छोटी सी बात
ऋतु सहरावतछोटी सी एक बात पर जब तुम नाराज़ हो जाते हो
तो लगता है जैसे कुछ टूट गया,
तुम्हें मनाऊँ या ख़ुद नाराज़ हो जाऊँ
इस कश्मकश में पड़ जाती हूँ
और मैं जो हरदम तुमसे इतना बोलती हूँ
ख़ुद में चुप हो जाती हूँ।
यूँ लगता है तू दूर हुआ है मुझसे,
और क्या ग़लती थी —
क्या ख़ता हुई कैसे जानूँ ख़ुद से,
बिन बोले यूँ तुझसे सारे दिन का हाल
कैसे मैं सह जाती हूँ,
और मैं जो हरदम तुमसे इतना बोलती हूँ
ख़ुद में चुप हो जाती हूँ।
याद करती हूँ मैं फिर अच्छे दिन वो हमारे,
जब मैंने मन से कुछ भी नाम दिए थे तुम्हारे,
पर अब उन नामों को –
मन में रख के रह जाती हूँ,
और मैं जो हरदम तुमसे इतना बोलती हूँ
ख़ुद में चुप हो जाती हूँ।
तस्वीरों के दिन भी कितने सुंदर होते हैं,
यादों के हर एक पल को ख़ुद में ही सँजोते हैं,
तस्वीरों में फिर मैं तुझको हँसता पाती हूँ
तब फिर कुछ इस तरह मैं
दीवार पर लगी तस्वीरों में खो जाती हूँ
और मैं जो हरदम तुमसे इतना बोलती हूँ
ख़ुद में चुप हो जाती हूँ।
विरहण के ये दिन फिर कुछ इस तरह कट जाते हैं
कि मैं तुझसे और तू मुझसे –
कुछ भी दिल की ना बोल पाते हैं,
आँखों में फिर आँसुओं की मैं बूँदों से बतलाती हूँ
और मैं जो हरदम तुमसे इतना बोलती हूँ
ख़ुद में चुप हो जाती हूँ।