अनूठा महात्मा की वैचारिक पृष्ठ भूमि एवं निहितार्थ 

01-04-2023

अनूठा महात्मा की वैचारिक पृष्ठ भूमि एवं निहितार्थ 

प्रो. देवेन्‍द्र शुक्‍ल (अंक: 226, अप्रैल प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

पुस्तक: अनूठा महात्मा (तीन खंडों में) 
लेखक: डॉ. आरती स्मित
प्रथम संस्करण: 2023
प्रकाशन: अद्विक प्रकाशन, दिल्ली 
 खंड 1:
पृष्ठ: 80; मूल्य: ₹150
खंड 2:
पृष्ठ :112; मूल्य: ₹200
खंड 3:
पृष्ठ :184; मूल्य: ₹230

3 खंडों में विस्तारित ‘अनूठा महात्मा’ जैसा कि शीर्षक से ही अभिव्यंजित है . . . राष्ट्र पिता महात्मा गाँधी की जीवन कथा पर केंद्रित है। 

‘अनूठा महात्मा’ का अभिविन्यास बड़ी ही रोचक शैली से आरम्भ होता है और आदि से अंत तक अपनी पठनीयता का आस्वाद बनाए रखता है। ‘मोहन के बढ़ते क़दम’, और ‘बैरिस्टर मोहन दास का नया सफ़र’, वास्तव में ‘हिंदुस्तान’ की ही अंतर्यात्रा है, जिसकी परिणति ‘अनूठा महात्मा’ के रूप में हुई है . . . इस यात्रा को आरती स्मित ने ऐसा पेडगॉजिकल शैक्षिक स्वरूप दिया है जो बाल्यावस्था से लेकर सम्पूर्ण आयु जीने वाले हर भारतीय का ऐसा ‘पाथेय’, मूल्य एवं संस्कार का भी अन्तरमूल्य (अंतः मूल्य?) बन गया है। 

‘अनूठा महात्मा’ लेखिका के संकल्प के अनुसार “10 साल से लेकर 100 साल के बाद तक के बाल साथियों के लिए” अभिकल्पित है। अर्थात् लेखिका के अनुसार हमारा प्रत्येक जीवन एक हमारी सनातन जीवन यात्रा का एक पड़ाव के रूप में। अर्थात् लेखिका के अनुसार यह ‘जीवन‘ एक यात्रा ही है। लेखिका की इस अन्तर्यात्रा में पड़ने वाले कुछ प्रदेश ऐसे हैं जिन्हें लेखिका ने अपने जीवन की यात्रा में जिया है। यात्रा के लिए निकलती रही है बुद्धि पर हृदय को भी साथ लेकर, बुद्धि पथ पर हृदय भी अपने लिए कुछ न कुछ पाता गया है। 

‘अनूठा महात्मा’ महात्मा गाँधी पर केन्द्रित पुस्तक है। कहने को तो यह किशोरों एवं बालकों के लिए निर्मित है, पर महापुरुषों के जीवन की प्रत्येक घटना हर उम्र के जिज्ञासुओं के लिए अभीष्ट होती है। स्वयं लेखिका के शब्दों में—“महात्मा गाँधी भी हमारी तरह ही थोड़े ज़िद्दी, सपनों और कल्पनाओं में खोने वाले, छोटी-छोटी ग़लतियाँ करने वाले बच्चे थे।” ज़िद्दी होना हमेशा ही ग़लत नहीं होता।

“मैं भी बचपन में ज़िद्दी रही।” 

“मुझे यह समझ में आया कि यदि अच्छे कार्यों के लिए ज़िद की जाय तो इसे संकल्प-शक्ति माना जाता है।” 

यह पुस्तक 3 भागों में विभाजित है:

खंड 1में मोहन के बढ़ते क़दम है . . . इनके अंतर्गत बिन्दु-पथ हैं . . . ‘बचपन के क़िस्से’, ‘किशोर मन की बातें’, ‘अभ्यास का बल’, एवं ‘पहली विदेश-यात्रा’। इनमें उन घटनाक्रमों को आधार बनाया गया है जो कालक्रम में खण्ड 2 के “बैरिस्टर मोहन दास का नया सफ़र “को जीवनी-शक्ति प्रदान करते हैं। 

खंड 2 के अनुभाग हैं . . . ‘अपने देश में, ‘जीवन में नया मोड़’, ‘बैरिस्टर मोहन दास नये रूप में’, ‘मोहन दास के ईसा और अहिंसा’, ‘मोहन दास के अनूठे प्रयोग’ और ‘गाँधी की स्वदेश वापसी’। 

भाग 3 में अनूठा महात्मा की उत्तर-कथा वर्णित है—जिसके खंड हैं . . . ‘महात्मा के सत्याग्रही आश्रम’, ‘महात्मा की यात्रा’, ‘महात्मा के सत्याग्रह आंदोलन’, ‘महात्मा क़ैद में’, ‘बिखरे महात्मा यहाँ-वहाँ’, ‘महात्मा’ और ‘बापू के शब्द’।

पुस्तक के अन्त में परिशिष्ट भी है जिसमें राजनीतिक एवं पारिभाषिक संदर्भ तथा कुछ शब्दों के निहितार्थ हैं। 

लेखिका की लेखन-शैली का अन्दाज़ भी बाल-मन और किशोर मन को अपने ‘नैरेटिव’ में बाँधता है भारतीय वाचिक-परम्परा को पुष्ट करता है।

“प्यारे साथियो, 

मेरे साथ पिछली यात्रा पर जाकर कैसा लगा? मोहनदास के बचपन से गुज़रते हुए उसके युवा होने तक की कई बातें गुदगुदाई होगीं, हैरान भी की होगी, कि अरे! ये तो मेरे ही जैसे थे।” 

“फिर मन में सवाल भी उठे होंगे कि फिर वे इतने बड़े-बड़े काम कैसे कर गये कि सारी दुनिया के हीरो हो गये। मेरे मन में भी सवाल भी उठे तो मैं भी उनके साथ ही चलने लगी।” 

इस प्रकार, सम्पूर्ण पुस्तक लेखिका के साथ ही ‘अनूठा महात्मा’ के साथ एक सह-यात्रा ही है। 

‘अनूठा महात्मा’ राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की जीवन-कथा एक ऐसी झाँकी प्रस्तुत करती है जो 4 वर्ष के मोनू के साथ हँसते-खेलते आगे बढ़ती चलती है और कब यह 21 वर्ष के युवा मोहन में रूपान्तरित होते-होते उन्हें अधनंगा फ़क़ीर और महात्मा बना देती है, यह पता ही नहीं चलता। मेरी समझ में यह पुस्तक प्रत्येक आयु-वर्ग के लिए शैक्षिक आकाश-दीप की तरह है, जो जीवन-यात्रा के जहाज़ के यात्रा-पथ को आलोकित करने में सक्षम है। दूसरे शब्दों में ‘अनूठा महात्मा’ में रोचक कथानकों के कथा-रस का भी परिपाक है जो पाठक को उबाता नहीं। यात्रा के लिए निरंतर उद्बोधित करता रहता है 

विगत कुछ दशकों में भाषा-शिक्षण एवं, साहित्य-शिक्षण के साथ ही भारतीय जीवन-मूल्यों के शिक्षण की आवश्यकता की ओर भारतीय विचारकों का ध्यान गया है, पर इस दिशा में सुकुमार-मति छात्रों के लिए सरस भाषा में ‘सम्प्रेषणीयता’ पर ध्यान कम गया है। इसके साथ ही आधुनिक सन्दर्भ में भारतीय महापुरुषों के जीवन पर आधारित पाठ्य पुस्तकों निर्माण एवं प्रायोगिक पक्ष पर ध्यान और भी कम गया है, इस दृष्टि से अद्विक प्रकाशन का यह प्रयास सराहनीय है, पुस्तक का सर्जनात्मक आवरण-चित्र श्रेया श्रुति द्वारा अभिकल्पित है, और कवर डिज़ाइन अर्श दीप ने सर्जित किया है, पुस्तक सज्जा बिपिन राजभर ने की है जो कृति को पठनीयता विशिष्ट आयाम प्रदान करते हैं। 3 खंडों में विस्तारित ‘अनूठा महात्मा’ की कृति के निहितार्थ भी हैं, जो कुछ महत्त्वपूर्ण सवाल भी उठाते हैं . . .। 

भाग 1 का शीर्षक ‘मोहन के बढ़ते कदम’ है और भाग 2 का शीर्षक है, ‘बैरिस्टर मोहन दास का नया सफ़र’, जो राष्ट्र पिता महात्मा गाँधी के साथ ही भारत की राजनीतिक यात्रा का भी एक सफ़र है। पाठ के अनुच्छेद इस राजनीतिक यात्रा के ही मोड़ के रूप में भी उपयोजित हुए हैं। भाग 3— ‘अनूठा महात्मा’ का उपयोजन प्रबंध काव्य के नाटकीय की मोड़ों की तरह चरम रस की परिणति के रूप में है। 

उनकी करुण कथा कुछ प्रश्न उपस्थित करती है . . . ‘अनूठा महात्मा’ की कथा की परिणति करुण रस के रूप में होती है। यह गाँधी का करुण रस है जो मानो जीवन्त रूप में मूर्तमान हो कर देश से कुछ सवाल करता है . . . गाँधी को राष्ट्र-पिता का सम्मान प्राप्त है। 2 अक्तूबर को उनका जन्म दिन है, सरकारी अवकाश भी है, उनकी समाधि पर पुष्प-माला चढ़ाने का भी यह दिन है। यह समाधि बाहर से आये सम्मानित राज-अतिथियों का पड़ाव भी है। वे राज-अतिथि आएँगे तो उनके कार्यक्रम में यहाँ बड़ी-सी माला भेंट करना अनिवार्य कर्म-कांड है। गाँधी का चित्र नोट पर भी छपता है और हर शहर में उनके नाम से एक सड़क है। दो आश्रम भी उनके नाम के हैं—एक वर्धा में और एक साबरमती के किनारे अहमदाबाद में। उनके नाम से शायद तीन-तीन विश्व विद्यालय भी हैं। उन्होंने ‘हिन्द-स्वराज’ के आज़ाद हिंदुस्तान की जो व्यवस्था बनायी, जो रूप-रेखा तैयार की और उसे स्वाधीनता-प्राप्ति के कई दशक पहले ही प्रकाशित किया, उसकी न केवल कहीं चर्चा भी नहीं हुई, वह कहीं किसी पाठ्य-क्रम में भी नहीं है। वैसे कई विश्व विद्यालयों में गाँधी-अध्ययन केंद्र भी है, पर गाँधी जी के चिंतन में जो नक़्शा हिंदुस्तान का बना वह कहीं उपेक्षित हो गया है। यह बहुत बड़ी त्रासदी है। गाँधी जी अपने जीवन के अंतिम वर्षों में बिलकुल अकेले पड़ गये थे। पर ‘अनूठा महात्मा’ पुस्तक यह प्रमाण प्रस्तुत करती है कि गाँधी जी ऐसे अकेले नहीं थे। उनके पास प्रबल आस्तिकता का सम्बल था। पर यह आस्तिकता भी स्वतंत्र भारत में करुणांत ही सिद्ध हुई। गाँधी जी का समग्र विचार गाँधी जी के साथ ही विदा हो गया। 

गाँधी जी के विचारों पर प्रयोग करने का जिन्होंने व्रत लिया उन्होंने अतिरेक से काम लिया, उसकी समग्रता में समझने का प्रयास नहीं किया। सामाजिक, सांस्कृतिक और शैक्षिक सभी स्तरों पर हम स्ववालम्बी न होकर आयात पर अवलम्बित होते गये। यह प्रक्रिया कैसे हुई? यह गहन शोध का विषय है। 

आज देश को पुनः अपने सनातन स्वभाव को समझने की ज़रूरत है। गाँधी जी का समग्र जीवन उस सनातन प्रश्न को छेड़ता है कि कितनी दूर तक हमें लोक की चिंता हो और कितनी दूर तक हमें अपने निजी सम्बन्धों की चिंता हो। ऐसे गहन अंतर्द्वंद्व के परिवेश में ‘अनूठा महात्मा’ का प्रकाशन एक नये अस्ति भाव की ओर हमें आश्वस्त करता है। स्वार्थोपरत उप भोक्ता संस्कृति से प्रभावित, छिन्न-भिन्न रिश्तों वाले आज के युग में खोये हुए मानवीय संस्कारों एवं मूल्यों को जीवन्त कर देने वाले इस तरह के सृजन की आज बहुत ज़रूरत है। ऐसा संवेदनशील एवं मननशील लेखन ही इस वर्तमान युग के तिल-तिल छीजते हमारे विध्वंसोन्मुख समाज को बचाने के साथ ही उसे सृजन शील एवं गतिशील बनाएगा। इसके लिए इस कृति के सृजन एवं प्रकाशन के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को हार्दिक बधाई! 

आज गाँधी के समग्र विचार पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। 

डॉ. देवेन्‍द्र शुक्‍ल
प्रोफ़ेसर एवं विभागाध्‍यक्ष
सूचना एवं भाषा प्रौद्योगिकी विभाग
केंद्रीय हिंदी संस्‍थान, आगरा-282005
मो. 9897874446, 9760438778

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