दान

डोली शाह (अंक: 251, अप्रैल द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

बच्चों की सर्दियों की छुट्टियाँ चल रही थीं। पूरा पार्क महिलाओं और बच्चों से भरा पड़ा था। सोचा किसी दूसरी तरफ़ घूम लेता हूँ। 

चलते-चलते सब्ज़ी मंडी की तरफ़ निकल गया। कुछ क़दम आगे बढ़ा ही था कि गाय, भैंसों की भीड़ तो कचड़े के ढेर पर बच्चों को लाठी डंडों से खेलते देख मन सिहर उठा। सर्दी की ठंडी हवाओं में फटे पुराने बनियान, आधे पैरों का पेट, नाक से बहती सर्दी . . . कुछ के हाथों में तो थर्मोकोल के डब्बे, पानी की बोतलें तो ख़ाली चिप्स की पैकेट हाथो से टटोल रहे थे। 

मेरे क़दम तो आगे ज़रूर जा रहे थे लेकिन मेरा मन मस्तिष्क वहीं घूम रहा था। इतने में म्युनिसिपलिटी की गाड़ी देखकर सारे बच्चे वहाँ से भाग खड़े हुए। मुझसे रहा न गया और पूछ बैठा। 

“रुको ज़रा, दिखाओ क्या-क्या मिला यहाँ?” सबकी नज़रें मेरी ओर उठ गयीं, मानो मैं ही उनको कुछ दे रहा था। दोनों हाथ बढ़ाते हुए बोले, “यह सब . . .”

मैंने पूछा, “क्या करोगे इसका?” 

“घर ले जाकर जमा करूँगा, जब थोड़ी इकट्ठी हो जाएगी तो उसे बेच दूँगा,” एक बच्चे ने कहा। 

मैंने आगे फिर पूछा, “बेटा! क्या तुम्हें घृणा नहीं आती?” 

इतने में वहीं से एक लड़का 10 रु. का नोट लिए दौड़ा भागा आया। 

“अरे! बेटा धीरे।”

“देख मुझे क्या मिला!!” 10 का नोट देख मानो सबके चेहरे पर चमक आ गई! 

“काश हमें मिला होता।” 

“कहाँ मिला तुम्हें?” 

“अरे! वहीं पड़ा था।”

“चल फिर देखते हैं और हो शायद!” 

“नहीं यार अब तो गाड़ी भी आ गई है।” 

“खिलाना हमें भी कुछ!” सब बच्चे एकसाथ बोले। 

“अरे! नहीं मुझे पेंसिल ख़रीदनी है, स्कूल खुलते ही परीक्षा में ज़रूरत होगी।” 

उसकी बातें सुन मेरे मुँह से निकला, “किस विद्यालय में पढ़ते हो?” 

“वह सामने वाले विद्यालय में।”

“अच्छा! क्या विद्यालय में पेंसिल नहीं मिलती?” 

“नहीं, सिर्फ़ किताब और पाँच कॉपियाँ।” 

“अच्छा कल क्रिसमस के मौक़े पर भी गाँव की ट्रस्ट की तरफ़ से छोटे बच्चों को कुछ सहयोग राशि दी गई?” 

“हाँ, बनियान, पैंट और लड्डू!”

“अरे वाह! फिर तो आज तुम लोगों को नए कपड़े पहनने चाहिए थे।”

“लेकिन क़लम किसी ने नहीं दिया।”

 उसकी मासूम ध्वनि मेंरे कलेजे को चीर गई। मैंने ₹20 का नोट निकाल कर उसकी ओर बढ़ाया। 

“ज़रूरत तो हमें भी पड़ेगी पेंसिल की!” मानो सब की आँखें मुझसे माँग रही हों। सबकी नज़रें देख मेरी नज़रें झुक गई। मैंने एक 50 रुपए का नोट निकाल कर बच्चों को की ओर बढ़ाया। 

“सब मिलकर एक-एक पेंसिल ख़रीद लेना, लेकिन कल से एक भी बच्चा यहाँ कचड़े के ढेर पर नहीं दिखना चाहिए।” 

सारे बच्चे तो वहाँ से चले गए लेकिन मैं मन ही मन सोचता रह गया। स्कूलों में कपड़ा, किताबों के साथ क़लम की भी व्यवस्थाएँ होनी चाहिए। आख़िर थोक-थोक आता तो है, मगर बच्चों के हाथ तक पहुँचे तब ना . . . और यह बड़े देते भी हैं तो बच्चों को उनकी उम्र देखकर उनकी ज़रूरत की वस्तुएँ के साथ-साथ काग़ज़ क़लम भी तो दें, ताकि उसका भविष्य बन सके। कपड़े पहन कर दो दिन तो कट सकते हैं, लेकिन यदि काग़ज़ क़लम दिया जाए तो किसी की ज़िन्दगी बदल सकती है।

और मैंने मन ही मन सोचा कि महीने में कम से कम एक बार तो ग़रीब विद्यार्थियों को काग़ज़ क़लम का दान ज़रूर करूँगा और अपनी सोच पर ख़ुद ही मुस्कुरा उठा। 

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