भगवान अटलानी का नया उपन्यास कामनाओं का कुहासा हटाता है 

15-01-2022

भगवान अटलानी का नया उपन्यास कामनाओं का कुहासा हटाता है 

राजेन्द्र बोड़ा (अंक: 197, जनवरी द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

समीक्षित पुस्तक: कामनाओं का कुहासा (उपन्यास)
लेखक: भगवान अटलानी
प्रकाशक: पुस्तकबज़ार.कॉम (pustakbazaar.com)
पृष्ठ संख्या: 591
मूल्य: 3 कनेडियन डॉलर


राजस्थान के सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार ‘मीरां पुरस्कार’ का सम्मान पाये हुए भगवान अटलानी राजस्थान सिन्धी अकादमी के अध्यक्ष रहे हैं। वे राजस्थान सिंधी अकादमी के सर्वोच्च सामी पुरस्कार सहित 35 से अधिक शासकीय व निजी संस्थाओं से भी पुरस्कृत हो चुके हैं। उनके नये उपन्यास का आना हिन्दी साहित्य जगत में एक महत्त्वपूर्ण घटना है। 

उनकी स्वयं की स्वीकृति है कि ‘कामनाओं का कुहासा’ अकादमी अध्यक्ष की उनकी कालावधि में हुए कार्यकलापों, आत्ममंथन, आत्मविश्लेषण और दृष्टि पर आधारित उपन्यास है। वे शायद अपने कार्यकाल की स्मृतियों के बोझ से हल्का होना चाहते हैं। 

उपन्यास की अपनी भूमिका में वे पहले ही बता देते हैं कि “लेखा-जोखा, रपट या संस्मरण मानकर रचना के उपन्यास तत्व को इसलिये गौण नहीं मानना चाहिये क्योंकि उस समय जो नहीं हुआ या नहीं घटा या तकनीक ने जिसे स्पर्श नहीं किया था उसका समावेश भी उपन्यास में हुआ है। साथ में हमें यह भी मान कर चलना चाहिए कि ऐसा कुछ भी हुआ होगा जो इसमें दर्ज नहीं है। कथा साहित्य की रचना का अपना सत्य होता है।” 

वास्तव में उन्होंने अपने अनुभव और परिस्थितिजन्य वातावरण के साथ कल्पना का ख़ूबसूरत मेल इस उपन्यास में प्रस्तुत किया है। इसमें जो कुछ घटता है उसकी प्रस्तुति नायक के नज़रिए से होती है जो स्वाभाविक ही है। लेकिन इस उपन्यास में नायक अपनी कहानी प्रथम पुरुष में नहीं कह रहा है। कोई दृष्टा है जो उसकी कहानी बयान कर रहा है। यह दृष्टा उसके अंदर का लेखक है। इसलिए कह सकते हैं कि उपन्यास में लेखक की अपनी कल्पना का सत्य है। मगर वह पाठक को अविश्वसनीय नहीं लगता। लेखक अपने अनुभवों की पृष्ठभूमि में कल्पना शक्ति से जो वितान खड़ा करता है उसमें यदि पाठक आनंद पाता है तो उपन्यास उसका प्रिय हो जाता है अन्यथा अलमारी में पड़ी बेशुमार अनदेखी किताबों की भाँति वह बिसरा दिया जाता है। लेखक के रचना कौशल की इसी से परीक्षा होती है। 

उपन्यास अतिवर्णनात्मक शैली में लिखा गया है। छोटी से छोटी चीज़ के वर्णन में पाठक को सरकारी फ़ाइल के चलने की मंथर गति का एहसास होता है। 

उपन्यास उसी लोक धारणा को पग-पग पर पुष्ट करता चलता है कि राजनीति कुटिल होती है। उपन्यास के नायक को नैतिक प्रतिमानों के ऊँचे पायदान पर बिठा कर साहित्यकार लेखक ने अपना ही आत्म उत्कर्ष व्यक्त करता नज़र आता है। पाठक स्वाभाविक ही मानेगा कि लेखक ने अपने कार्यकाल के दौरान संपर्क में आने वाली आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक व शैक्षणिक संस्थाओं के अंदरूनी सच को भी उजागर किया होगा। लेकिन यह सच एक दृष्टि बिन्दु से देखा गया सच है। लेखक ने राजनीति के प्रपंच और शासकीय व्यवस्था तथा सार्वजनिक संस्थाओं में काम करने के सरकारी तरीक़ों को अपने नज़रिए से देखा है और वैसा ही प्रस्तुत किया है। लेखक अपने उपन्यास के नायक, जो प्रचलित व्यवस्था में स्थिर रहने के सारे जतन करता नज़र आता है और समझौते करता है, को उसके कृत्यों के औचित्य का सहारा देता है, बचाता है। 

अंत में लेखक समुदाय में मक़बूलियत के बावजूद नायक की सत्ताधारियों से उसकी टकराहट होती है। “सृजन को संगठन पर तरजीह देते हुए, लेखकों के प्रचंड दबाव को दरकिनार करके कार्यकाल के अंतिम दौर में वे वापस पद स्वीकार न करने का फ़ैसला करते हैं” लिख कर उपन्यास की कहानी कहने वाला अपने नायक की छवि को मलिन नहीं होने देता। इस तरह एक लेखक अपने शासन प्रणीत पद के आनंद का प्रति क्षण अपनी लेखनी से सँजो कर रख लेना चाहता है। इसमें वह सफल है। 

 • राजेन्द्र बोड़ा

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