बम विस्फोट

27-04-2012

बम विस्फोट

सरिता बरारा

शाम के क़रीबन पौने सात का वक़्त रहा होगा। मुझे अच्छी तरह से याद है क्योंकि पुराने गानों के प्रोग्राम को शुरू हुए अभी ज़्यादा से ज़्यादा 15 मिनट ही हुए होंगे। उस वक़्त मेरी चाय की दुकान पर सबसे ज़्यादा भीड़ रहती है। पास ही फ़ैक्ट्री में दिन की शिफ़्ट ख़त्म होने के बाद सात दस की लोकल पकड़ने से पहले मज़दूर यही पर आ कर चाय पीते हैं। यहाँ से रेलवे स्टेशन मुश्किल से चार पाँच मिनट की ही दूरी पर है। मैंने दुकान के बाहर एक छपरैल के नीचे कुछ बेंच और मेज़ लगा रखे हैं जिसमें 10-15 जन आराम से बैठ कर चाय नाश्ता कर सकें। 

“शुक्र है आज बारिश नहीं हुई . . . “

मेरे एक ग्राहक ने चाय की चुस्कियाँ लेते हुए बात की शुरूआत की। बरसात का मौसम हो और दो बरस पहले हुई ज़बरदस्त बारिश में अपने साथ गुज़रे हालात का बयान ना हो, ऐसा भला कहाँ मुमकिन है। वैसे भी बम्बई में बारिश और जगह जैसी थोड़े ही पड़ती है, लगता है मानो कोई समुन्दर से बालटियाँ भर-भर के पानी उँडेल रहा हो। 

“जनाब क्या आप मानेंगे कि मैं कमर से भी ऊपर तक पानी में लगातार 8 घंटों से भी ज़्यादा चलने के बाद घर पहुँचा था।” 

हर किसी के पास इसी तरह की कहानी बयान करने को थी। 

बम्बई के लोगों की सबसे अच्छी बात मुझे लगती है, वड़ा पायो के साथ चाय की चुस्कियाँ लेते हुए उनका बतियाना, जैसे अपनी बात ख़त्म करने के लिये आज के बाद दूसरा मौक़ा फिर ना मिलना हो। गुजरात में भी जहाँ मैंने अपनी ज़िन्दगी के पैंतालीस से भी ज़्यादा साल गुज़ारे हैं; लोग खाने के शौक़ीन हैं पर घर में बनी चीज़ों के। बुरा ना माने पर गुजू होते हैं अवल दर्जे के कंजूस। बिना मतलब उनके जेब से कोई एक पाई भी नहीं निकलवा सकता; इस बात को पूरे दावे के साथ कह सकता हूँ। 

“नहीं मुझे फिर गुजरात के बारे में नहीं सोचना है।” अपनी सोच पर लगाम लगाते हुए मैं ट्रांजिस्टर पर आ रहे तलत महमूद के एक गाने के साथ साथ गुनगुनाने लगा। तलत की आवाज़ में जो सोज़ है, वो शायद किसी दूसरी आवाज़ में नहीं। मैं यह सोच ही रहा था तभी अचानक गाने की आवाज़ बंद हो गई। ग्राहक भी बातें करते-करते चुप हो गये। यह सोच कर की कही ट्रांजिस्टर की सूई तो नहीं हिल गई, मैं उसके नॉब को छूने ही वाला था की अचानक अनाउंसर की आवाज़ आई। 

“एक ज़रूरी सूचना के एलान का इन्तज़ार कीजिये।” 

दिल की धड़कने तेज़ हो गईं। मेरे मौला सब ठीक हो, मैं बुदबुदाया। अगले कुछ पल तक सबकी साँसें मानो अधर में ही अटक गई हों। फिर आवाज़ आई। 

“अभी-अभी ख़बर मिली है कि कुछ गाड़ियों में बम बलास्ट हुए हैं, ब्यौरे का इन्तज़ार है।” 

इससे पहले की कोई कुछ कहता एक ज़बरदस्त धमाके की आवाज़ हुई डर के मारे सब बेंचों के नीचे दुबक गये। कुछ पल सब साँस रोके यूँ ही दुबके रहे। यह अंदाज़ा लगाना क़तई मुश्किल ना था कि हो ना हो यह ब्लास्ट यहाँ से लगभग 4-5 मिनट की दूरी पर स्टेशन में या वहाँ पर आती–जाती किसी गाड़ी में हुआ है। कुछ ही देर में स्टेशन की तरफ़ से चीख पुकार की आवाज़ें भी आने लगीं। फिर एक-एक करके मेरे ग्राहक बेंचों के नीचे से निकलने लगे। घर कैसे जायेंगे यह सवाल शायद मन ही मन सब को खाये जा रहा था। एक जन हिम्मत बटोर कर बोले, “यहाँ बैठने से क्या होगा, चलो चल कर देखें तो सही कि ब्लास्ट किसी ट्रेन में हुआ है कि स्टेशन में।” और फिर बिना वक़्त जाया किये सब अपने अपने प्लासटिक के बैग और छतरियाँ उठा कर चल दिये। 

कपों में बची चाय और प्लेटों में नाश्ता वैसे ही पड़ा रहा। छोटू जो मेरी थोड़ी बहुत मदद करता है पहले ही दौड़ लिया था। मैंने बिना कुछ समेटे दुकान का दरवाज़ा अन्दर से बंद किया और एक कोने में दुबक कर मानों ज़मीन के अन्दर धँस के बैठ गया। नहीं बाक़ी लोगों की तरह मैं बाहर नहीं निकल सकता। मुझे देख कर यह अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं कि मैं मुसलमान हूँ। माहौल को बिगड़ते क्या देर लगती है। अभी कुछ दिन पहले किसी नेता के पोस्टर पर कीचड़ फेंकने पर माहौल कैसा गर्म हो गया था। दुकान अन्दर से बंद थी फिर भी वो बुरी तरह डरा हुआ। भीड़ को दरवाज़ा तोड़ते क्या देर लगती है? पीतल के बरतनों की कली करने वाले की धौंकनी की तरह उसकी छाती धायें-धायें करती ऊपर नीचे हो रही थी। तभी एम्बुलैंसों की मनहूस चीखती आाज़ें सुनाई दीं। 

इन्हीं मनहूस आवाज़ों के बीच ही तो वे अपने अब्बू की लाश को घर लाया था। अहमदाबाद छोड़ने से पहले उसने क़सम खाई थी की वे फिर कभी गुजरात के बारे में नहीं सोचेगा। उसके साथ जो गुज़रा है उस सबको वैसे ही अपने भीतर दफ़न रखेगा जैसे उसके अब्बू क़ब्र में दफ़न हैं हमेशा के लिये। पर अब अब्बू के अधजले चेहरे पर उनकी खुली आँखों में भयानक ख़ौफ़; जिसको देख कर मैं कितनी ही रातों सो नहीं पाया था फिर आँखों के सामने तैरने लगा। उफ़ किस क़दर उनका एक जूता जले पैर से चिपक गया था। ज़्ख़्मों की परतें फिर एक के बाद एक खुलने लगीं। मेरे मौला मुझे माफ़ कर देना, मैंने ख़ुदा से फिर दुआ माँगी। पर क्या मैं अपने आप को कभी माफ़ कर सकता हूँ। जानते बूझते हुए भी मैंने अब्बू को घर से निकलने ही क्यों दिया था। यह सही है कि जब अब्बू के दिमाग़ में जब कुछ भी करने का फ़ितूर घुस जाये तो उसे कोई नहीं निकाल सकता। लेकिन फिर भी मुझे अब्बू को बाहर जाने से रोकना चाहिये था। 2002 का वो पहली मार्च का मनहूस दिन था वे ही क्या कोई भी गुजराती हिन्दु या मुसलमान उस दिन को ना चाह कर भी भला भूल सकता है? शहर में ज़बरदस्त तनाव था। मालूम नहीं कब दंगे शुरू हो जायें, इसीलिये मैंने अपने रेस्टोरैन्ट को बन्द रखने का फ़ैसला लिया था। फिर मुसलमानों के घर और दुकानों के जलाये जाने की ख़बरें आने लगीं तो अब्बू परेशान हो गये। 

“हमारे होटल का ना जाने क्या हाल है?” 

“अब्बू कुछ भी हुआ हो, हम कुछ नहीं कर सकते। आप आराम से बैठे रहिये।” 

“ऐसे कैसे बैठे रहने से होगा? ना हो तो मैं ही देख आता हूँ,” यह कह कर वे उठने लगे तो मैंने उन्हेंं ज़बरदस्ती बिठाया, “मैं आपको बाहर क़तई नहीं जाने दूँगा।” मैंने अब्बू को समझाने की कोशिश की। बाहर निकलना ख़तरे से ख़ाली नहीं, हवा गर्म है कुछ भी हो सकता है। 

“लेकिन अगर हमारे होटल को कुछ हो गया तो बरख़ुरदार मेरी बरसों की कमाई उस में लगा रखी है,” वो ज़िद करने लगे। 

“जान से ज़्यादा क़ीमत नहीं है उसकी।”  

अब मुझे अब्बू की नासमझी पर ग़ुस्सा आने लगा था इस बार मैंने अपनी आवाज़ थोड़ी ऊँची की। अब्बू चुप हो गये। मैंने सोचा अगर मैं यहाँ बैठा रहा तो अब्बू फिर ना शुरू हो जाये मैं बग़ल वाले घर में चला गया। वहाँ भी वही टैन्शन। शहर के किस कोने में क्या हुआ बस यही बातें हो रही थी। ना मालूम कितनी सही और कितनी ग़लत। तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई। 

“अम्मी ने आपको घर वापिस बुलाया है,” दरवाज़े पर मेरी बेटी थी। 

घर पर मेरे लिये फोन था। 

“अशोक भाई साहिब का फोन है,” बेग़म ने बताया। 

“तुम्हारे अब्बू की हालत ख़राब है, मैं ड्राइवर के साथ गाड़ी भेज रहा हूँ। उसी में आना।” 

लेकिन अब्बू को तो मैंने बाहर जाने से बिलकुल मना किया था? 

बेगम बोली, “इधर आप पड़ोसियों के घर के लिये निकले इधर मेरे लाख मना करने पर भी वे नहीं माने, बोले—मैं यूँ गया और यूँ आया।” 

“तुमने अब्बू को रोका क्यों नहीं,” मैं बेगम पर टूट पड़ा। पर यह वक़्त बेगम से बहस करने का नहीं था। तब तक गाड़ी आ गई थी। अस्पताल पहुँचने में बीस मिनट लग गये। पहुँच कर देखा अब्बू आख़िरी साँसें गिन रहे थे। कुछ ही मिनटों में उन्होंने दम तोड़ दिया। शायद उन्हें मेरा इन्तज़ार था। अब्बू का पूरा शरीर काला पड़ गया था। कई-कई जगह शरीर से चमड़ी उधड़ गई थी जहाँ पर ख़ून के साथ कुछ चिपचिपा सा रिस रहा था। अब्बू के अधजले चेहरे पर उनकी ख़ौफ़ज़दा आँखें खुली की खुली रह गई थीं। 

“माफ़ कीजिये हम इन्हें नहीं बचा पाये,” डॉक्टर ने अफ़सोस ज़ाहिर करते हुए कहा। 

“असलम मैं तुम्हारे होटल के सामने से गुज़र रहा था, खुला देख कर अन्दर यही बताने घुसा था कि हालात अच्छे नहीं इसे बन्द करो, दंगई कभी भी इधर आ सकते हैं। पर शायद दंगई अपना काम कर चुके थे। अन्दर पहुँचा तो देखा सब तहस-नहस हुआ पड़ा था और अब्बू के ऊपर कोई पेट्रोल फेंक कर भाग गया था। 

“अब्बू को तुमने ऐसे दिन बाहर ही क्यों निकलने दिया?” अशोक मेरी नासमझी पर हैरान था। 

“अब्बू को कितनी बार मना किया था पर मेरी वो सुनते तो।” 

अगर मैं पड़ोसियों के घर ना गया होता तो मैं अब्बू को हरगिज़ बाहर नहीं निकलने देता। पर अब इन बातों का कोई मायना नहीं रह गया था

अब्बू मेरी कोई भी बात अब कभी नहीं सुनेंगे। मैंने एक नज़र अब्बू पर डाली उनकी पथराई आँखें में ख़ौफ़ जैसे हमेशा के लिये जम कर रह गया था। 

फिर इस के बाद में एक हाड़-मांस की कठपुतली सा मैं वही करता रहा जो भी मुझे अशोक करने को कह रहा था। पोस्टमार्टम के लिये फ़ॉर्म पर दस्तख्त और दूसरी फ़ॉरमैलिटीज को पूरा करते कितना वक़्त गुज़रा, हम अब्बू की लाश को कब वापिस लाये मुझे कुछ अहसास नहीं था। मैं ख़ुद एक ज़िंदा लाश की तरह बन गया था। ना मैं कुछ सोच सकता था ना मैं कुछ सोचना चाहता था। 

बाद में पता चला होटल पूरी तरह जला दिया गया था। अब इस जगह रहना मुश्किल था। और कोई 5-6 महीनों के बाद मैं और बेग़म अपनी सर ज़मीन अहमदाबाद को हमेशा के लिये अलविदा कह बम्बई आन बसे। चलते वक़्त मैंने क़सम खाई थी अब गुजरात को अपने ज़ेहन से बिलकुल मिटा दूँगा। पर क्या ऐसा मुमकिन था? 

तभी उसे अचानक याद आया वो भी किस क़दर ख़ुदगर्ज़ है, ख़ुद तो दुबक कर अन्दर बैठा है घर पर बीवी कैसी है इस बात का उसको ख़्याल तक नहीं आया। हमारे मोहल्ले में तो ज़्यादा हिन्दू रहते हैं। 

फिर किसी ने दुकान का दरवाज़ा ज़ोर से खटखटाया। डर के मारे उसकी जैसे जान ही निकल गई। किसी ने ज़ोर से पुकारा, “असलम भाई दरवाज़ा खोलिये।” 

आवाज़ जानी पहचानी थी। दरवाज़ा खोला तो देखा ख़ुर्शीद था। 

“मियाँ किस मिट्टी के बने हो वहाँ कितने लोगों की जानें चलीं गई हैं कितने ही ज़ख्मी पड़े हैं और तुम यहाँ आराम से पड़े हो। जो चाय-पानी नाश्ता है फटाफट तैयार करो, कम से कम वहाँ भटक रहे लोगों को कुछ तो राहत मिले।” 

ख़ुर्शीद अपने साथ एक-दो और लोगों को भी लाया था। सामान ले कर स्टेशन पहुँचे तो वहाँ के हालात देख कर दिल दहल गया। क्या सचमुच एक इन्सान दूसरे इन्सान के साथ ऐसा कर सकता? कुछ ही मिनटों में चाय नाश्ता सब ख़त्म हो गया। फिर हम ज़ख्मी लोगों को स्टेशन से बाहर खड़ी ऐम्बुलैंसो तक ले जाने में जुट गये। दो-तीन घंटे कैसे बीते और क्या-क्या देख़ा इसे ब्यान करने की सोच से ही शरीर में इक सिहरन सी दौड़ जाती है। यहाँ से गाड़ियाँ अब सुबह तक ही चल पायेंगीं इस बात ऐलान सुनते ही मुझे घर जाने की फ़िक्र सताने लगी। फिर ख़ुर्शीद नें बताया की घर जाने का उसने बंदोबस्त कर लिया है। ख़ुर्शीद मेरे घर के पास ही रहता है। 
घर जाते वक़्त मैं यही सोचता रहा कि स्टेशन पर इस बात की किसी को फ़िक्र नहीं थी कि कोई मुस्लिम है या हिन्दु या कोई और। सब एकजुट हो कर मदद और राहत के काम में लग गये थे। शायद इसीलिये मेरे मन से अपनी बीवी की ख़ैरियत को लेकर डर निकल गया था। गुजरात में ऐसा होता तो शायद हमें अपना पुश्तैनी घर ना छोड़ना पड़ता। 

हम लोग रात के कोई एक बजे के क़रीब घर पहुँचे तो देखा वहाँ ताला लगा है। काटो तो ख़ून नहीं। इस वक़्त भला बेगम कहाँ गईं होगी? मन फिर एक बार शक के बादलों से घिर गया पर ज़्यादा देर तक नहीं। तब तक पड़ोस के एक बच्चे ने घर की चाबी देते हुए कहा कि बम धमाके में गुप्ताजी का इकलौता बेटा अनिल मारा गया है और मोहल्ले की सभी औरतें वहीं बैठी हैं। 

यक़ीन नहीं हो रहा था। रोज़ ही तो मिलता था अनिल, आख़िर एक ही तो गली है जिससे गुज़र कर हम लोग बाहर मेन सड़क पर आते हैं। 

मिलते ही पैर छू कर ज़रूर पूछता, “अंकल कैसे हैं, किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो बिना झिझक बताइयेगा।” कितनी इज़्ज़त से बात करता था। मैं तुरन्त गुप्ता जी के घर पहुँचा। दोनों मियाँ बीबी गुमसुम काठ की तरह बिलकुल बेजान से पड़े थे। तभी बाहर कुछ हरकत हुई। अस्पताल से अनिल की लाश बाहर गली में पहुँच गई थी। वो ऐसा वक़्त था जब सख़्त से सख़्त दिल वाले को भी अपने जज़्बात पर क़ाबू रखना मुश्किल था। रात के सन्नाटे को चीरती औरतों की दर्द भरीं चीखों से हर किसी के अन्दर ग़म का सैलाब उमड़ पड़ा था। अब्बू के मारे जाने के बाद मुझे लगता था कि मेरे दुख से बढ़ कर किसी का दुख नहीं पर आज गुप्ता जी को देख कर लग रहा था अनिल की मौत ने जैसे उन्हें जीते जी मार दिया हो। अब्बू की ख़ौफ़ज़दा आँखें और अनिल के बम धमाके से चेहरे पर जमा काला पड़ गया ख़ून मेरे आँखों के सामने तैरने लगे। क्या क़ुसूर था इन दोनों मासूमों का? गुप्ता जी की सूनी आँखें और उनकी दहाड़ें मार कर रोती बेग़म, जैसे पूछ रही थी कि उन्हें किस बात की सज़ा मिल रही है? क्या इस सवाल का जवाब किसी के पास है? आदमी इन्सान से कुछ पलों में ही हैवान कैसे बन सकता है? मेरे पास इन सवालों का कोई जवाब नहीं। 

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