चाँद छुप गया
उदय निरौला
छुप छुप के छुप गया चाँद
सितारे टूट गये
मगर तुम्हारी झलक
आँखों के बिम्ब में छपी रह गई
आइने में तुम
परछाइयों में तुम।
न जाने मेरे दिल के ख़्याल
मुझे क्यों ले जाते हैं दूर दूर
फिसल जाते हैं राहों में
पिघल जाते हैं इरादे
मगर वैसे के वैसे रह जाते हैं अतीत के साये
वर्तमान बिखरा हुआ हैं
मगर तुम नहीं, दूर होते हुए भी दूर नहीं
भूलेंगे कैसे ये परछाइयाँ?
नासमझ की समझ में सितारे चमके और टुटे
साथ न होते हुए भी सपने ना टुटे
क्यों?
मुराद ना बिखरे
तमन्ना ना फूटे
चलते चलते राहें तुम्हारी बदल गयीं
मगर मैं हूँ वैसे ही
ना तो पथ बदला और ना दिल
शीत की बूँद बूँद में
सूर्य की हर किरण में
झाँकता हूँ
क्यों?
आख़िरकार ना तुम ना हम
मगर सताते रहते हैं ये चाँद ये सितारे
ये हवाएँ बेवजह ये हवाएँ।
कैसी ख़ामोशी है ये
दिल के आइने में
कोलाहल-सी शहनाई बज रही है
गूँज उठते नाद बेवजह
ना सो सकते ना ही सुन सकते
शून्य के बजाय
सन्नाटे बाक़ी हैं
साया रोंगटे खड़े कर देता है।
. . .
चाँद की गहराई में
सितारों की ऊँचाई में
चिन्तन होना चाहिये था
मगर बेचैन तड़प रहे हैं
घिर रहे हैं बादल
घोर सन्नाटा छा रहा हैं
बेबजह बेबजह
ख़ासियत खोटे
वर्तमान मरघट
बची सिर्फ़ ख़ामोशी
बचे तो बचे
मगर क्या है ये हवा जो ले आती हैं रोदन
तड़पन और ये वर्तमान छूट जाते हैं
ना टूटे चाँद
ना टूटे सितारें
मगर टूटे दिल
क्या करूँ क्या करूँ।
1 टिप्पणियाँ
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बहुत मनमगन