एग्नेस ठाकुर - मुक्तक - 01

03-05-2012

एग्नेस ठाकुर - मुक्तक - 01

डॉ. एग्नेस ठाकुर

शाम ढलती है तो रात घिर आती है,
रात ढलती है, तो सुबह मुस्कुराती है।
एक उतार का लेकिन चढ़ाव नहीं होता -
ज़िन्दगी बस ढलती ही चली जाती है।
 
हो कर इस कदर मायूस मत बैठ अरे पथिक!
दूर नहीं मंज़िल तेरी, कदम बढ़ाकर तो देख।
होगी पूरी तमन्ना, तेरी भी किसी दिन -
पत्थर के आगे कभी सिर झुका कर तो देख।
 
वक्‍त बदल जाता है, चाह बदल जाती है,
दुनियाँ में यूँ ही हर बात बदल जाती है।
मंज़िल का पता पूछते हो क्या जब -
मोड़ तक आकर हर राह बदल जाती है।
 
स्वप्न सुहाने कभी, देखे थे जिन आँखों ने,
टूटते हर स्वप्न भी देखे हैं उन आँखों ने।
अश्क भरी आँखों से न जोड़ कोई नाता -
टूटते ही देखा है,  हर नाते को इन आँखों ने।

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