भले चौके न हों, दो एक रन तो आएँ बल्ले से
वीरेन्द्र खरे ’अकेला’भले चौके न हों, दो एक रन तो आएँ बल्ले से
कई ओवर गंवा कर भी खड़े हो तुम निठल्ले से
वो मरियल चोर आखि़र माल लेकर हो गया चंपत
न क़ाबू पा सके उस पर सिपाही दस मुटल्ले से
जो क़ानूनन सही हैं उनको करवाना बड़ा मुश्किल
कि जिन पर रोक है वो काम होते हैं धड़ल्ले से
करो तुम दुश्मनी हमसे मगर ये भी समझ लेना
तुम्हारे घर का रस्ता है हमारे ही मुहल्ले से
ज़रा सी उम्र में ढो-ढो के चिंताएँ पहाड़ों सी
ये लड़के आजकल के हो गए कैसे बुढ़ल्ले से
अमीरी की ठसक तू मुझको दिखलाया न कर नादाँ
मैं सच बोलूँ तेरी दौलत मेरे जूते के तल्ले से
ये नेता आज के भगवान हैं समझे ‘अकेला’ जी
मजे़ में हैं वही जो इनके पीछे हैं पुछल्ले से
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- ग़ज़ल
-
- गुल को अंगार कर गया है ग़म
- तबीयत हमारी है भारी
- दिन बीता लो आई रात
- फिर पुरानी राह पर आना पड़ेगा
- भूल कर भेदभाव की बातें
- ये घातों पर घातें देखो
- ली गई थी जो परीक्षा वो बड़ी भारी न थी
- वो चलाये जा रहे दिल पर
- सूर्य से भी पार पाना चाहता है
- सोच की सीमाओं के बाहर मिले
- क़ुसूर क्या है
- भले चौके न हों, दो एक रन तो आएँ बल्ले से
- विडियो
-
- ऑडियो
-