वाली शादी से मैं दूर ही सही। 
 
मुझे नाज़ है अपनी क़ाबिलियत पर, 
ग़लत लोगों को नहीं होने दूँगी हावी अपने ऊपर। 
 
बेटियाँ नहीं होती हैं पराई, 
सही चीज़ों के लिए रखो अपनी गुड़िया के लिए मेहनत की कमाई। 
 
ये विनती है कि अपनी बेटीयों को पढ़ाओ, 
और ऐसी सामाजिक बुराई को देश से जल्द ही मिटाओ। 
 
नहीं होती है बेटियाँँ अपने घर वालों पे बोझ, 
ज़रूरत है संसार में बदलने की लड़कियों के प्रति छोटी सोच। 

दहेज़ माँगना और देना, दोनों हैं गुनाह, 
जिसकी है क़ानून में बहुत सख़्त सज़ा। 

1 टिप्पणियाँ

  • 30 Apr, 2024 02:14 AM

    उत्तम विचारों से ओतप्रोत कविता। प्रभु आप व आप जैसी हिन्दी साहित्य में रुचि रखने वालीं युवा लेखिकाओं को समाज-सुधार के लिए निरन्तर यूँही प्रेरित करते रहें।

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