अनकहा सा
सत्या शर्मा ‘कीर्ति’
कब कहाँ कैसे सब छूटता चला गया, कुछ पता ही नहीं चला।
याद है जब वह पहली बार इस दुकान पर आयी थी। छोटी सी फ्राक और दो चोटी में कूदती रहती थी चारों ओर।
सारे लोग अनजाने थे।
कब बिटिया से दीदी, आंटी और कब दादी बन गयी पता ही नहीं चला।
कैसे बदल रहे होंगे वो पल जब वो बदल रही होगी, ना याद है ना ही याद करना है।
पहाड़ों से आज भी झरना पूरे वेग से बहता है। आज भी पानी से वही मीठी ख़ुशबू आती है। पर जो सौन्दर्य बचपन में नज़र आता था वो नहीं आता। कितनी अभ्यस्त हो जाती हैं आँखें।
ट्रेन की आवाज़ सुन मुँह पर अंगुली रख सीटी बजाना। उड़ते जहाज़ देख ताली बजाना, पतंगों के पीछे दौड़ना।
सब कुछ होता है आज भी पर न ट्रेन, न पतंग, न जहाज़ अपनी अनुभूति करा पाते हैं।
अचानक घास के ऊपर से हवा मुस्कुराती हुई गुज़र गयी।
तन्द्रा टूटी—सामने लैम्पपोस्ट के किनारे बैठा लड़का आज भी उदासी की चादर लपेटे बैठा था।
पता नहीं लोग क्यों ख़ुशियों से ज़्यादा ग़मगीन दिखना चाहते हैं। सुबह जो ख़ुशियाँ बिखेरता सूरज मुस्कुरा रहा था शाम अपनी थकी चादर में सारी रोशनी बाँध उन पहाड़ों के पीछे सो गया।
सोचती हूँ कल से चाय बेचूँ ही नहीं, पर रात चूल्हे पर पकाऊँगी क्या?
पहाड़ों से रात लुढ़कती हुई आ रही है सोना चाहती हूँ पर, कई दिनों से नींद बीमार सी है।
काश! सबकी बातें मान शादी कर ली होती तो आज बच्चे अपने बच्चों के साथ खेल रहे होते।
जीवन में नहीं चाहिए था कोई बंधन, बस अकेली चलती रही।
ऊँचे दरख़्तों से उतर आती हैं कुछ “यादें” . . .
कुछ धुँधले से चेहरे . . .
माँ-बाप का सिर्फ़ झगड़ने वाला प्यार। हर बात में अहम की “बू” सिर्फ़ दिखावे वाली ज़िन्दगी।
उसकी तो किसी को फ़िक्र थी ही नहीं।
बस शान और दिखावे की दुनिया।
अच्छा ही हुआ वो घर से भाग कर यहाँ आ गयी। क्या ख़ून के रिश्ते ही सिर्फ़ अपने होते हैं? चाहे हमारी उपस्थिति उनके लिए शून्य हो?
इन पहाड़ों ने न जाने कितने प्यार और अपनेपन के रिश्तों से बाँधा है।
अहा! एक बन्धनमुक्त एहसास चलो अब अपनी अव्यक्त हसरतों के तकिये पर चैन की नींद ले लूँ।
सुबह चाय की दुकान जो खोलनी है।