बन्नी का बोझ

15-08-2023

बन्नी का बोझ

दीपक कुमार ‘पुष्प’ (अंक: 235, अगस्त द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

 

अप्रैल का महीना आते ही गाँव के सभी आदमी और औरतें गेहूँ की कटाई में व्यस्त हो जाते हैं। गाँव में केवल कुछ बूढ़े और बहुत छोटे बच्चे रह जाते हैं। बस्ती के सभी लोगों में अधिक से अधिक अनाज इकट्ठा करने की प्रतियोगिता प्रारंभ हो जाती है। आख़िर यही वह समय होता है जब बस्तीवालों को पूरे साल के लिए अनाज इकट्ठा करना होता है। 

दिनेश अपने सात भाई-बहनों में तीसरे नंबर का था। उससे दो बड़ी बहनें, दो छोटी बहनें और एक छोटा भाई था। बी.ए. प्रथम वर्ष की परीक्षा देकर गर्मी की छुट्टियों में घर आया हुआ था। नौ सदस्यों का ख़र्च चलाना मज़दूर पिता के लिए ज़मीन-आसमान एक करने जैसा था। बच्चे भूखे न रह जाएँ इसके लिए माँ रात-दिन हर मौसम में बिना थके अनवरत काम किया करती थी। आज माँ और बहन दोनों किसी ज़मींदार के खेत में गेहूँ काटने गई हुई थीं। दिनेश घर पर ही था। आमतौर पर दोपहर तक गेहूँ की कटाई होती थी। खेत के क्षेत्रफल के हिसाब से मज़दूरों की संख्या होती थी। दोपहर के बाद बोझ बाँधा जाता था और ज़मींदार के घर तक या थ्रेशिंग मशीन तक ढोकर पहुँचाया जाता था और अंत में मज़दूरी के रूप में एक अलग प्रकार का बोझ बाँधा जाता था, जिसे बन्नी कहते थे। 

आज माँ की तबीयत ठीक नहीं थी इसलिए दोपहर के बाद दिनेश बोझ बाँधने और ढोने चला गया। गेहूँ के बोझ ढोने के बाद शाम को बन्नी बाँधने का समय आ गया। सभी मज़दूर महिलाएँ ही थीं। वे अपने लिए बन्नी बाँधने लगीं। बन्नी का बोझ सामान्य बोझ से दो-तीन गुना ज़्यादा भारी होता था और दो-तीन लोग मिलकर उठाते थे और उसको ढोकर खलिहान तक ले जाया जाता था जो कि उनके लिए बहुत दुष्कर होता था। फिर बन्नी निबारने के लिए गाँव के किसी ऐसे व्यक्ति को बुलाया जाता था जो कम से कम बन्नी देने के लिए मशहूर होते थे। (निबारने का अर्थ है—मज़दूर द्वारा बाँधे गए बन्नी के बोझ में से उस मज़दूर को कितना देना है, इस बात का निर्णय करना)। बन्नी निबारने वाला व्यक्ति अपनी इच्छा के अनुसार उसमें से गेहूँ के लहने निकाल लेता था और पूरी तरह संतुष्ट हो जाने पर बन्नी का बोझ ले जाने को कहा जाता। 

दिनेश आज बन्नी बाँधना सीख रहा था। कुछ औरतें बन्नी बाँधने में उसकी सहायता कर रही थीं। बन्नी का बोझ सिर पर उठाते ही दिनेश को उसके वज़न का अनुभव हो गया था। बोझ को खलिहान तक पहुँचाने में पंद्रह से बीस मिनट लगने थे। पाँच मिनट के बाद ही दिनेश की गरदन ऐंठनी शुरू हो गई थी मानो किसी ने लकड़ी का पटरा लगाकर कील ठोक दी हो। अन्धेरा होने को था और बोझ से दब जाने से रास्ता भी नहीं दिख रहा था। खलिहान पहुँचकर बोझ पटकते ही मानो उसकी लंबाई अचानक बढ़ गई हो और बढ़ती ही जा रही हो। अब उसको यह अनुभव करने में देर न लगी कि माँ बन्नी का बोझ कैसे लाती होगी। इस कल्पना मात्र से ही उसकी रूह काँप जाती थी। फिर बन्नी निबराने वाले व्यक्ति को बुलाया गया। सारे मज़दूर उनके आने से डर जाते थे पर किसी का कोई बस नहीं था। जिसकी भी बन्नी निबारी गई, वह दुखी होकर गया। दिनेश की बारी आई तो बाबू साहब ने तीन-चार बार उठा-उठाकर आज़माया और गेहूँ के लहने निकालते और बोलते जा रहे थे, “लड़कों से तो लौनी (गेहूँ की कटाई) होती नहीं। इनकी बन्नी तो फ़ालतू जाती है।” दिनेश वास्तविकता बताना चाहा पर वे अनसुना कर देते थे। अंत में दिनेश को जो बन्नी का बोझ मिला उसे वह अकेला ही उठाकर सिर पर रख लिया और घर की चलते हुए सोचने लगा, “कब यह जातिगत शोषण समाप्त होगा? कब मज़दूरों को उनकी पूरी मज़दूरी मिलेगी?” और मन में एक आग-सी जलने लगी। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें