चुनौती

01-10-2023

चुनौती

डॉ. किरण शास्त्री (अंक: 238, अक्टूबर प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

1

शाम अपने माता-पिता की अकेली संतान थे। दो वर्ष की आयु रही होगी सिर से माता-पिता का साया उठ गया था। निकटतम संबंधियों का उपेक्षित व्यवहार शाम के लिए प्रेरक तत्त्व साबित हुआ। कीचड़ में कमल, काँटों में गुलाब और कोयले में हीरे की तरह अभावग्रस्त जीवन में भी शाम का व्यक्तित्व निखरता गया। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी उन्होंने अपना लक्ष्य साध लिया था। आगे निकल पड़े तो फिर मुड़ कर पीछे न देखा। जीवन संगिनी उषा भी मानों उनके जीवन में उषा बनकर ही आई थी। गृहस्थी की गाड़ी सुचारु रूप से चल रही थी। पाँच संतानों को पा कर दोनों ही बड़े प्रसन्न थे। दोनों भी आदर्श अध्यापक और समाजसेवी थे। मध्यम वर्गीय परिवार का जीवन वैसे भी संघर्षमय होता है, लेकिन अपनी सूझ-बूझ से परिपूर्ण प्रबंधन शैली से कभी जीवन को अभावग्रस्त न होने दिया। अच्छे संस्कार और उच्च शिक्षा इन दो दौलतों से अपने बच्चों को सरोबार कर दिया। समाज में दोनों की प्रतिष्ठा थी। सभी के लिए घर बैठे रिश्ते आए और समय के रहते विवाह करके अपने दायित्वों को निभाया। आज वर्तमान समय में शाम और उषा दोनों भी इस संसार में नहीं है, लेकिन उनकी सभी संतानें अपनी दो पीढ़ियों के साथ समाज में एक प्रतिष्ठित जीवन बिता रहे हैं। बात यहाँ पर ही समाप्त नहीं हुई है बल्कि कहानी तो अब आरंभ होने जा रही है। ये 17वें वर्ष से 73वें वर्ष तक की जीवन यात्रा तय करने वाली शाम और उषा की पहली पुत्री की कहानी है। 

यूँ तो शाम और उषा की पहली संतान अल्पायु में ही इस संसार से चल बसी थी, जब दूसरी बेटी ने उनके जीवन में पहली बार किलकारियाँ लगाई, तो उन्हें उस कष्ट को भूलने का एक प्यारा कारण दे दिया था। उन्होंने बड़े चाव से उसका नाम रखा था ‘चुनौती’। पता नहीं क्या सोच कर इतना दमदार नाम रखा था, क्योंकि नाम के ठीक विपरीत चुनौती एक प्यारी-सी, छोटी-सी, सीधी-सादी, छल-कपट से दूर, निर्मल हृदय, नम्र व्यवहार, मधुर किन्तु मितभाषी थी। अपने छोटे भाई-बहनों के लिए तो वह किसी माँ से कम न थी। सुसंस्कारों में पली-बढ़ी चुनौती ने अपने जीवन के सत्रहवें वर्ष में प्रवेश किया था। बी.ए. की पढ़ाई के लिए शहर के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में प्रवेश लिया था। कॉलेज की होनहार विद्यार्थी और सभी अध्यापकों की चहेती थी। 

कॉलेज में वार्षिकोत्सव की तैयारियाँ बड़े ज़ोर शोर से चल रही थी। चुनौती के लाख मना करने पर भी उसे एक सामूहिक गान में हिस्सा लेने का आदेश मिला था। जैसे-जैसे समय समीप आ रहा था वैसे-वैसे चुनौती की घबराहट बढ़ती जा रही थी। जीवन में पहली बार उसे मंच पर जाना था। लेकिन उसने अपने मन को मना ही लिया। उसे उस विश्वास को बनाए रखना था जो उसके अध्यापकों ने उस पर रखा था। समारोह का दिन भी आ गया। इस अवसर पर शहर के एक प्रतिष्ठित विद्वान श्री मुरलीधर जी मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित थे। यथा समय महोदय सभागार में पहुँचे। सभी ने उनका स्वागत किया। 

कार्यक्रम आरंभ हुआ। क्या भाषण शृंखला और क्या सांस्कृतिक प्रस्तुति, सभी को मुख्य अतिथि महोदय बड़े ध्यान से देख रहे थे और उसका आनंद भी उठा रहे थे। कार्यक्रम समाप्त हुआ। चलते-चलते श्री मुरलीधर ने कॉलेज के आचार्य से चुनौती के बारे में विस्तृत जानकारी ली और अपनी गाड़ी में बैठ गये। रास्ते भर मुरलीधर जी को रह-रह कर चुनौती का ही चेहरा याद आ रहा था। उस सादगी से भरी लड़की में उन्हें कुछ विशेष आकर्षण दिखाई दिया जिसे वे चाह कर भी भुला नहीं पा रहे थे। यहाँ तक कि घर पहुँच कर अपनी पत्नी के साथ बातचीत का विषय भी चुनौती ही रही। उनकी पत्नी रुक्मिणी ने कहा, “इतने उतावले क्यों हो रहे हो। अभी रात बहुत हो चुकी है, सो जाओ। जानकारी तो ले ही आए हो, कल सुबह उसके माता-पिता से संपर्क करते हैं।” 

रुक्मिणी ने अपने पति का ये रूप पहली बार देखा था। वह भी उत्सुक थी ये जानने के लिए कि आख़िर ये है कौन? इसी कशमकश में दोनों सो गये। 

सुबह जब रुक्मिणी की नींद खुली तो दिन काफ़ी निकल चुका था। ये घर पर नहीं थे। सुबह-सुबह कहाँ चले गये ये सोचते हुए उन्होंने चाय का प्याला होंठों से अभी लगाया ही था कि मुरलीधर ने ज़ोर से आवाज़ लगाई, “भागवान! अकेले-अकेले ही चाय पियोगी क्या? गरमा-गरम चाय का एक प्याला मेरे लिए भी तैयार कर दो। और हाँ! सुनो, मैंने उस लड़की का पता लगा लिया है।” 

रुक्मिणी अपने पति के उतावलेपन को देख कर हँस पड़ी। 

चाय की चुस्की लेते हुए मुरलीधर ने बताया कि उस लड़की के पिता के साथ उनकी बहुत पुरानी पहचान निकल आई, बस परिवार के बारे में नहीं जानते थे, सो वह भी पता चल गया। 

पत्नी ने कहा, “केवल पहेलियाँ ही बुझाओगे या कुछ बताओगे भी?” 

मुरलीधर ने मुस्कुराते हुए कहा, “तुमने भी नाम सुना है शाम और उषा का, उन्हीं की सबसे बड़ी बेटी है चुनौती। बड़े ही नेक दिल और सज्जन लोग हैं, समाज में बड़ा नाम है। शाम की ईमानदारी और सचाई की तो चर्चा करते नहीं थकते हैं लोग। कुछ भी कहो मुझे तो अपने बेटे चेतन के लिए इससे अच्छी जीवन संगिनी और कोई मिल ही नहीं सकती।” 

पत्नी ने कहा, “वो सब तो ठीक है, पर वे भी तो इस रिश्ते के लिए मानें तब न। और फिर हमें चेतन की भी तो इच्छा जाननी चाहिए, इतने वर्षों से विदेश में जो रह रहा है।” 

थोड़ी गंभीर मुद्रा में मुरलीधर ने कहा, “अपने बेटे पर मुझे पूरा विश्वास है, वो हमारी बात न टालेगा, चुनौती है ही इतनी अच्छी कि चेतन भी इनकार नहीं कर सकेगा। अब रही शाम की बात, हम उनसे बात करेंगे, हमारे परिवार को शाम बहुत अच्छी तरह से जानते हैं और फिर इतने भले परिवार में अपनी लड़की देने से भला कोई क्यों इनकार करेगा? और फिर हमारा चेतन भी तो किसी बात में कम नहीं है। मुझ पर विश्वास रखो सब ठीक हो जाएगा।” 

रुक्मिणी एक हल्की सी मुस्कान बिखेरती हुई अपने काम में लग गयी। 

2

“अरे सुनती हो! कहाँ हो तुम?” घर में क़दम रखते ही शाम ने आवाज़ लगाई अपनी पत्नी को। 

उषा ने भी जवाब में अपनी आवाज़ ज़रा ऊँची कर दी , “आती हूँ, आती हूँ, ज़रा सब्र तो करो।” 

“अरे सब्र ही तो नहीं होता, बात ही कुछ ऐसी है। तुम भी सुनोगी तो तुम्हारे भी सब्र का बाँध टूट जाएगा,” शाम के स्वर में एक प्रसन्नता झलक रही थी। 

और इसके बाद शाम ने अपनी पत्नी को मुरलीधर जी का कॉलेज के समारोह में चुनौती को देख कर उसे पसंद करना, कॉलेज के आचार्य से उसकी जानकारी प्राप्त करना, अपने साथ भेंट और उनके बेटे चेतन के साथ चुनौती के विवाह के प्रस्ताव की बात सब कुछ एक साँस में कह दी। सुनकर उषा को अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ। उन्होंने तो कल्पना भी नहीं की थी कि उनकी बेटी के लिए इतना शानदार रिश्ता वह भी घर बैठे मिल जाएगा। लड़का विदेश में पिछले कुछ वर्षों से रह रहा था। अच्छी नौकरी, ऊँची तनख़्वाह, आकर्षक व्यक्तित्व, संभ्रांत परिवार और जाने-पहचाने लोग, और क्या चाहिए था? शाम और उषा के लिए ना कहने का कोई कारण ही न था। उधर चेतन को चुनौती का चित्र भेजा गया, देख कर चेतन ने भी अपनी स्वीकृति जता दी। 

दोनों परिवारों के बीच बातचीत हुई और सुविधाजनक दिन देख कर रिश्ता तय कर दिया गया। दोनों ही परिवार वाले विवाह को अधिक दिनों तक टालना नहीं चाहते थे। चेतन से बात की। वह भी परिस्थितियों को समझते हुए एक महीने की छुट्टी लेकर भारत आ गया। दोनों परिवारों में शादी की तैयारियाँ बड़े ही उल्लास के साथ होने लगी। समय कम था पर कोई कमी नहीं रखना चाहते थे क्योंकि दोनों ही परिवार में ये पहला ब्याह था। विवाह का दिन भी आ गया। बारात के स्वागत के लिए बढ़िया प्रबंध किया गया। बड़े ही उत्साह और उमंग के साथ विवाह की सारी रस्में पूरी हुईं। विदाई का समय आ गया। बड़े भारी मन से शाम और उषा ने चुनौती को अपने घर से विदा किया। 

विवाह के बाद कुछ समय तक भारत में रह कर चेतन वापस विदेश चले गये। क्योंकि चुनौती विवाह के समय बी.ए. तृतीय वर्ष में थी, इसीलिए उसकी पढ़ाई पूरी होने के बाद ही उसे विदेश भिजाने का तय किया गया। और फिर वीज़ा की भी तो औपचारिकता पूरी होनी थी। यद्यपि चेतन ने विदेश पहुँचते ही वीसा के लिए कागज़ात भेज दिए थे, लेकिन कार्यवाही में अपेक्षा से अधिक समय लगता देख कर मुरलीधर ने बी.ए. परीक्षा के सुपरिणाम के आते ही समय को व्यर्थ किए बिना चुनौती को एम.ए. में प्रवेश दिला दिया। वे चाहते थे कि चुनौती जितना अधिक यहाँ से पढ़ कर जाएगी उतना ही अच्छा होगा ताकि उसे वहाँ जाकर काम मिलने में कोई कठिनाई ना हो। चुनौती ने भी अपने सास-ससुर की बात को ठीक जान कर पढ़ाई में अपना मन लगा लिया। उन दिनों अंतरराष्ट्रीय फ़ोन की उतनी सुविधा तो थी नहीं, दोनों के बीच पत्र व्यवहार ही होता था। एक ओर चुनौती और चेतन के बीच संपर्क लगातार बने रहे थे। दूसरी ओर चुनौती ने अपने मधुर व्यवहार से ससुराल वालों का मन जीत लिया था। 

विवाह को हुए दो वर्ष बीत गये, लेकिन चुनौती के विदेश जाने की बात आगे बढ़ नहीं रही थी। लोगों में कानाफूसी होने लगी कि चेतन ने शायद विदेश में दूसरा ब्याह कर लिया होगा। चुनौती की स्थिति ऐसी थी कि किसी से न कुछ कहते बनता था ना पूछते ही। भीतर ही भीतर बड़ी घबराई-सी रहती थी। ये सुन कर तो शाम और उषा की साँसें फूलने लगीं। दोनों ने मुरलीधर और रुक्मिणी से बात की। दोनों ने आश्वासन दिया कि ऐसा कुछ नहीं हैं, बल्कि उन्होंने चेतन से दोनों की फ़ोन पर बात भी करा दी। मुरलीधर ने कहा कि चुनौती अब उनकी बेटी है, उनकी ज़िम्मेदारी है और वे कभी उसका बुरा होने ही नहीं देंगे। 

समय बीतता जा रहा था। इस बीच मुरलीधर को किसी सम्मेलन में शहर से बाहर भोपाल जाना पड़ा। रात की गाड़ी थी। शाम भी उन्हें छोड़ने स्टेशन गये थे। चलते-चलते भी मुरलीधर ने शाम को चिंता ना करने के लिए कहा। गाड़ी निकल पड़ी। पर कोई नहीं जानता था कि नियती क्या खेल खेल रही है। 

अगले दिन रोज़ की तरह रुक्मिणी समाचार पत्र पढ़ रही थी कि अचानक फ़ोन की घंटी बजी। उन्हें लगा ज़रूर मुरलीधर जी का ही होगा, पहुँचने की ख़बर देने के लिए फ़ोन किया होगा। जैसे ही फ़ोन का चोग़ा उठाया और उधर से बोलने की आवाज़ें आने लगी चोंगा उनके हाथ से गिरा, पास पड़े पलंग पर धम्म से बैठ गयीं और चुनौती को आवाज़ लगाई। 

चुनौती दौड़ती हुई आई और सास की दशा देख कर पहले तो उन्हें शांत कराया और पूछने लगी कि किसका फ़ोन था और क्या कहा। रुक्मिणी बहुत ही शांत और संयमी स्वभाव की महिला थीं, तुरंत सम्भल गयी और बड़े ही संतुलित स्वर में कहा, “चुनौती! अभी-अभी गणपत का फ़ोन आया था।” 

“कौन? वही गणपत! जो बाबूजी के साथ सम्मेलन में गये थे?” आश्चर्य से चुनौती ने पूछा। 

“हाँ उन्हीं का था, कहा, कि चेतन के बाबूजी की तबीयत अचानक बिगड़ गयी और उन्हें वहीं के किसी स्थानीय अस्पताल में भर्ती कराया गया है, मुझे अगली रेलगाड़ी से पहुँचने को कहा है,” इतना कह कर वह रुआँसी-सी हो गयी। चुनौती ने माजी को सँभाला और तुरंत अपने माता-पिता को भी बुलवा लिया। शाम ने अपनी समधन के जाने के सारे प्रबंध भी कर दिए और साथ में स्वयं वे भी भोपाल के लिए निकल पड़े। 

भोपाल पहुँचते ही शाम और रुक्मिणी स्टेशन से सीधे अस्पताल पहुँचे। वहाँ जाने के बाद पता चला कि मुरलीधर जी का हृदयगति रुक जाने से कल ही देहांत हो चुका था। शव को वापस घर ले जाने का कोई औचित्य न जान कर भोपाल में ही बड़े सम्मान के साथ अंत्येष्टि कर दी गयी। सभी संबंधियों और मित्रों को सूचित कर दिया गया था। चेतन भी सूचना मिलते ही पहुँच गये थे। कुछ समय माँ और पत्नी के साथ समय बिता कर वापस विदेश चले गये। मुरलीधर जी के देहांत के कुछ महीनों बाद ही चुनौती के भी विदेश जाने का दिन आ गया। इस बीच चुनौती ने एम.ए. की उपाधि भी प्राप्त कर ली थी। 

रुक्मिणी सोच-सोच कर दुखी हो रहीं थीं कि मुरलीधर के जीवित रहते में यदि चुनौती विदेश चली गयी होती तो सबसे अधिक प्रसन्न वे ही होते थे। ख़ैर! होनी को कौन टाल सकता। निश्चित तारीख़ पर चुनौती विदेश के लिए निकल पड़ी। सास के साथ रहते-रहते एक अटूट बंधन बँध गया था उनसे। आज उन्हें छोड़ कर जाने का चुनौती को दुख तो बहुत था, लेकिन विवाह के लगभग तीन वर्षों के बाद अपने पति के साथ एक नयी दुनिया बसाने का अवसर मिल रहा था। विमान में बैठी-बैठी चुनौती अपने भविष्य के रंगीन ताने-बाने बुनने लगी। 

उधर चुनौती के चले जाने से रुक्मिणी घर में अकेली हो गयी। चुनौती के रहने से घर में एक रौनक़-सी थी। चेतन के पिता तो उन्हें बीच मझधार में छोड़ कर चले गये थे। अब तो बस यादें ही शेष रह गयीं थी। मुरलीधर जी के फोटो के सामने खड़ी वह कहने लगी, “इतनी जल्दी भी क्या थी जाने की? कम से कम चुनौती के एम.ए. उत्तीर्ण होने और उसके विदेश अपने पति के पास जाने की ख़ुशियाँ तो देख लेते।” उन्हें इस बात की तसल्ली थी कि उनके जीते जी चुनौती वहाँ पहुँच गयी जहाँ उसे बहुत पहले जाना था। 

3

पल घंटों में, घंटे दिन में, दिन महीनों में और महीने वर्ष में बीत गये। चार वर्ष के बाद चेतन और चुनौती को पुत्र प्राप्ति हुई। उन दोनों ने रुक्मिणी को भी विदेश बुला लिया। बहुत प्रसन्न थी रुक्मिणी अपने पोते के साथ। बस उसे एक ही बात का दुख था कि मुरलीधर जी इन प्रसन्नताओं में सम्मिलित न थे। बच्चों के साथ मन तो लग गया था, किन्तु विदेश का वातावरण और जलवायु उनके स्वास्थ्य के अनुकूल न था। अतः कुछ समय रह कर रुक्मिणी वापस स्वदेश लौट गयी। कुछ वर्षों के अंतराल के बाद चुनौती ने दूसरे पुत्र को जन्म दिया। वनवास भोगी चुनौती के जीवन में जैसे ख़ुशियों की बहार-सी आ गयी। एक ओर चुनौती को एक अच्छी नौकरी मिल गयी थी तो दूसरी ओर चेतन को भी काम में उन्नति मिलने लगी। कुछ समय बाद चेतन ने अपना निजी व्यापार आरंभ किया। देखते ही देखते व्यापार चमक उठा और चेतन शहर के जाने-माने धनवानों में गिने जाने लगे। अपनी इस सफलता और सौभाग्य का श्रेय चुनौती को देते थे। कहते न थकते थे कि चुनौती के ही कारण उनके भाग्य के द्वार खुल गये। इस अंतराल में रुक्मिणी एक बार और विदेश हो आई थी। बढ़ती आयु और बिगड़ता स्वास्थ्य दोनों ने एक दिन उन्हें भी इस संसार से विदा कर दिया। 

हर बात में, हर काम में चेतन चुनौती को प्रोत्साहित करते थे, उसका उत्साह बढ़ाते थे। चेतन के सहयोगी स्वाभाव के चलते बहुत जल्द चुनौती ने स्वयं को विदेश के जीवन शैली में ढाल लिया। जो बहुत आवश्यक था। इस बीच शाम और उषा भी विदेश हो आए। दोनों भी प्रसन्न थे चुनौती की हँसती-खेलती गृहस्थी को भी देख लिया। चेतन तो अपने व्यापार में व्यस्त रहते थे, लेकिन चुनौती अपनी नौकरी के साथ-साथ बच्चों की परवरिश और गृहस्थी के उत्तरदायित्वों को बड़ी कुशलता के साथ संतुलित किए हुए थी। सभी का जीवन सुचारु रूप से चल रहा था। चेतन का समाज के उँचे लोगों में उठना-बैठना था। उनका अपना एक सामाजिक दायरा था और एक थी मित्र मंडली। सभी एक-से विचार रखते थे, एक-सा दृष्टिकोण था। आए दिन उनके घर पर महफ़िलें जमती थीं। जिसमें चुनौती एक कुशल आतिथेय की भूमिका निभाती थी। पर किसी ने कल्पना तक नहीं की थी कि अभी भी चुनौती के जीवन पर दुखों के काले बादल मँडरा रहे हैं। 
समय बीतता गया और समय के परिवर्तन के साथ-साथ चुनौती को चेतन के व्यवहार में भी एक अजीब सा परिवर्तन अनुभव होने लगा। जो चेतन चुनौती के हर काम की, हर बात की प्रशंसा करते न थकते थे आज उसकी हर बात में कमियाँ निकालने लगे। बात-बात पर खीज, हर समय क्लेश दिन प्रति दिन बढ़ता ही जा रहा था। चुनौती समझ नहीं पा रही थी चेतन के इस बदलते व्यवहार को। इस बीच चुनौती ने अनेकों बार कारण जानने का प्रयास किया पर चेतन थे कि बात करना तो दूर उससे दृष्टि तक नहीं मिलाते थे। क्या व्यापार घाटे में चल रहा है या फिर स्वास्थ्य ठीक नहीं है? ऐसे अनेकों प्रश्न चुनौती के मन में उठ रहे थे। ये सिलसिला दो वर्ष तक चलता रहा। चुनौती के स्वास्थ्य पर इसका कुप्रभाव पड़ने लगा। बच्चे बड़े और समझदार हो रहे थे, अपने पिता के इस रवैय्ये से वे भी परेशान थे। पर पूछने का साहस न जुटा पा रहे थे। अपनी माँ से दोनों को भी सहानुभूति थी। बड़ा बेटा तो इस वातावरण से तंग आकर हॉस्टल में रहने चला गया। छोटा तो इतना बड़ा भी न था कि अपने बड़े भाई की तरह अपना प्रबंध स्वयं कर ले। 

आख़िर एक दिन चुनौती ने साहस जुटा कर चेतन के एक बहुत ही अंतरंग मित्र से चेतन के बारे में बात की। उसके बाद जो कुछ भी मित्र ने बताया उसे सुन कर जैसे चुनौती के पैरों तले ज़मीन ही खिसक गयी। पिछले दो वर्षों से जिस मानसिक तनाव से चुनौती गुज़र रही थी वही दशा मित्र की भी थी। और फिर उनके मित्र ने बताया कि किस तरह चेतन और उनकी स्वयं की पत्नी एक दूसरे से आकर्षित हैं। जब मित्र को पता चला तो उन्होंने अपनी पत्नी को बहुत समझाया। लेकिन उनकी आँखों पर तो जैसे प्रेम का भूत सवार था। मित्र के भी दो संतानें थीं। पर उनकी पत्नी को उनकी भी कोई चिंता न थी। इस बात का पता चलते ही उस रात चुनौती ने चेतन से ये बात पूछ ही ली। चेतन ने इस बात को न केवल स्वीकार ही किया बल्कि उन दोनों का निर्णय भी सुना दिया कि बहुत जल्द ही वे दोनों शेष जीवन साथ रहने का मन बना लिया है। उस सारी रात चुनौती सो न पायी। सुबह जब उठी तो आँखें लाल थीं, शायद रात भर जगने के कारण? या फिर रोने से? सुबह छोटा बेटा तो स्कूल चला गया। 

चाय की टेबल पर चुनौती ने चेतन से बड़े ही रुँधे गले से पूछा, “चेतन! मुझमें क्या कमी है और मुझसे ऐसी क्या भूल हो गयी? जिसकी मुझे इतनी बड़ी सज़ा दे रहे हो। क्या माजी और बाबूजी जीवित होते तो तब भी तुम यही करते ?” 

चेतन कुछ देर तक तो चुनौती को एकटक देखते रहे और फिर अपनी चुप्पी तोड़ते हुए कहा, “मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं है और ना ही तुमसे कोई भूल हुई है। तुम एक अच्छी पत्नी हो, एक अच्छी माँ हो। लेकिन मुझे ‘वो’ बहुत अच्छी लगने लगी है और हम दोनों एक दूसरे को बहुत चाहने लगे हैं और अब हम अपने निर्णय से पीछे नहीं हटने वाले।” अपना कड़क निर्णय सुनाते हुए उठे और तैयार होने चले गये। उस रात चेतन से उसने दबी आवाज़ में पूछा कि क्या ये सम्बन्ध उसके विदेश आने से पहले से चल रहा है? 

“नहीं,” संक्षिप्त सा उत्तर दे कर चेतन चुप हो गये। 

किन्तु इस छोटे से शब्द ने बहुत कुछ कह दिया था। अभी पिछले वर्ष की ही बात है। दीपावली की एक शानदार पार्टी रखी थी चेतन ने अपने घर पर। दोनों पति-पत्नी मन लगा कर तैयारियाँ कर रहे थे। 

अचानक चेतन ने पूछा, “अच्छा बताओ कल के दिन यदि किसी और पर मेरा मन आ गया तो तुम क्या करोगी?” 

उसी मज़ाकिया स्वर में चुनौती ने कहा कि, “मुझे पूरा विश्वास है ऐसा कुछ ना होगा और यदि हुआ तो तुम्हारे मन को कस कर पकड़ लूँगी किसी और के पास जाने ना दूँगी।” 

ये एक ही नहीं, बल्कि अतीत में घटी ऐसी अनेक घटनाएँ और उनकी वो उलझाने वाली बातें आज चुनौती को एक-एक करके याद आने लगी। स्वयं पर ग्लानि हो रही थी कि वह चेतन के इरादे भाँप क्यों न सकी? आज कई प्रश्न चुनौती के मन को झकझोर रहे थे। क्या वो स्वयं इतनी नादान थी या फिर चेतन कुछ अधिक ही चालक निकले। अपने विवाह, परिवार और गृहस्थी को बचाने के लिए चुनौती ने अपने पति को समझाने के अनेकों प्रयत्न किए लेकिन सफल न हो सकी। दो वर्ष तक दोनों एक ही छत के नीचे दो अलग-अलग जीवन जी रहे थे। बड़े बेटे ने माँ के पक्ष में एक बार क्या कह दिया कि उसने बेटे का घर में आना-जाना ही बंद कर दिया। चुनौती आख़िर माँ थी चेतन से छुपकर घर के बाहर अपने बेटे से मिलती थी। 

इसके बाद का जीवन तो चुनौती के लिए नारकीय बन गया। क्योंकि अब तक तो ये बात छुपी थी पर जैसे ही पता चली उसके पति निडर हो गये। अब तो चुनौती के सामने भी ‘उससे’ प्रेम वार्तालाप करने में संकोच न करते। जैसे उन्हें अनैतिक सम्बन्धों को निभाने का ‘लायसेंस’ मिल गया हो। पल-पल अपमान का घूँट पीती चुनौती को समझ न आ रहा था कि वो क्या करे। माजी और बाबूजी से हिम्मत मिल सकती थी पर वे इस दुनिया से ही चले गये। यदि जीवित होते तो पता नहीं उन पर क्या बीतती। माता-पिता से कहने की हिम्मत न जुटा पा रही थी। यदि सुन कर वे सहन न कर पाए तो? कहीं ऐसा ना हो कि अपने माता-पिता को भी खो दे। नहीं . . . नहीं। ये विचार आते ही उसकी रूह काँप उठती थी। 

कभी-कभी तो चुनौती चेतन से बहस करने लगती थी, क्योंकि वो इतनी आसानी से हार मानना नहीं चाहती थी। पर अब उसने चुनौती को मानसिक प्रताड़नाएँ देना आरंभ किया। चेतन को चुनौती के साहस को तोड़ने का एक अच्छा शस्त्र मिल गया और वह था पैसों के लिए उसको परेशान करना। क्योंकि चुनौती का वेतन अधिक न था इसीलिए कुछ सीमा तक वह आर्थिक रूप से चेतन पर निर्भर थी। हर समय चेतन का पैसों के लिए तरसाना उसके लिए किसी मानसिक पीड़ा से कम न था। अतः उसके सामने भयंकर आर्थिक समस्या खड़ी हो गयी। बड़ा बेटा तो छोटा-मोटा काम कर अपनी पढ़ाई का ख़र्च निकाल ही लेता था पर छोटा बेटा तो माँ पर ही निर्भर था। प्रतिदिन के क्लेश से चुनौती तंग आ चुकी थी। 

चेतन की दुष्टता की सीमा तब पार हुई जब उन्होंने तलाक़ के काग़ज़ात चुनौती के पास हस्ताक्षर के लिए उसी दिन भिजाये जिस दिन उनके विवाह की 25 वीं वर्षगाँठ थी। चुनौती का मन चीख-चीख कर रोने को हुआ पर वह ऐसा कर न सकी। वह किसी भी परिस्थिति में अब स्वयं को चेतन के सामने दुर्बल बताना नहीं चाहती थी। मन पर पत्थर रख कर उसने हस्ताक्षर कर दिए। इस तरह दो हस्ताक्षरों ने जीवन भर चलने वाले सम्बन्धों को पल भर में समाप्त कर दिया। चेतन ने एक उपकर ये किया कि जिस आलीशान घर में वे रह रहे थे वह चुनौती को दे दिया और वे स्वयं दूसरे घर में चले गये। इस घर के लिए बैंक से क़र्ज़ लिया गया था। आरंभ में तो चेतन किश्त देते रहे पर धीरे-धीरे वह भी बंद कर दिया। विवश हो कर चुनौती को वह घर बेच कर बेटे को लेकर कुछ समय के लिए उसी शहर में रह रही अपनी बहन के घर रहना पड़ा। घर बेचने से जो धन मिला था उसमें से कुछ तो दैनिक ख़र्चों में लग गया शेष को उसने सँभाल कर रख दिया। 

 4

चुनौती टूट तो गयी पर हारी नहीं। उसे अपने और अपने बच्चों के भविष्य को सँभालना था। उसे आज ये अनुभूति हो रही थी कि उसके माता-पिता ने बहुत सोच-समझ कर उसका नाम चुनौती रखा है। उसे अपने नाम को सार्थक करने का अवसर आ गया था। सच ही तो है जब से उसका विवाह तय हुआ था तब से ही वह पग-पग पर चुनौतियों का सामना करती चली आ रही थी। इस बीच शाम भी एक लंबी बीमारी के बाद इस संसार से विदा हो गये। शाम तो चुनौती के इस दुख को जाने बिना ही चले गये पर उसने अपनी माँ से भी कुछ नहीं कहा। चुनौती के सामने एक बहुत बड़ा प्रश्न था अपनी आर्थिक दशा को कैसे दृढ़ करे। कब तक अपनी बहन के घर रहती। इसीलिए एक और जगह ‘पार्ट टाइम’ नौकरी करने लगी। इससे उसकी आय कुछ और बढ़ गयी। छोटा बेटा भी कुछ छोटा-मोटा काम करके अपनी माँ का हाथ बटाना चाहता था, लेकिन चुनौती ने उसे केवल अपनी पढ़ाई पर ध्यान देने के लिए कह कर काम करने से मना कर दिया। दिन-रात परिश्रम करके बेटे ने अपनी पढ़ाई पूरी की। उसे एक काम भी मिल गया। इधर चुनौती ने भी जी-जान लगा कर कुछ पैसे जमा किए। पहले के पैसे तो थे ही और बड़े बेटे की सहायता से एक छोटा सा मकान भी ख़रीद लिया। समय पंख लगा कर उड़ने लगा। दोनों बेटे अपनी पढ़ाई पूरी करके अच्छी नौकरियों पर लग गये। दोनों ने अपने पसंद के जीवन साथी का चयन करके अपनी-अपनी गृहस्थी बसा ली। दोनों बेटों के घर दो-दो संतानों का आगमन हुआ। चुनौती का तो जीवन जैसे ख़ुशियों से भर गया। 

आज चुनौती 73 वर्ष में प्रवेश कर चुकी है। दोनों बेटे अपने परिवार के साथ सुखी जीवन बिता रहे हैं। चुनौती अकेले ही रहती है। जब–जब जिस बेटे को उसकी सहायता की आवश्यकता आन पड़ती उसके यहाँ चली जाती। जीवन के इस पड़ाव पर पहुँच कर भी चुनौती दो-दो स्थानों पर काम करती है, व्यस्त रहती, चुस्त रहती है। तन्दरुस्त है और प्रसन्न है। उसने समाज को ये प्रमाणित कर दिया कि “जहाँ चाह, वहाँ राह”। वह नितांत अकेली हो कर भी अकेली न थी। क्योंकि उसके साथ उसके बड़ों का आशीर्वाद और शुभचिंतकों की शुभकामनों के अतिरिक्त उसका अपना आत्मविश्वास, आत्मसम्मान, साहस और प्रतिकूल परिस्थितियों से उत्पन्न चुनौतियों का सामना करने की क्षमता, ये सब उसके साथ थे। आज चुनौती को अपने जीवन से कोई शिकायत नहीं है। उसे एक आत्मसंतुष्टि है कि उसने हर चुनौती को हरा दिया और स्वयं जीत गयी। उसे इस बात पर गर्व है कि बड़ी समझदारी के साथ माँ और पिता दोनों का दायित्व अकेले ही निभाने में वह पूरी तरह से सफल हो गयी। 

ये केवल चुनौती की व्यक्तिगत कहानी नहीं है, बल्कि चुनौती समाज की उस महिला वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है, जो परित्यक्ता है और जिनका जीवन भी चुनौतियों से भरा हुआ है। समाज परित्यक्ता को आदर की दृष्टि से नहीं देखता। पर लोग ये क्यों भूल जाते हैं कि ऐसी महिलाओं को भी सम्मान के साथ जीने का उतना ही अधिकार है जितना कि अन्य स्त्रियों को। 

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