अनंत से लॉकडाउन तक
आशीष वैरागीक्या लॉकडाउन के वक़्त के क़ायदे बताऊँ मैं?
या अकेले रहने के तुमको फ़ायदे गिनाऊँ मैंं?
या फिर बताऊँ तुमको हर दिन की ढेरों मशक़्क़त
या जली हुई उँगलियों के छाले दिखाऊँ मैंं?
कैसे जताऊँ तुमसे मैं अपनी नाराज़गी,
कैसे सुनाऊँ तुमको कहानियाँ बेकार की
कहीं कभी तो घण्टों आईने से बात होती है
कभी चाभियों से खेलता हूँ अपनी ही कार की
इन दरवाज़े के जिस्म में कितने सुराख हैं
और खिड़कियों के क़ब्ज़े, तुमको दिखाऊँ मैं
गिरे कपड़ों को खूँटी पे कोई टाँगता नहीं है
कप कितने भी तोड़ो, कोई डाँटता नहीं है
बेख़बर टीवी पर चीखतीं रहती हैं ख़बरें
और खीज के रिमोट कोई माँगता नहीं
बेफ़िक्र सा ऊँघता है दिन भर मेरा होश ये
और कोई बताए, नींद को कैसे सुलाऊँ मैं?
न आती है किचन से कोई महक ख़ुद-ब-ख़ुद
न बरतन ही धुल जाते हैं सिंक से अपने आप,
सुनी नहीं बच्चों की चीखें, बूढ़ों की खाँसी
न चूड़ी की खनखन न पायल की थाप
कुछ लोग जी रहे है कुछ महीनों की क़ैद में
अब पागल हो रहा हूँ और क्या बताऊँ मैं।