ऐसा क्यों

15-01-2021

ऐसा क्यों

धर्मेन्द्र कुमार (अंक: 173, जनवरी द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

सुबह के साढ़े सात बजे हैं। यह समय रेलकर्मियों की ड्यूटी बदलने का है। महाशय विनोद रेलवे में चतुर्थवर्गीय कर्मचारी है। सारी रात अविरल, कठिन परिश्रम करने के बाद भी उपरस्थ अधिकारियों की डाँट सुननी पड़ी थी। रात-भर दौड़ते-दौड़ते पूरा शरीर टूट रहा था। थका-मंदा वाराणसी स्टेशन के प्लेटफ़ॉर्म छः से ऊपरी पैदलगामी पुलिया के रास्ते प्लेटफ़ॉर्म संख्या पाँच पर स्थित अपने दफ़्तर में आ रहा था। वह वर्दी पहने, हाथों में वाकी-टाकी और लाल-हरी झंडी लिए हुए था। स्टेशन परिसर यात्रियों से भरा पड़ा था। पुलिया पर कई लोग बैठे और लेटे थे। पुलिया के रास्ते प्लेटफ़ॉर्म पाँच पर उतर रहा था। सहसा पीछे से कई लोगों ने एक साथ आवाज़ लगाई। वह पीछे मुड़कर देखा। कई स्त्री-पुरुष हाँक लगाते हुए, घड़बड़ाये-से दौड़े इसी की ओर आ रहे थे। उसके पास आकर, साँसों को साधकर, हाथों से एक लेटे हुए साधु बाबा की तरफ़ इशारा करके बोले, ”बाबा के मुँह से ख़ून और फिचुकर निकल रहा है। शरीर ठंडा पड़ गया है। हिल-डुल भी नहीं रहे हैं। कृपया उनकी मदद कीजिए। डॉक्टर को बुलाइये।"

विनोद समझ गया, रेलवे कर्मचारी जानकर ही ये लोग मुझसे सहायता की आशा लेकर आये हैं। वह पास जाकर देखा, सचमुच बाबा के मुख से फेन के साथ रक्त निकलकर कानों के रास्ते नीचे गिर कर सूख रहा था। भारी-भरकम दाढ़ी वाले बाबा शिथिल पड़ गये थे। वह तेज़ क़दमों से वहाँ से भागकर नीचे आया। एक रेलवे सुरक्षा बल का सिपाही जल्दी-जल्दी कहीं जा रहा था। विनोद ने आवाज़ लगाकर उसे बुलाया। उनसे सारी कैफ़ियत कह सुनायी। वह कुछ देर असमंजस में पड़े रहने के बाद बोला, ”अभी मैं एक ज़रूरी काम से अस्पताल जा रहा हूँ। मेरा वहाँ पहुँचना बहुत ज़रूरी है। अब ड्यूटी बदलने का वक़्त भी हो गया है।“

विनोद ने स्टेशन की बड़ी वाली घड़ी में देखा। बड़े-बड़े लाल अक्षरों में 7:45 लिखा था; जबकि ड्यूटी आठ बजे बदली जाती है।

कुछ देर रुककर सिपाही फिर बोला, ”आप एक काम करो। सामने वाली सीढ़ी के रास्ते ऊपर चले जाओ। जी.आर.पी. का ऑफ़िस है, वहाँ बताओ। वैसे भी यह काम उन्हीं लोगों का है, हम लोगों का नहीं।“ 

यह कहकर कुछ दूरी पर रखा बुलेट बाइक स्टार्ट किया और चला गया। विनोद उसी तरह हाथ में हरी और लाल झंडी तथा वाकी-टाकी सेट लिये राजकीय रेलवे पुलिस के दफ़्तर में गया। वहाँ केवल तीन लोग थे। बाक़ी सब ड्यूटी ऑफ़ करके चले गये थे। उसने इनसे भी सारी कथा कह सुनायी। उनमें से एक महाशय जो रजिस्टर पर कुछ लिख रहे थे; लिखना रोककर सर ऊपर कर, उसे देखकर बोले, ”पहले मेमो लेकर आओ, तब हम कोई कार्यवाही करेंगे।“

उनके भावों से लग रहा था, इस वक़्त उन्हें यह ख़बर देकर बड़ा गुनाह कर दिया हो। विनोद वर्दी में न होता या कोई यात्री होता तो अब तक डाँट कर भगा दिया होता। विनोद ने दृढ़ता से कहा, ”मेमो कहाँ से लाऊँ और क्यों लाऊँ? किसी यात्री, व्यक्ति की मदद करना आपकी ड्यूटी नहीं बनती?“

विनोद की बातें सुनकर दूसरे महाशय जो कुर्सी पर ऊँघ रहे थे, कड़ा होकर बोले, ”तुम हमें हमारी ड्यूटी ना बताओ। पहले डॉक्टर लिख दे या मृत घोषित कर दे, तब हम अपना काम शुरू करेंगे।“

तीसरा सिपाही कुर्सी पर बैठकर टेबल पर सर रखकर अर्धलेटे की अवस्था में था, बोला, ”अब हमारी ड्यूटी ख़त्म हुई, जो बवाल होना होगा, दिन ड्यूटी में होगा।“

विनोद ने कहा, ”उन्हें अस्पताल तक तो पहुँचाया जा सकता है?“

कुर्सी पर बैठा बड़े-से पेट वाला, थुलथुल सिपाही चिढ़कर बोला, ”दिन वाले आते ही होंगे। अब जो करना होगा वहीं करेंगे। हम सारी रात परेशान हुए हैं। रात भर जागने से पता चलता है; शरीर में शक्ति ही नहीं बची।“

उसने मन में सोचा, इन लोगों को बैठे-बैठे और लेटे-लेटे थकान हो जाती है। कितना दौड़-धूप करते हैं यह हमसे छुपा नहीं है! 

रजिस्टर पर लिखता हुआ सिपाही बोला, ”जाओ पहले स्टेशन मास्टर के यहाँ से मेमो लेकर आओ, फिर हम देखते हैं, मामला क्या है?“

”इतने समय क्या वह ज़िन्दा रहेंगे?“

”क़िस्मत में मरना लिखा होगा तो कोई रोक न लेगा। मरना नहीं लिखा होगा तो आध-एक घण्टा क्या, पूरा दिन छोड़ दोगे तो भी नहीं मरेगा।“

विनोद वहाँ से निराश, हताश चला आया। अपने ऑफ़िस में आकर बताया, तो ये लोग उस पर ही भड़क गये। उसे मना करने लगे, ”इस झमेले में न फँसो भैया! पूछ-ताछ तुम्हीं से होने लगेगी। लिखा-पढ़ी, हर जगह तुम्हारी ही गवाही और हस्ताक्षर होगा। छूटते-छूटते आधा दिन निकल जाएगा। काफ़ी सम्भव है, किसी साज़िश के तहत तुम्हें फँसा दिया जाए।"
 
उसने सोचा था, ये लोग उसकी तारीफ़ करेंगे। भरसक मदद करेंगे। यहाँ तो उल्टा ही हो रहा है।

दूसरे सहकर्मी ने उसे समझाया, ”मास्टर सही कह रहे हैं। हो सकता है, कई बार गवाही के लिए भी बुलाया जाए। कौन है? कैसा मैटर है? क्या पता? आये दिन देखते ही हो, दोषियों को कुछ नहीं होता, निर्दोष आदमी फँस जाता है।“

विनोद ने कहा, ”ऐसा किसी के साथ भी हो सकता है। मेरे और आपके, हमारे परिजनों के साथ भी, तब भी क्या आपकी ढृढ़ता यही रहेगी?“

मास्टर बोले, ”तब की तब देखी जाएगी। जब कोई अपना होगा तो चाहे कितनी भी दिक़्क़त हो, करना ही पड़ेगा। दूसरों के लिए कौन जान खपाये? मेरी उम्र अनठावन साल की हो गयी। मैं आज तक इन झंझटों में नहीं फँसा। एक दो साल और बचा है, भगवान इन्हें भी सही से निकाल दें। आप यहाँ अभी नये आये हो। ऐसे बड़े जंक्शनों पर ऐसी घटनाएँ रोज़ ही देखने को मिलती हैं। अपना काम छोड़ कर रोज़ कौन इन चक्करों में पड़ेगा! अधिकारी भी कहेगा, तुम्हीं को अधिक चिंता है। पुलिस वाले शंका भरी निगाह से देखने लगेंगे।"

विनोद हिम्मत जुटा कर बोला, ”ईश्वर ना करे, पर आपके साथ ऐसा हो जाए और सभी लोग आप ही की भाषा बोलने लगें, तो क्या हो?"

रामनयन कभी न होने वाली सम्भावनाओं से युक्त बड़ी-बड़ी आँखों से देखते हुए बोला, ”आप तो भैया ग़ज़ब ही करते हो!" इतना कहकर चुप हो गये। कोई उचित जवाब ही न सूझा।

विनोद यहाँ दो हफ़्ते पहले आया है। इससे पहले दो-तीन स्टेशनों पर दो-दो, तीन-तीन साल नौकरी कर आया है। वहाँ ऐसी किसी भी घटना पर सभी कर्मचारी बल्कि गाँव वाले और वहाँ मौजूद तमाम व्यक्ति मदद के लिए आगे आ खड़े होते। बिना किसी फँसने-फँसाने की चिंता के, सारे महत्त्वपूर्ण कामों को छोड़ कर उस व्यक्ति की सेवा-टहल और बचाव कार्य में लग जाते। पहले विनोद सोचता था, शहर में पढ़े-लिखे लोग होते हैं। वे अमीर और सहृदय होते होंगे। वह शहर में आने के लिए बहुत उत्सुक और लालायित था। सोचता था, शहर जाकर मैं भी अपने बच्चे को अच्छी शिक्षा और संस्कार दूँगा। वहाँ जाकर मेरे बच्चे पढ़ाई में अव्वल होंगे। राष्ट्र, जन और देश सेवा करेंगे। शहर की बहुत सारी सुविधाओं का भोग करूँगा। इन पन्द्रह दिनों में उसने शुष्कता, लालसा, स्वार्थ, निजी-हित और हृदयहीनता के सिवा और कुछ नहीं पाया था। यहाँ किसी को किसी से मतलब नहीं है। आमने-सामने मकानों में रहने वाले भी एक दूसरे से अनभिज्ञ थे। अजनबीपन के इस परिवेश में पन्द्रह दिनों में ही ऊब गया। जब गाँव के किसी स्टेशन पर जाता था तो उसे देखने के लिए लोगों का ताँता लग जाता था। महीनों ख़ूब ख़ातिरदारी होती। यहाँ आज तक कोई देखने और हाल पूछने भी नहीं आया। कहाँ, वहाँ गाँव-घर का व्यवहार और माहौल था। वह यहाँ आकर पछता रहा था। न किसी से बोलना, न हँसी-मज़ाक़, न साथ में घूमना-टहलना। वह इस शहरी माहौल से ऊब गया था। उसका मन उड़-उड़ कर पूर्व के स्टेशनों पर चला जाता।

विनोद ने कहा, ”आप फोन से पॉवर केबिन को तो बता सकते हैं?“

मास्टर ने इनकार करते हुए कहा, ”मैं नहीं बताऊँगा भैया। मैं इन झंझटों में नहीं फँसना चाहता। आपको बताना हो बताओ। मैं मना नहीं करता, पर मेरा नाम न लेना। यार्ड मास्टर श्रीवास्तव जी पान खाकर आएँगे, उन्हीं से कहना। मुझे इस झमेले में न घसीटो।“

”जिसे झमेला कह रहे हैं, वह हमारा कर्तव्य है। हमारी ड्यूटी का ही एक भाग है। किसी असहाय की सेवा प्रत्येक मानव का प्रथम धर्म है।“

रामनयन शंटिंग मास्टर बोला, ”होगा! मैं ऐसे सेवा से दूर ही रहता हूँ, जिसमें अपनी ही गर्दन फँदे के अंदर आ रही हो।“  

विनोद के सहकर्मी धर्मवीर ने सलाह दी, ”रहने दो यार! यात्रियों में ही कोई-न-कोई यह कार्य कर देगा। घण्टे-दो-घण्टे बाद आकर देख लेना, बाबा का शरीर वहाँ नहीं मिलेगा।"

सभी वही बैठे थे। शंटिंग मास्टर मुझे साथ लिए बाहर निकले। मेरा हाथ पकड़े सामने खड़ी पंजाब मेल के शयनयान-कोच में उन्होंने प्रवेश किया। मैंने देखा टी.टी. यात्रियों से अनैतिक रूप से पैसे ऐंठ रहे थे। फिर दूसरे डब्बे में ले गये। 

आर.पी.एफ., जी.आर.पी. वाले सामान तालाशी के बहाने ज़बरदस्ती ग़लत तरीक़े से पैसा वसूली कर रहे थे। वह बोले, "और क्या-क्या दिखाऊँ भैया! ट्रेनों में जितने भी किन्नर माँगते हैं, प्रशासनिक मान्यता प्राप्त वेंडरों के अतिरिक्त बेचनेवाले हैं सब इन्हीं की करामात का परिणाम है। और हाँ, यह कोई कल्याण या उपकार का काम नहीं करते, एवज़ में पैसे लेते हैं, पैसे। सबसे वसूली करते हैं। महीना, सप्ताहिक या रोज़ का बँधा हुआ है। कहना तो नहीं चाहिए पर ट्रेनों या स्टेशनों पर जितनी चोरियाँ होती हैं उनमें भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष इन्हीं का हाथ रहता है। ऐसे ना देखो भैया, इन्हीं की शह पर चोरी होती है। इन सब में इनका हिस्सा इन्हें मिल जाता है। हिस्से का एक भाग ऊपर तक जाता है। ये लोग कड़े हो जाएँ तो कहीं पर भी पड़ा एक सामान इधर से उधर न होगा। आप चोरी के सामान की शिकायत लिखाने जाओ; देखो, ये कैसे नख़रे दिखायेंगे। तुम्हें डरायेंगे, धमकाएँगे, ऐसे-ऐसे सवाल करेंगे की पूछो मत। शिकायत दर्ज करने के बाद भी कोई कार्यवाही नहीं करेंगे। चाह जाएँ तो चौबीस घंटों के अंदर तुम्हारा खोया असबाब तुम्हें मिल जाए। इनके किसी रिश्तेदार या घरवालों के साथ ऐसा हो जाए तो दूसरे दिन वह वस्तु उन्हें मिल जाती है। कई पुलिस वालों को पार्सल-सामानों से सील तोड़कर निकालते देखा है। अब तो आ गये हो, ख़ुद देख लोगे कि रक्षक ही कैसे भक्षक हैं। व्यापारियों के पार्सल-सामानों से आलू, प्याज, हरी सब्जियाँ, धेले की चीज़ों से लेकर महँगे सामानों तक, सब पर हाथ साफ़ करते हैं। इन वर्दीवालों के साथ-साथ हमीं लोगों में कई ऐसे हैं जिनके यहाँ महीनों बाज़ार से सब्जी नहीं ख़रीदी जाती। ये चंद लोग पूरे रेलकर्मी समूह का नाम बदनाम करके रखे हैं। ऐसे लोग आपको हर विभाग में मिलेंगे। यक़ीन मानिये पूरी व्यवस्था पर इन्हीं का दबदबा क़ायम रहता है। अधिकारी इन्हीं से ख़ुश रहता है। इनका ख़र्चा, बाहरी कमाई से चलता है।“

विनोद भोलेपन से पूछा, ”मगर ये ऐसा क्यों करते हैं?“

”क्योंकि इन्होंने अपनी चादर से अधिक पाँव फैला लिये हैं। इन्हें बेईमानी, घूसखोरी की आदत लग गयी है। पैसे की बुरी लत लग गयी है। जिसे एक बार धन और स्त्री की लत लग गयी तो पूरी ज़िन्दगी पीछा नहीं छूटता। दस-दस रुपये में अपना ईमान बेचते हैं। वेश्याओं से भी सस्ती दर पर इनका सौदा होता है। या यूँ कहो कि सबसे सस्ती दर का ईमान पुलिसवालों का ही होता है। मैं ये नहीं कहता की सभी पुलिसवाले भ्रष्ट ही होते हैं। किन्तु अधिकतर पुलिस अपने कर्तव्यों को अनदेखा करके चलते हैं।“

विनोद को यह सब सुन कर आश्चर्य हो रहा था। अब उसे यहाँ आकर और ज़्यादा पछतावा होने लगा। छोटे स्टेशनों को बड़े स्टेशनों की अपेक्षा ओछा आँकता था। ऐसे परिवेश में बच्चों को क्या शिक्षा मिलेगी? जिस शिक्षा, व्यवस्था, तथा सुविधाओं को देखकर यहाँ आया था असल में उसका लेश भी नहीं है। उसने निश्चय कर लिया कि पुनः किसी छोटे स्टेशन पर अपना तबादला करा लूँगा और जीवन भर फिर दुबारा बड़े स्टेशनों पर न आऊँगा।

उसके मन में बहुत सारे विचारों ने घर बना लिया था। वह सोच-विचार के भँवर में फँस गया। तब तक उसके जोड़ीदार आ गये। उन्हें कार्यभार सौंपकर उसके साथ वाले सभी छूटकर तेज़ क़दमों से जाने लगे। तब वह भी चिंतित, दुःखी मन से धीरे-धीरे घर को चल पड़ा। बार-बार उसके मन में यही सवाल उठ रहा था– ऐसा क्यों है? हम अपने हिस्से से संतुष्ट क्यों नहीं हैं? अपने कर्तव्यों का निर्वाह ईमानदारी, लगन और निष्ठा से क्यों नहीं कर पाते? क्यों दूसरे के हिस्से को ग़लत तरीक़े से अपना बनाना चाहते हैं? मानवता और इंसानियत को क्यों शर्मसार करते हैं? हम ऐसा क्यों करते हैं? पता न उस साधु बाबा का क्या हुआ होगा?

उसे चिंतित देख धर्मवीर बोला, ”अभी तो आपने कुछ भी नहीं देखा। यहाँ लाश को नदी-नालों, या चुपके से गंगाजी में फेंक कर क़फ़न का पैसा भी खा लिया जाता है। आपको मेरे ही साथ ड्यूटी करनी है। धीरे-धीरे सारे रहस्यों से अवगत करा दूँगा। जल्दी चलिए खा-पीकर सोया जाए। नींद बहुत आ रही है। रात ड्यूटी करने से चेहरे की रंगत ही बिगड़ जाती है। तीस वर्ष में ही बूढ़ा दिखने लगा हूँ। स्टेशन पर इतनी हसीनायें आती हैं; कभी कोई देखती भी नहीं।“ 
यह कहने के साथ ही चेहरे पर हाथ फेरता हुआ, तेज़ क़दमों से आगे निकल गया। विनोद भारी मन से धीरे-धीरे क़दम बढ़ाता हुआ रेलवे कॉलोनी की तरफ़ जा रहा था। उसके मन में बार-बार एक ही प्रश्न आता था, ऐसा क्यों?
 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें