अजनबीपन की दीवार
नंदनी कुमारी
एक भोली सी लड़की कुछ ख़्वाब लिए,
छोड़ आई थी वो छत, वो दीवार पुरानी सी।
शहर बुला रहा था सपनों का सवेरा लिए
पर दिल का एक कोना भरा था अँधेरे से।
उस गली के मोड़ पे, जहाँ बचपन छोड़ा था,
जहाँ माँ की डाँट में भी प्यार थोड़ा था।
वहाँ से निकली थी एक लड़की सपने आँखों में भरे,
पढ़ाई, नई दुनिया, कुछ बनने के ख़्वाब लिए।
शहर की चकाचौंध में ख़ुद को ढूँढ़ती रही,
रिश्तों की भीड़ में अकेली चलती रही।
जब गाँव वाले घर लौटी
सब कुछ था पर—कुछ भी नहीं था,
वो कुर्सी जहाँ बैठती थी,
अब वो किसी और की जगह थी।
छत पे बैठ के तारे गिनने का सिलसिला रुक सा गया,
माँ के हाथ का खाना अब नसीब में कहाँ।
अपने घर में ही मेहमान हुई,
अब किसी के पास उसके लिए वक़्त कहाँ।
हर कोने में ढूँढ़ती थी अपना ही एक टुकड़ा,
वो झूला, वो कहानी, अब सब मुरझा सा गया।
घर जो कभी मंज़िल था अब सिर्फ़ एक रास्ता है,
वापस लौट आए जहाँ से ये शहर का वास्ता है।
विश्वास नहीं है उसे अब
वो सिर्फ़ मुसाफ़िर है अपने ठिकाने की,
अपने ही घर में बस बिन बुलाई मेहमान है।
वक़्त बदला किरदार बदले सब कुछ बदल गया,
कैसे जाए वो घर अपने
शहर और गाँव के बीच अब—
अजनबीपन की दीवार है।