भ्रम

अंकुर सैनी (अंक: 271, फरवरी द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

झंझोर कर खुला कर दिया आँचल उसने
अब कहती है 
बैठो तनिक बिस्तर पर चाय बनाकर अभी लाती 
कामुकता का संक्रमण अंतर्मन में फैल गया 
नादानी का कम्बल ओढ़े
“इसकी क्या ज़रूरत थी”
अब बैठ गया वो कहते कहते 
 
चाय बनाकर लाती है 
हाथों को बढ़ाकर आगे 
प्याली चाय की थमाती है 
सहसा कठोर हाथों का स्पर्श
पीछे से हुआ प्रतीत जब 
बिस्तर पर बैठा है बीमार पुरुष इक 

क्षणिक भयभीत होकर कहती है 
ठहरो अब 
पौरुष की परत चढ़ाए हो तुम 
ख़ुद को मर्द बतलाते हो 
चरित्र पर आँच लगाने वाले 
मुझे चरित्र हीन बतलाते हों 
 
भूल हुई है अंधकार में 
यौवन की दीप्ति आँखों पर है छाई 
सन्देह समझूँ या समझूँ मृग तृष्णा 
नहीं नहीं वो मैं नहीं, है मेरी परछाईं 
 
मूर्ख कहूँ या कहूँ दुर्योधन 
हर बार बात चीर पर आई है 
भ्रम भयंकर होता है 
चलो मान लिया 
लेकिन सहज स्वभाव वाली ये 
चर्म (skin) चद्दर कहाँ से सिलवाई है?

है भ्रम तुम्हारा, है या मेरा
सही कहा, मैं नहीं वह जो दिखता हूँ 
लेकिन तनिक बात बतलाओ तो 
कौन है जो है वो वैसा ही है 
क्या तुम हो? 
 
हाँ चर्म चीर तो चद्दर है 
ना सही ग़लत का सूचक है 
अरे चरित्र का चाप चलाने वाली 
वह रेखा बड़ी ही रोचक है 
सूक्ष्म है पर दृश्य है 
अन्तर्मन के पटल पसारो 
सूक्ष्म है पर दृश्य है॥

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